एक पोस्ट पर हिंदू-मुसलमान करने वाले एक सज्जन ने अक्सर पूछे जाने वाला सवाल कि मिश्र क्यो लिखता हूं, और फिर इंसान और शिक्षक होने पर तंज किया, उस पर 2 कमेंट:
एक ही भजन कब तक गाइएगा? मिश्र क्यों लिखता हूं? हर ब्राह्मणवादी-नवब्राह्मणवादी यही सवाल पूछता है, इस पर पिछले 47-48 सालों में बहुत लिख बोल चुका हूं, मैं कहां पैदा हो गया उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, उस पर गर्व या शर्म करने की कोई बात नहीं है न छिपाने की जरूरत। इसलिए भी लिखता हूं कि लोगों को पता चले कि समाज को हजारों साल की जड़ता में जकड़ने वालों में मेरे पूर्वज भी शामिल हैं। मैं कैराना और मेवात में बहुत रहा हूं वहां भी इंसान ही रहते हैं। आपकी ही तरह यही कुतर्क फिरकापरस्ती की नफरत का जहर बोने वाला हर बजरंगी देता है। बाकी आप अहीर से इंसान नहीं बनना चाहते तो आपकी मर्जी, देश का दुर्भाग्य है कि इंसान बनने में असमर्थ लोग शिक्षक बन जाते हैं। सादर। आपने हिंदू-मुसलमान की ही बात कही। हिंदू कोई होता नहीं, अहिर होने के नाते ही हिंदू हैं। अहिर से इंसान बन जाइए, हिंदू से अपने आप इंसान बन जाएंगे।
मैंने तो कहा नहीं मैं अकेले इंसान हूं, बहुमत इंसानों का ही है, इंसान बन पाने में अक्षम लोग अल्पमत में हैं। इसमें अहंकार की क्या बात है? अहंकार तो ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों में होता! मैंने ऐसा भी नहीं कहा मैं सबसे काबिल टीचर हूं, हां मेरे छात्र विवेकशील इंसान जरूर बन जाते हैं। लेकिन जो बाभन(या अहिर) से इंसान नहीं बन पाता वह शिक्षक की नौकरी करने के बावजूद शिक्षक ही नहीं हो सकता, अच्छे शिक्षक की बात तो दूर है। शिक्षक बन गए ऐसे फिरकापरस्त लोग दिमाग में भरी नफरत का जहर छात्रों में भी फैलाते हैं ।
Bijendra Yadav मैं मुनव्वर राणा का प्रवक्ता तो हूं नहीं, आपने ने उनका उद्धरण दिया है बिना श्रोत के आप ही बताएंगे वे क्या समझाना चाहेंगे। इंसान बनने की असमर्थता पर बाभनों का एकाधिकार है नहीं, बहुत से धुनिया या पठान भी इंसान बनने में असमर्थ होंगे। जहां तक हिमांशु के सवाल की बात है. वह तो हमने बता दिया कि मेरे लिए हर इंसान इंसान होता है, जब तक वह इंसान बनने में अपनी अससर्थता न जाहिर कर दे। शिक्षक को तो धर्म-जाति की मिथ्या चेतना से ऊपर उठ कर तार्किक अस्मिता का निर्माण करना चाहिए।
Bijendra Yadav जो नहीं बनना चाहें, उनपर वाध्यता नहीं है। मैंने तो 13 साल में जनेऊ तोड़कर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया था। किसी की धार्मिक या जातीय (जन्म की) अस्मिता जीववैज्ञानिक संयोग का परिणाम है, विवेकशील इंसान बनना अपने प्रयास का। हमारी शिक्षा ऐसी है कि पीएचडी करके भी बहुत लोग बाभन से इंसान नहीं बन पाते। (बाभन से इंसान बनना जन्म की अस्मिता से ऊपर उठ विवेकशील इंसान बनने का मुहावरा है)। दुर्भाग्य से इंसान बनने में असमर्थ बहुत लोग शिक्षक बन जाते हैं।
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