Tuesday, May 19, 2020

शिक्षा और ज्ञान 289 (जाति-वर्ग)

मैं लगातार लिख रहा हूं कि भारत में पारंपरिक रूप से शासक जातियां ही शासकवर्ग रही हैं। यूरोप के नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) आंदोलनों ने जन्म(जाति) आधारित समाज विभाजन समाप्त कर दिया था। सामाजविभाजन का आधार आर्थिक कर दिया था। इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद ने समाज का श्रेणीबद्ध विभाजन सरलीकृत कर समाज को पूंजीपति और सर्वहारा के परस्पर विरोधी खेमों में बांट दिया। भारत में पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति के अधूरे एजेंडे की जिम्मेदारी भी हमारी (कम्युनिस्ट आंदोलन) की थी। हमने सामाजिक न्याय के इस एजेंडे को यानि जाति के सवाल को आर्थिक एजेंडे यानि वर्घ चेतना के सवाल में समाहित समझ लिया। जाति के सवाल को अलग मुद्दा अंबेडकर ने बनाया। अंबेडकर का मकसद एक समतामूलक समाज का निर्माण था, सामाजिक न्याय के जाति का विनाश उस दिशा में एक सीढ़ी थी, दूसरी सीढ़ी मजदूरों की समस्या यानि आर्थिक न्याय थी। हमने देर से चेता और रोहित बेमुला की शहादत से शुरू जेएनयू आंदोलन ने सामाजिक-आर्थिक न्याय की द्वंद्वात्मक एकता स्थापित करते, जय भीम, लाल सलाम का नारा दिया। अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे, जवाबी जातिवाद नहीं। आप ने सही कहा कि जातीय उत्पीड़न के खिलाफ सबसे बहादुरी से वर्गवादी ताकतें ही लड़ीं जिसकी चुनावी फसल काटा जवाबी जातिवादी, तथाकथित सामाजिक न्याय की ताकतों ने। बिहार में दलितों को आवाज लालू ने नहीं, वहां के क्रांतिकारी आंदोलनों ने दी, लालू ने उसका चुनावी फायदा उठाया। जिस तरह ब्राह्मणवादी (सांप्रदायिक) ताकतों के पास हिंदू-मुसलिम नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही राजनैतिक लामबंदी की एकमात्र रणनीति है, उसी तरह जातिवाद ही इन तथाकथित सामाजिक न्यायवादियों की एकमात्र रणनीति। जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, ऐसा करने वाले अब्राह्मण समूह/ताकतें नव ब्राह्मामणवादी हैं। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के प्रसार) में दोनों ही बड़े अवरोधक हैं। मैंने लिखा है कि हिंदुत्व ब्राह्मणवाद का राजनैतिक संस्करण है। क्रांति के लिए जरूरी है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसके लिए जरूरी है धार्मिक-जातीय मिथ्याचेतनाओं से मुक्ति। लड़ाई लंबी जटिल और मुश्किल है। आसान काम तो सब कर लेते हैं।

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