आर्थिक परिस्थितियों नें हमें आजीविका के लिए श्रमशक्ति बेचने को मजबूर कर दिया है, इस अर्थ में विशाल कामकाजी समूह 'अपने आप में' एक वर्ग है लेकिन वह तबतक भीड़ का एक टुकड़ा ही बना रहता है जब तक सामूहिक हित के आधार पर सामूहिक हित की चेतना (वर्ग चेतना) से लैस होकर 'अपने लिए' वर्ग में संगठित नहीं होता। इस तरह श्रमशक्ति बेचकर जीने वाला हर व्यक्ति मजदूर है। ज्यादा मजदूरी पाने वाले मजदूरों (ऊपरी तपका) के समूह के कुछ लोग मालिक (शासकवर्ग) होने का मुगालता ही नहीं पालते बल्कि साम्राज्यवादी पूंजी के दलाल की भूमिका निभाते हैं जिन्हें ऐंड्रे गुंडर फ्रैंक (चिली के मार्क्सवादी विद्वान [1929-2005]) ने लंपट पूंजीपति (lumpen bourgeois) की संज्ञा दी है। नौकरशाही, पुलिस, सेना (राज्य मशीनरी के सदस्य) किसी वर्ग में नहीं आते ये मशीन के पुर्जे की तरह हैं। मैंने 1987-88 में 'वर्ग और वर्ग चेतना' (Class and Class Consciousness) शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, खोजकर शॉफ्ट कॉपी बनवाना है तथा हिंदी में अनुवाद करना/करवाना है। बौद्धिक श्रमिकों (शासकर शिक्षकों तथा लेखकों) का वर्ग निर्धारण उनकी वैचारिक निष्ठा के आधार पर किया जाता है। लेखक भी मजदूर है, इसलिए नहीं कि वह विचारों का उत्पादन करता है, बल्कि इसलिए कि वह प्रकाशक के लिए अतिरिक्त मूल्य (surplus value) पैदा करता है।
नोट: श्रम करके कोई पूंजी नहीं कमाता, श्रम करके आजीविका कमाई जाती है। पूंजी श्रमिक की अतिरिक्त श्रमशक्ति से निर्मित अतिरिक्त मूल्य पर कब्जाकर बनाया जाता है। पूंजी का संचय केवल पूंजीपति ही कर सकता है मजदूर (कितना भी ऊंचा वेतन वाला इस्जीक्यूटिव) या अधिकारी (कितना भी भ्रष्ट) संचय की भ्रांति में रहता है।
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