एक मित्र ने पूछा धर्म क्या है?
ईश्वर की उत्पत्ति भय और अज्ञान से हुई तथा खास ऐतिहासिक संदर्भ में ईश्वर को सांस्थानिक/संस्थागत रूप देने के लिए मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया जिसका चरित्र देश-काल के हिसाब से परिवर्तित होता रहता है। मतलब, धर्म ऐतिहासिक रूप से विकसित सामूहिक चेतना है और व्यक्ति की स्वचेतना उसी सामूहिक चेतना का हिस्सा है।
अक्सर मार्क्स के धार्मिक अवधारणा के बारे में ज़िक्र कर मार्क्सवाद के विरोधी उसे धर्म अफ़ीम है तक सीमित कर देते हैं । संदर्भ से काटकर इस उद्धरण के ज़रिये धर्मपरायण जनता के समक्ष मार्क्स को कलंकित करने के उद्देश्य से वे ऐसा करते हैं । मार्क्स ने इस संदर्भ में जो कुछ कहा था वह बिल्कुल दूसरे ही रूप में है । अगर उसे समस्त संदर्भ में परखा जाय तो मार्क्स द्वारा धर्म की आलोचना के सत्य को सही सही समझा जा सकता है ।:
"धार्मिक पीड़ा की अभिव्यक्ति वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और उसके प्रति विद्रोह भी है । यह पीड़ित प्राणियों की आह , हृदयविहीन विश्व का हृदय और आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है । यह लोगों के लिए अफ़ीम है !
" मनुष्य के आभासित सुख के रूप में धर्म का उन्मूलन ही उसके वास्तविक सुख की प्राप्ति का तक़ाज़ा है । उनसे अपनी आभसित स्थितियों को छोड़ देने का आह्वान उन हालात को छोड़ने की आह्वान है जिसके लिए भ्रम की दरकार होती है । धर्म की आलोचना इस तरह मूल में आँसुओं की उस घाटी की आलोचना है धर्म जिसका प्रभामण्डल है ।
".......धर्म की आलोचना (वस्तुतः) मनुष्य को भ्रम से इस तरह मुक्ति दिलाएगा कि वह उस मनुष्य की तरह सोचेगा , आचरण और व्यवहार करेगा जिसने भ्रमों से मुक्ति पा ली है और अपने ज्ञान को इस तरह पुनः अर्जित कर लिया है कि वह स्वयं को वास्तविक सूर्य मानकर अपनी ही परिक्रमा शुरू कर देगा । धर्म एक आभासित सूरज है जो मनुष्य के इर्दगिर्द तब तक रहता है, जब तक वह स्वयं की परिक्रमा नहीं करता ।
"इसलिए इतिहास के दायित्व के तहत एक बार अगर इस संसार ( इहलोक) में सत्य को स्थापित करने के लिए सत्य की दूसरी दुनिया (परलोक) को नष्ट किया जा चुका है तो इतिहास की सेवा में रत दर्शन का यह फ़ौरी काम हो जाता है कि मानवीय स्व-अलगाव के पावन स्वरूपो पर से एक बार पर्दा हट चुकने के बाद स्व-अलगाव के अपावन स्वरूपों पर से भी पर्दा खींच लिया जाय ।
इस प्रकार स्वर्ग की आलोचना धरती की आलोचना में ,धर्म की आलोचना क़ानून की आलोचना में और धर्मशास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है ।
"धर्म की आलोचना का आधार निम्न है : मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया है, धर्म मनुष्य का निर्माण नहीं करता है।
"धर्म वास्तव में उस मनुष्य की स्व-चेतना और स्व-विचार है, जिन्होंने स्वयं पर विजय नहीं पाई है , और स्वयं को पहले ही कहीं विसर्जित कर दिया है।"
आत्मबल की अनुभूति हो जाने पर इंसान में दुखों को उनकी हकीकत में झेलने और उनसे निपटने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है, उसे तब धर्म की बैशाखी की जरूरत नहीं होती।
बाकी फिर...
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