कशीदे नहीं भी पढ़ता जो जालिम जमाने का
वह कलम भी क्यों मौन?
संतोषी के भात-भात बिलखने की
कथा कहेगा कौन?
कौन समझाएगा 12 घंटे रिक्शा चलाने वाले भूपत को
या सुबह 6 बजे से कोठियों में चौका-बर्तन करती नूरजहां को
किस्मत के तर्क की हकीकत?
रोटी के लाले पड़े हों कामगार को
किसान रच रहें हों खाकर कीटनाशक
दुनिया को अलविदा कहने का नया रिवाज
विशाल होती जा रही हो जब बेरोजगारों की फौज
और सर्वहारा लंपट श्रम की बाजार
ऐसे में बिन कहे कुछ कह रहा है कलम का मौन
है जो संगीन अपराध है इतिहास के खिलाफ।
लिखता रहेगा अपना कलम हर्फ-ए-सदाकत
आती है तो आती रहे जुल्म-ओ-सितम की आफत
वक्त की जरूरत है लिखना हर्फ-ए-बगावत
और निज़ाम-ए-ज़र से खुली अदावत।
(ईमि: 03.12.2017)
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