सहमत। दर-असल शिल्पी और कारीगर तपके आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे, लेकिन सामाजिक रूप से नहीं। उन्होंने सोचा इस्लाम में तो सब बराबर हैं और धर्म परिवर्तन कर लिया, लेकिन जाति ने वहां भी उनका साथ नहीं छोड़ा। इसीलिए आप पाएंगे कि मुसलमानों में दर्जी, बढ़ई, लोहार, नाई, धोबी .. ही बहुसंख्यक हैं, शेख, सैयद, पठान... अलिप संख्यक। धर्मांतरण छोटी जातियों ने ही ज्यादा किया। बड़ी जातियां या तो जाति से बहिष्कृत होने पर या राजनैतिक लाभ की लालच में। आजमगढ़ जिले में मेरे गांव के पास में एक गांव है भरचकिया। एक लड़का मिडिल स्कूल में हमारा सीनियर था, एक पांडेय, नाम नहीं याद है, न ही उसके बाद कभी मुलाकात है। ऐसे मामले चर्चित हो जाते हैं, इसलिए जानता हूं। बंबई जाकर उसने कोई कार-बार शुरू किया और एक मुसलमान लड़की से इश्क हो गया शादी कर ली। घर (और संपत्ति) तथा जाति से उसे निकाल दिया गया। बिना धर्म के जीवन उसे अंदाज नहीं था, मुसलमान बन गया (सैयद)। पिता की श्राद्ध में शामिल होने पूरे ताम-झाम के साथ घर आया, उसे श्राद्ध में शामिल नहीं होने दिया गया। आजमगढ़ शहर के संस्थापक, रौतेरा रियासत के रापूत रजवाड़े का राजा थे (नाम दरियाफ्त करके बताऊंगा)। उन्हे मुसलमानों के साथ खान-पान के चलते जाति से निकाल दिया गया और वे मुसलमान बन गए। उनके खानदान और रियासत के ज्यादातर रापूत उन्ही के साथ मुसलमान बन गए। उनके एक बेटे का हिंदू नाम था और दूसरे का आज़म। रौतेरे अपने को मुसलमान कम, रौतेरा ज्यादा कहते हैं और छोटी जाति के मुसलमानों के साथ रोटी का तो रिश्ता रखते हैं, बेटी का नहीं। 'घर वापसी' का रास्ता बंद है क्योंकि वापस किस जाति में शामिल होंगे, क्योंकि हिंदू अपने आप में जातियों के समुच्चय के अलावा कुछ और नहीं है।
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