वामपंथ का आंतरिक विवाद
ईश मिश्र
यह लेख फेसबुक के एक ग्रुप में कुछ चिरकुट “अति
क्रांतिकारियों” द्वारा मेरी नीयत पर सफाई के कमेंट्स का संकलन है।
मैं तीन कम्युनिस्ट संगठनों में रहा। जेल में
सफाया लाइन से मोह भंग हो चुका था क्योंकि किसी वर्गशत्रु का नहीं बल्कि एक दूसरे
का और मुखबिर के संदेह में आमजन का सफाया हो रहा था। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला
थी, लगा सीपीयम गोल्डन मीन है। यसयफआई में चला गया। वहां से 1980
में 'प़लिटिक्स फ्रॉम
एबव' पर सवाल करने के चलते 40 लोगों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया, आप जानते हैं कि कम्युनिस्ट संगठनों में इस्तीफे मंजूर नहीं
होते, पार्टी विरोधी गतिविधियों केआरोप में निकाल दिया जाता है। हमने
रिबेल यसयफआई बनाया और पीयडी करते हुए 1983 में एक लंबे आंदोलन में शिरकत के लिए
मॉफी न मांगने के लिए 17-18 लोगों के निष्कासित कर दिया गया। मुझ समेत 3 लोगों के
3 साल के लिए बाकी को 2 साल के लिए। विवि अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गया था तथा
1983-84 जीरो यीयर घोषित तर दिया गया। सारे बड़े संगठनों ने समर्पण कर दिया था, लेकिन हम 15-20 लोगों ने पोस्टर, लीफलेट, नाटक आदि के जरिए आंदोलन को सालभर और 'खींचा'। 1983 में जेयनयू में प्रवेश लेने वाला
कोई नहीं मिलेगा। वापस जनसंस्कृति मंच और आईपीयफ की मर्फत दुबारा यमयल आंदोलन से
जुड़ा। दोनों ही संगठनों के सथापना सम्मेलनों में था। 1984 के सिख नरसंहार के बाज
जेयनयू और डीयू के कुछ शिक्षक-छात्रों; डाक्टरों; पत्रकारों; फिल्मकारों आदि ने मिलकर सांप्रदायिता
विरोधी आंदोलन (यसवीए) नाम से संगठन बनाया जो 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बिखर
गया।
सबसे पहले तो दो अति 'क्रांतिकारियों' के निराधार निजी
आक्षेपों से 'तिलमिलाकर', यह भूलकर कि 42 साल पहले 20 का था, उन्ही की भाषा में जवाब देने के लिए शर्मिंदा हूं और साथियों से
क्षमा मांगता हूं। मार्क्स ने लिखा है कि शर्म एक क्रांतिकारी अनुभूति है। वैसे भी
उस समय बहुत अच्छी मनोस्थिति में नहीं था क्योंकि 2-3 दिन दिन पहले मेरी बेटी के ब्वायफ्रेंड के पिताजी की दिल का
दौरा पड़ने से मौत हो गयी और उसके दुख में शरीक होना बाप की स्वाभाविक प्रतिक्रिया
है।
कमेंट के बीच में बेटी का चाय के लिए मिस्ड कॉल आ गया, सोचा पूरा करके उठूं, तब तक दूसरा कॉल आ
गया और चाय बनाकर लौटा तो लैपटॉप का फ्लैप बंद करने में शायद कम्यूटर अज्ञान के
चलते लगभग 250-300
शब्दों का कमेंट डिलीट हो
गया। अब पत्नी भी उठ गयी हैं, उनके लिए चाय बनाकर, फिर कमेंट जारी रखूंगा। यह अति निजी बातें इस लिए लिख रहा हूं
कि प्रैक्सिस का सिद्धांत मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाओं में है। दुनिया बदलने के
लिए खुद को बदलना पड़ता है। इस ग्रुप के 2 साथी, Naveen Joshi और Lalprakash Rahi मेरे घर आए हैं और जानते हैं कि मैं कितनी 'ऐय्याशी' से रहता हूं। दोनों के आमंत्रण पर उनके
शहरों में अपने किराये-खर्चे से इनके कार्यक्रमों में जा चुका हूं। क्योंकि मेरी
छोटी सी समझ से मुझे लगता है, आज की मुख्य जरूरत सामाजिक चेतना के
जनवादीकरण की यानि क्रांतिकारी विचारों के प्रसार की है। साथी Manoj Singh से जनहस्तक्षेप के कार्यक्रम में मुलाकात हुई है। मैं कम्यनिस्ट
अकेडमीसियन नहीं, खुद को ऐक्टिविस्ट मानता हूं, फिलहाल बिना किसी पार्टी की सदस्यता के। पार्टी साधन है साध्य
नहीं, दुर्भाग्य से बुर्जुआ पार्टियों की ही तरह कम्यनिस्ट पार्टियों
के सदस्य भी साधन को ही साध्य मानने लगे हैं। मुझे इस बात पर भी शर्म आ रही है कि
मुझे बताना पड़ रहा है कि मैं एक ईमानदार, सिद्धांतनिष्ठ
