भगत सिंह और अंबेडकर
ईश मिश्र
जिस पोस्ट का जिक्र हो रहा है, वह काल्पनिक है क्योंकि 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में भगत सिंह ने अंबेडकर का जिक्र नहीं किया है। और भी भगत सिंह के
लेख, जितने मैंने पढ़ा है, उनमें अंबेडकर का जिक्र नहीं है। यचयसआर के गठन के पहले से ही, बल्कि कानपुर आकर गणेश शंकर विद्यार्थी और शिव वर्मा से मिलने के
पहले से ही भगत सिंह जातिवाद औरसांप्रदायिकता तथा धर्म पर छद्म नाम से ट्रीब्यून
और किरती किसान में लिखते रहे थे लेकिन किसी में भी अंबेडकर का जिक्र नहीं है। भगत
सिंह की शहादत पर अंबेडकर ने अपने मराठी अखबार जनता में संपादकीय लिखा (31 अप्रैल 1931)
तथापि उनका लेख ‘अछूत समस्या’ इस मायने में
महत्वपूर्ण है कि इससे जाति और वर्ण-समस्या पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों की
झलक मिलती है। तथापि उनका लेख ‘अछूत समस्या’ इस मायने में
महत्वपूर्ण है कि इससे जाति और वर्ण-समस्या पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों की
झलक मिलती है। “बात बिल्कुल खरी है। लेकिन यह क्योंकि एक मुस्लिम ने कही है, इसलिए हिन्दू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने में
शामिल करना चाहते हैं।” धर्मांतरण का समर्थन करते हुए उन्होंने लिखा है, “जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता
समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जायेंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया
जायेगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।” सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भगत सिंह
और अंबेडकर के विचार मिलते हैं, लेकिन भगत सिंह
के लेखों में, जहां तक मुझे मालुम है, अंबेडकर के कामों का उद्धरण नहीं है। भगत सिंह सामाजिक न्याय को
क्रांति का हिस्सा मानते थे, अंबेडकर से
स्वतंत्र। जयभीम-लालसलाम नारे की आज की स्थिति में यही क्रांतिकारी प्रासंगिकता है। यह नारा
रोहित बेमुला की संस्थात्मक हत्या के विरोध में सबसे पहले जेयनयू के छात्रों ने
दिया था, अंबेडकरवादियों ने नहीं। प्रगतिशील अंबेडकरवादी भी यह नारा
दुहराने लगे, शुद्ध अस्मितावादी, अंबेडकरवादी सिर्फ जयभीम लगाते हैं। सामाजिक और आर्थिक न्याय के
संघर्षों की एकता से ही मुक्ति संभव है। यदि हमारे वैचारिक पूर्वजों (कम्युनिस्ट
पार्टी) ने सामाजिक न्याय के मुद्दे की अहमियत समझा होता तो शायद अंबेडकर उनके साथ
होते (क्या होता तो क्या होता की बात वैसे व्यर्थ है, जो हुआ वही हुआ)।
अंबेडकर पूंजीवाद के दलाल नहीं थे, वे हेरॉल्ड
लास्की किस्म के प्रगतिशील उदारवादी थे। इंगलैंड (यूरोप) में जन्म आधारित सामाजिक
विभाजन नवजागरण और एन्लाइटेनमेंड क्रांतियों के दौरान खत्म हो गया था इसीलिए
मार्क्स लिखते हैं कि पूंजीवाद ने समाज को दो खेमों में बांट दिया है। भारत में
नवजागरण कबीर के साथ शुरू हुआ लेकिन अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका।
कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के समय भारत में पूंजीवाद नहीं था, न ही पूंजीवादी
सामाजिक संबंध, इसलिए सामाजिक न्याय का मुद्दा प्रमुखता से एजेंडा पर होना
चाहिए था, जिसके न होने से
आज क्रांतिकारी सामाजिक चेतना के रास्ते में ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद बहुत
बड़े स्पीड ब्रेकर्स बने हुए हैं। मार्क्स की मैनिफेस्टो की भाषा की आक्रात्मकता
पहले इंटरनेसनल में लचीली हो गयी जिसकी मार्क्स ने व्यापक मोर्चे की जरूरत बताकर
एंगेल्स को सफाई दी थी।सच्चाई यह है कि सामाजिक न्याय कम्युनिस्टों के साथ नहीं
अंबेडकर से साथ जोड़कर देखा जा ता है, जयभीम-लाल सलाम नारा रणनीतिक रूप से
क्रांतिकारी नारा है।च्चाई यह है कि सामाजिक न्याय
कम्युनिस्टों के साथ नहीं अंबेडकर से साथ जोड़कर देखा जा ता है, जयभीम-लाल सलाम
नारा रणनीतिक रूप से क्रांतिकारी नारा है।एंगेल्स ने ही कुछ बुद्धिजीवियों को
फटकारते हुए लिखा था कि मजदूर ही क्राेति करेगा उनकी क्रांति एनलाइटेंड बुद्धिजीवी
नहींमार्क्स 1848 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद से
लगातार लिखते रहे कि मजदूर अपनी मुक्ति की लड़ाई मजदूर खुद लड़ेगा, लेकिन अपने आप
में वर्ग से अपने लिए वर्ग बनने के बाद, यानि वर्गचेतना आत्मसात करने के बाद
यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बाद, हमारा मख्य काम वही है।मार्क्स 1848 की
क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद से लगातार लिखते रहे कि मजदूर अपनी मुक्ति की लड़ाई
मजदूर खुद लड़ेगा, लेकिन अपने आप में वर्ग से अपने लिए वर्ग बनने के बाद, यानि वर्गचेतना
आत्मसात करने के बाद यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बाद, हमारा मख्य काम
वही है।
No comments:
Post a Comment