पेट और हाथ शरीर के कुदरती जैविक अंग हैं। श्रमजीवी और परजीवी अलग अलग वर्ग हैं जिन्हें हर युग में शासक वर्ग हाथ और पेट की ही तरह समाज के जैविक अंग बनाने की कोशिस करता है। जिन्होंने प्लैटों का रिपब्लिक पढ़ा है वे जानते हैं कि उसका आदर्श राज्य वर्णाश्रम की लगभग नकल है। यूरोप में नवजागरण तथा प्रबोधन क्रांतियों ने समाज का जन्मगत विभाजन समाप्त कर आर्थिक कर दिया जिससे मार्क्स ने लिखा कि समाज दो विपरीत, पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग खेमों में विभाजित हो गया। यहां पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति हुई नहीं। मार्क्स को भारत पर लिखते समय एसियाटिक उत्पादन पद्धति की अलग कोटि का वर्णन करना पड़ा। यहां, जैसा अंबेडकर ने लिखा है, श्रम विभाजन के साथ श्रमिक विभाजन (जाति) भी है। आर्थिक परिस्थितियों ने पूर्व परजीवियों को श्रमजीवी बनने पर वाध्य कर दिया लेकिन श्रम की अवमानना का परजीवी श्रेष्ठतावाद की विचारधारा बरकरार रही। संविधान में सामाजिक न्याय का प्रावधान उसीलिए बनाया गया। सवर्ण-अवर्ण की समस्या भारतीय है, जेफरलट जैसे कुछ विदेशी विद्वानों ने भी इस पर लिखा है। अंबेडकर ने जाति के विनाश के अलावा रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म भी लिखा है।
भारत सरकार के सामाजिक न्याय विभाग द्वारा प्रकाशित अंडेकर के संकलित काम प्रकाशित किए गए हैं। सादर।
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