अलौकिक जगत की कल्पना लौकिक जगत की विसंगतियों के निवारण की भ्रांति है। रोमन कैथलिक चर्च द्वारा कल्पित देवलोक यूरोपीय सामेतीसमाज का ही परिमार्जित-परिवर्धित संस्करण था। त्रिदेव संचालित हमारा बैकुंठलोक वर्णाश्रमी स्माज का ही संशोधित संस्करण है। इस्लाम का जन्नत 7 वीं शताब्दी के अरब समाज की आकाक्षाओं का ही वर्णन है।
चेतना भौतिक परिस्थितियों (इहलौकिक परिघटनाओं) की उत्पत्ति है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। चूंकि भौतिक परिस्थितियां परिवर्तनशील हैं इसलिए चेतना भी परिवर्तनशील है। साश्वत न इहलौकिक परिघटनाएं (भौतिक परिस्थितियां) हैं न उनसे व्युत्पन्न चेतना। भौतिक परिस्थितियां स्वतः नहीं किंतु चैतन्य मानव प्रयास से बदलती हैं अतः भौतिक परिस्थितियों और चेतना में द्वंद्वात्मक संबंध है तथा सत्य (यथार्थ) दोनों की द्वंद्वात्मक एकता (संयोग) से निर्मित होता है। इसलिए भौतिक परिस्थितियां एवं चेतना तथा उनके संयोग से निर्मित यथार्थ परिवर्तनशील हैं, साश्वत (सनातन) नहीं, परिवर्तन ही साश्वत है।
जब हमारा मन भविष्य के प्रति हताश-निराश होता है तो अतीतजीवी हो जाता है और किसी अज्ञात अतीत में अज्ञात महानताएं तलाशने लगता है। लेकिन इतिहास की गाड़ी के इंजन में रिवर्स गेयर नहीं होता, यदा-कदा कुछ यू टर्न आ जाते हैं। अधोगामी शक्तियों को परास्त करते हुए पाषाणयुग से साइबर युग तक की इतिहास की यात्रा इसकी अग्रगामी प्रवृत्ति का प्रमाण है। चारवाक लोकायत तथा बौद्ध धाराएं भौतिकवाद की प्राचीन भारतीय दार्शनिक धाराएं हैं। हम अपनी धार्मिक मान्यताओं की श्रेष्ठता साबित करने के लिए उन्हें अपरिभाषित सनातन घोषित कर देते हैं। सनातन साश्वत कुछ नहीं होता, अतीत से वर्तमान निकलता है तथा अतीत की यादें एवं कल्पनाएं वर्मान में परिलक्षित होती हैं।
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