मार्क्सवादी हूं। 18 साल की उम्र में किताबों से मार्क्सवादी
बनने (किताबी नहीं) के बाद आंदोलनों में शिरकत से समझ विसित करने कोशिस करता रहा
हूं। इतना लिखकर दिमाग थक गया है (बुड्ढा हूं), एक और चाय के बाद, अलाव जलाकर जारी रखूंगा। वैसे भी बहुत लंबा कमेंट एक साथ नहीं
पोस्ट हो पाता। नौकरी के चलते घर मिल गया है जहां बांस की झोपड़ी में लाइब्रेरी
बनाने और अलाव के पास काम करने का दिल्ली में दुर्लभ सुख मिल गया है जो डेढ़ साल
और रहेगा।
चलिए, जब शुरू किया तो पूरा ही कर दूं। 18 साल में इलाहाबाद में क्रांतिकारी छात्र आंदोलनों से जुड़ने के
बाद दीवारों पर सत्तर के दशक के मुक्ति का दशक के नारे लिखते हुए नौकरी की बात कभी
सोचा नहीं। हमारी उम्मीदें और खुशफहमियां निराधार नहीं थी। विश्वयुद्ध के बाद 1949 में चीनी क्रांति, अमेरिका में सिविल राइट्स आंदोलन, क्यूबा, 1960 के दशक के छात्र
आंदोलन (छात्र आंदोलन पर लेख के बीच इस पोस्ट में फंस गया, पता नहीं कब पूरा करूंगा, विवि भी खुल गया, मेरे लिए शिक्षण भी मेरी ऐक्टिविज्म का हिस्सा है।), वियतनाम, नक्सलबाड़ी, 1970 के छात्र आंदोलन, क्रांति अगले चौराहे पर खड़ी दिख रही थी। मैं अपने गांव का विवि
पढ़ने जाने वाला पहला बालक था। किसान पिता की 'कलेक्टरी' की राय न मानने
के लिए घर से पैसा लेना बंद कर दिया। वैसे भी खेतिहर अर्थव्यवस्था में नगदी की
सुलभता आसान नहीं था। तबसे अपनी मेहनत-मजदूरी से अपनी पढ़ाई किया और भाई-बहन की
पढ़ाई का जिम्मा उठाया पढ़ाई, एक्टिविज्म और
आवारगी में बिना किसी कोताही के। तभी आपातकाल लग गया और अपनी बेवकूफी से गिरफ्तार
हो गया। मैं सोचता था बड़े-बड़े लोगों को पकड़ रहे हैं और मैं तो 20 साल का छोटा सा छुटभइया था। 8-9 महीने का जेल प्रवास काफी ज्ञानवर्धक रहा, खाने-पीने की सुविधा अच्छी थी। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था, साहित्य का अध्ययन न के बराबर था। गोर्की, दोस्तोव्स्की, चेखव, ब्रेख्ट, थॉमस हार्डी, फ्रॉस्ट, लॉरेंस आदि की रचनाएं जेल में ही पढ़ा।
मैं तब तक सोचता था लेखक तो किसी और ग्रह से आते होंगे, फिर भी हर शाम नोट लिखता था, डीआईआर से छूटने के बाद मीसा में वारंट जारी हो गया और मैं अपने
सामान और किताबें लेने नहीं गया।जेल में फासीवाद का इतिहास पढ़ चुका था, और लगता था यह अगर 20 साल चला तो 21 में जाकर 41 में निकलूंगा। 21 की उम्र में 41 बहुत बड़ी उम्र
लगती थी। इलाहाबाद में भूमिगत रहते हुए रोजी कमाना मुश्किल था और
फीजिक्लस-केमेस्ट्री की किताबे सेकंड हैंड किताबों की बाजार में बेचकर दिल्ली आगया
और एक सीनियर की तलाश में जेयनयू पहुंच गई, वह कहानी फिर कभी। में ही एहसास हुआ कि मेरी 17 साल में शादी हो गयी थी क्योंकि विद्रोही जज्बात इतना नहीं था
कि भावनात्मक दबाव को तोड़ पाता। शादी मेरा चुनाव नहीं था लेकिन शादी निभाने का
फैसला मेरा था। मेरी मर्जी से नहीं तो उनकी मर्जी से भी नहीं हुई थी। पूंजीवाद में
हर कोई श्रम बेचने को अभिशप्त है। सोचा कि शिक्षक ही की नौकरी करूंगा। लेकिन
रंग-ढंग ठीक नहीं किया और 41 साल की उम्र में एक दुर्लभ संयोग से नौकरी मिल गयी।
मैं तीन कम्युनिस्ट संगठनों में रहा। जेल में
सफाया लाइन से मोह भंग हो चुका था क्योंकि किसी वर्गशत्रु का नहीं बल्कि एक दूसरे
का और मुखबिर के संदेह में आमजन का सफाया हो रहा था। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला
थी, लगा सीपीयम गोल्डन मीन है। यसयफआई में चला गया। वहां से 1980 में 'प़लिटिक्स फ्रॉम एबव' पर सवाल करने के चलते 40 लोगों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया, आप जानते हैं कि कम्युनिस्ट संगठनों में इस्तीफे मंजूर नहीं
