बचपन की यादों के
झरोखे से 7
अपराधबोध 1
कुछ अपराधबोध आजीवन साथ नहीं छोड़ते, चाहे
अपराध (गलती) बालसुलभ ही क्यों न हो। आज कुछ जल्दी उठ गया और पहले से विलंबित,
समयांतर (जनवरी) का लेख पूरा करने बैठा। आवारा मन, अलसुबह का सन्नाटा और झोपड़ी का
एकांत, यानि मन भटकने का खुला मैदान। 1964 की एक घटना के चलते मन 53 साल पुरानी
यादों में भटक गया। 9 साल में प्राइमरी पास कर लिया था और आगे पढ़ने मिडिल स्कूल,
लग्गूपुर जाते 2-3 महीने हुए थे। एक पुराने जमींदार की हवेली के बरामदा में कक्षा
8 की पढ़ाई होती थी और सामने आहाते में 2 मड़हों में 6 और 7 की। वैसे तो बरामदे के
किनारे दो कमरे स्टाफरूम और ऑफिस के लिए थे, लेकिन शिक्षक सब आहाते में छायादार
अशोक के पेड़ के नीचे ही कुर्सी डाल कर बैठते थे। कक्षा में टाट की 3 कतारें थीं।
मैं क्लास का सबसे छोटा था और बीच की कतार में सबसे आगे बैठता था। संयोगात,
विशेषाधिकार को लोग अधिकार समझ लेते हैं। वह जगह मुझे ‘मेरी जगह’ लगने लगी। एक दिन
एक लड़का मुझसे पहले पहुंच गया और ‘मेरी जगह’ बैठ गया। उनका नाम आज भी शायद इसीलिए
याद है, उमाशंकर मिश्र (गांव –सुल्तानपुर)। 1967 के बाद मुलाकात नहीं हुई। हमें
कभी बाजार (मिल्कीपुर) होते, लंबे रास्ते से घर जाना होता तो कुछ देर का साथ होता।
असली मुद्दे पर आते हैं। उमाशंकर मुझसे बड़े और लंबे-चौड़े थे। मैंने उनका बस्ता
‘अपनी जगह’ से उठाकर फेंक दिया और उन्होंने मुझे एक थप्पड़ जड़ दिया, जवाबी
प्रतिक्रिया में मैंने उनकी कलाई पर दांत गड़ा दिया। गुरुजनों तक मामला उनके ले
जाने के पहले मैं ही पहुंच गया। श्यामनारायण सिंह (बाबूसा’ब) के पास मासूमियत
ओढ़कर पहुंचा और बताया कि उमा ने मुझे थप्पड़ मारा और मैं जब उनके पास शिकायत करने
आने लगा तो उसने अपनी कलाई पर अपने ही दांत का निशान बना लिया। बद अच्छा बदनाम
बुरा। मेरी अच्छे बच्चे की छवि के चलते बिना खोजबीन के मेरी बात मान ली और उनकी
बात सुने बिना आते ही छड़ी जड़ दिया यह कते हुए कि वे जानते हैं कि वह क्या कहेगा।
उस दिन हमें बाजार होकर जाना था। उमा मुझसे बोल नहीं रहे थे। मैंने मॉफी मांगी।
उन्हें भी बाजार कुछ काम था। मैं चवन्नी लेकर आया था, रबर-पेंसिल खरीदने के लिए
लेकिन हम लोगों ने (बाकी कौन थे उनमें से ओमप्रकाश मौर्य का ही नाम याद है) प्याज
की पकौड़ी खाया। 4 आने में बहुत पकौड़ी आती थी। घर जाकर झूठ बोल दिया कि पैसा खो
गया, अच्छे बच्चे की छवि के चलते मेरी बात पर यकीन कर लिया गया और डांट नहीं पड़ी।
पता नहीं उमा ने मुझे माफ किया था कि
नहीं, लेकिन मुझे आज भी अपराधबोध सालता है। उस उम्र में अपमान और बेबसी की वेदना
मैं तब नहीं समझता था। मुझे जाकर कहना चाहिए था कि उसने मारा, मैं शरीर से उससे
नहीं निपट सकता था सो काट लिया, मामला बराबर। बाबू सा’ब को चाहिए था कि पता करते
और हम दोनों को डांटकर कहते कि मार-पीट से मामले नहीं हल होते संवाद से होते हैं।
लेकिन नैतिकता और विवेक के विकास के उस स्तर पर शायद 9 साल के बच्चे में गलती
मानने और माफी मांगने का नैतिक साहस नहीं होता।
23.12.2017
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