Wednesday, December 20, 2017

शिक्षा और ज्ञान 138 (मिशाल से पढ़ाना)

Vikas Kumar इंसानियत को तार-तार तो संस्कारों के पैरोकार कर रहे हैं। हम तो जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना का अस्मिता से ऊपर उठकर इंसानी बिरादरी बनाने के प्रयास में संस्कारों को तार-तार किए। इंसान बनने के लिए ही तो 'कुलीन' कर्मकांडी ब्राह्मण संस्कारों को तोड़ने का कठिन आत्मसंघर्ष करना पड़ा। बाभन से इंसान बनना बहुत कठिन होता है लेकिन अपार सुखदायी। वैसे भी आसान काम तो हर कोई कर लेता है। बच्चों को सिखाना नहीं पड़ता, वे प्रवृत्तिगत रूप बहुत सजग पर्यवेक्षक और नकलची और विद्रोही होते हैं, खुद सीखते और अनायास माहौल से मिली सीख को भूलते हैं। मां-बाप और शिक्षक काम है उन्हें परिवेश (एक्सपोजर) प्रदान करना और मिशाल से सिखाना; उनमें सवाल करने और अपनी समझ विकसित करने के साहस जुटाने में मदद करना न कि उनके दिमाग में अपनी असुरक्षाएं, अपने भय अपनी अपूर्त अपेक्षाएं भरना। मैंने अपनी बेटियों को मम्मी-पापा कहना नहीं सिखाया, लेकिन अपने लिए जिस संबोधन से न बुलाने का आग्रह किया, प्रवृत्तिगत विद्रोह के चलते वे मुझे उसी संबोधन से बुलाती हैं। बिना संबोधन के भी बुलाती हैं। उनकी मर्जी। शब्दों को भाव देते हैं संवाद का लहजा (टोन) और लक्ष्यार्थ (कोनोटेसन)। बच्चों के साथ बड़े होना आनंददायक है। लेकिन ज्यादातर मां-बाप और शिक्षक समता के अपार सुख से अपरिचित बच्चों से मित्रता न कर ऐसा अभिनय करते हैं जैसे वे किसी और लोक के जीव हों। सादर। हास्यबोध बेहतर कीजिए।

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