होते, पार्टी विरोधी गतिविधियों केआरोप में निकाल दिया जाता है। हमने
रिबेल यसयफआई बनाया और पीयडी करते हुए 1983 में एक लंबे आंदोलन में शिरकत के लिए मॉफी न मांगने के लिए 17-18 लोगों के निष्कासित कर दिया गया। मुझ समेत 3 लोगों के 3 साल के लिए बाकी
को 2 साल के लिए। विवि अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गया था तथा 1983-84 जीरो यीयर घोषित तर दिया गया। सारे बड़े संगठनों ने समर्पण कर
दिया था, लेकिन हम 15-20 लोगों
ने पोस्टर, लीफलेट, नाटक आदि के जरिए आंदोलन को सालभर और 'खींचा'। 1983 में जेयनयू में प्रवेश लेने वाला कोई नहीं मिलेगा। वापस जनसंस्कृति
मंच और आईपीयफ की मर्फत दुबारा यमयल आंदोलन से जुड़ा। दोनों ही संगठनों के सथापना
सम्मेलनों में था। 1984 के सिख नरसंहार के बाज जेयनयू और डीयू
के कुछ शिक्षक-छात्रों; डाक्टरों; पत्रकारों; फिल्मकारों आदि
ने मिलकर सांप्रदायिता विरोधी आंदोलन (यसवीए) नाम से संगठन बनाया जो 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बिखर गया।
सोवियत संघ में गोर्वाचोव के ग्लास्तनोस्त के बाद
लिबरेसन में भी ग्लास्तनोस्त हो गया और मुझे लगा अब मेरे लिए उस पार्टी में जगह
नहीं है और कॉमरेडों से यह आग्रह करके अलग हो गया कि वे सीपीयम वालो के बताएं, 'जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर वहां हम भी पहुंचे, मगर धीरे-धीरे।' उसके बाद मार्क्स-लेनिन-ग्राम्सी को और पढ़ने तथा मनन करने के
बाद मुझे पार्टी, लाइन और जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के
व्यहारिकता का पार्टियों में स्थिति से सैद्धांतिक मतभेद होने लगा।1996 में दिल्ली में एक कार्यक्रम में कॉ. वीयम से आखिरी मुलाकात में
उन्होंने, मेरी 'गलतफहमियां' दूर करने के लिए एक बार साथ बैठने का आमंत्रण दिया। मैंने कहा
कि उनके साथ बैठना हमेशा सुखद है, लेकिन कोई
सार्थक संवाद नहीं हो सकता क्योंकि "मेरे मतभेद आपको गलतफहमी लगते हैं"।
उसके कुछ महीनों बाद ही कॉ वीयम अचानक चल बसे। लेकिन परिवर्तन के लिए संगठन जरूरी
है। इसलिए हम कुछ लोगों ने एक मानवाधिकार संगठन जनहस्तक्षेप बनाया। हम आंदोलनों को
मदद करते है। हमारी मुजफ्फरनगर और दादरी की रिपोर्ट दुनिया भर के तमाम प्रकाशनों
ने कैरी किया। साथी मनोज कश्मीर पर हमारे कार्यक्रम में आए थे। 2006 में कलिंगनगर पर भी हमारी रिपोर्ट बहुतों ने छापा और मैं
ईपीडब्लू समेत हिंदीअंग्रेजी में कई लेख लिखे और टाटा के कुछ अधिकारी मुझे खरीदने
आ गए, लेकिन क्रांतिकारी न बिकता है, न झुकता है, न टूटता है, लड़ता है और शहीद होता है। 3 यमयल पार्टियों के महासचिवों से मेरा नियमित संपर्क है। न्यू
डेमोक्रेसी का सिंपेथाइजर हूं, उनके जनसंगठनों
के कार्यक्रमों और स्टडी कलासेज के लिए अपने किराये-खर्चे से जाता हूं। पार्टी
ज्वाइन करने की मेरी 3 शर्तें कोई मानता नहीं। स्टालिन, पार्टी लाइन और जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के व्यवहार पर खुली
बहस। उनके मुखपत्रों के लिए लिखता भी हूं। इलाहाबाद में आइसा वालों के भी स्टडी
क्लासेज करता था, जबसे उनके नेताओं को पता चला बंद हो
गया। मेरा मानना है कि ये बच्चे जहां भी मार्क्सवाद का प्रशिक्षण लें, ऐतिहासिक क्रांतिकारी परिस्थियों में सब साथ आएंगे। छात्र
आंदोलन पर लेख का समय, अफनी सफाई देने में लगा दिया। अब यहीं
इसे समाप्त करता हूं अभ एक साल की अपनी माटी (नतिनी) से मिलने जाना है। ग्रुप के
ऐडमिन चाहें तो मुझे निकाल सकते हैं। विश्वविद्यालयों, नौकरियों, पार्टियों और फेसबुक
के ग्रुपों से निष्कासनों का मेरा रिकॉर्ड लंबा है और हर निष्कासन का फक्र है। लाल
सलाम।
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