राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद
मिथ और हकीकत
ईश मिश्र
आज दुनिया में राष्ट्रवाद
और राष्ट्रीय हित के नाम पर दक्षिणपंथी अतिवाद की मुखरता उंमादी और
आक्रामक हो चली है। भारत में, खासकर मई
2014 में मोदी की सरकार बनने के बाद यह अतिवादी मुखरता, मंत्रियों तथा आरयसयस से
संबद्ध संगठनों की गतिविधियों में साफ-साफ देखी जा सकती है। यूरोप में नवजागरण और
प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) आंदोलनों तथा सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण के दौरान शासन
की नई व्यवस्था के रूप में, आधुनिक राष्ट्र-राज्य तथा उसकी वैधता की
विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद की उत्पत्ति हुई। भारत में राष्ट्रवाद की हालिया,
दिल दहलाने वाली बर्बर अभिव्यक्तियां और उनके महिमामंडन राष्ट्रवाद के वीभत्सतम
रूप है। एक आदमी एक दूसरे आदमी को अवर्णनीय बर्बरता से लव जेहादियों को आगाह करते
हुए मारकर जला डालता है। वह अपने इस कृत्य पर इतना गौरवान्वित है कि अपने किशोर
भतीजे से अपनी ‘बहादुरी’ का वीडियो बनवाया और सोसल मीडिया में चला दिया। कई जगहों
पर इस बर्बर हत्या का महिमामंडन करते हत्यारे के जयकारे और वंदेमातरम्, भारत माता
की जय के नारों के साथ उग्र जुलूस आयोजित हुए। उससे न तो उसकी कोई दुश्मनी थी न राष्ट्र
को किसी खतरे की संभावना। वह अपने गांव देश से दूर मां, पत्नी और तीन बेटियों
के भरण-पोषण के लिए रोजी की कलाश में राजस्थान आया एक प्रवासी, बंगाली मजदूर था। उसके
परिजनों को रात में इस वीडियो के दिवास्वप्न आने लगे हैं। उसका अपराध यह था कि वह मुसलमान था। इंडियन एक्सप्रेस में छपी
एक खबर के अनुसार भाजपा संचालित, एक ह्वाट्सऐप ग्रुप में हत्या और हत्यारे
का देशभक्त के रूप में महिमामंडन किया गया। 7 दिसंबर 2017 को लवजेहाद के विरुद्ध
भाषण देते हुए शंभू रेगर द्वारा राजस्थान के राजसमंद में बंगाली मजदूर, अफरजुल को
मार कर जलाते हुए, सोसल मीडिया पर वाइरल हुए उसी वीडियो की बात हो रही है जो किसी
भी संवेदनशील इंसान को विह्वल करने को काफी है। सांप्रदायिकता, नस्लवाद, मर्दवाद
की ही तरह राष्ट्रवाद भी न तो जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति है, न ही कोई साश्वत विचार
जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक संचारित होता आया है। राष्ट्रवाद विचार नहीं विचारधारा
है, जो हमारे रोजमर्रा के व्यवहार और विमर्श से निर्मित-पोषित होती है। विचारधारा
एक मिथ्या चेतना है क्योंकि यह किसी खास ऐतिहासिक अवधारणा और संरचना को सार्वभौमिक
सत्य के रूप में पेश करती है।
सुविदित है कि फरवरी, 2016 में जेयनयू में
‘देशद्रोह’ के प्रायोजित नारों के माध्यम से सरकार ने इसे देशद्रोह और व्यभिचार का
अड्डा बता कर कैम्पस पर धावा बोल दिया था। छात्रसंघ के अध्यक्ष को गिरफ्तार कर उस
पर देशद्रोह का मुकदमा ठोंक दिया। न्यायाधीश और पुलिस की उपस्थिति में
‘राष्ट्रवाद’ के कुछ पहरेदारों ने उस पर अदालत में जानलेवा हमला किया। जीन्यूज तथा
टाइम्स नाऊ जैसे
‘मृदंग मीडिया’ चैनल देशद्रोह का जाप करने लगे। ‘राष्ट्र-द्रोह के आरोप’ में वांछित दो उदीयमान
इतिहासकारों, अनिर्बन भट्टाचायर्य और उमर खालिद के नाम, पुलिस, मीडिया और सोसल
मीडिया पर ऐसा उछाला जैसे वे कोई खतरनाक आतंकवादी हों! गौरतलब है कि ‘राष्ट्रवादी’ मॉब-लिंचिंग के
अंदेशे में दोनों गिरफ्तारी देने से पहले कुछ दिनों भूमिगत हो गए थे। मीडिया में, नास्तिक, उमर खालिद के इस्लामी
कट्टरपंथियों के कश्मीर और पाकिस्तान से रिश्तों की कहानियां गढ़ी जाने लगीं।
वास्तविक और सोसलमीडिया की आभासी दुनिया के हर गली-कूचे में जेयनयू और देशद्रोह चर्चा
और उंमाद का विषय बन गये। जेयनयू पर ‘राष्ट्रवादी’ आक्रमण और प्रतिरोध के दौरान
तथा बाद हर रेल/हवाई यात्रा, हर सभा, हर अड्डेबाजी में जेयनयू, देशद्रोह और उमर
खालिद के सवालों से रूबरू होना पड़ता रहता है। उमर से मेरी नजदीकी पर सवाल पूछा
जाता है, अनिर्बन से नहीं, जबकि दिल्ली पुलिस ने दोनों को
देश द्रोह एक सी धाराओं में बंद किया था और दोनों एक सा ही स्टैंड लेते हैं। किसी
धर्म तथा तथ्य-तर्कसम्मत वैज्ञानिक सोच के प्रति नफरत और शिक्षा के धार्मिककरण पर
आधारित राष्ट्रवाद का फासीवादी विकार है।
जेयनयू आंदोलन पर बहुत
लिखा जा चुका है, यहां मकसद उस पर विमर्श नहीं है, जिक्र की जरूरत इसलिए पड़ी कि
वह राष्ट्रवाद और देशद्रोह पर नए विमर्श और फासावादी उत्पात का
संदर्भविंदु बन गया है। यह लेख आरयसयस
प्रायोजित फासीवादी राष्टोंमाद के संदर्भ में, आधुनिक राष्ट्र-राज्य की सत्ता की
वैधता की विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद के उदय और विकास की संक्षिप्त समीक्षा
का एक प्रयास है।
संदर्भ
उपरोक्त वीडियो के
संदर्भ में सोचें तो इतनी आत्मघाती नफरत और राष्ट्रवादी बर्बरता एक ऐसे आम
इंसान में कहां से आ रही है? धर्मोंमादी विषवमन और धर्म के नाम पर उंमादी राजनैतिक
लामबंदी का उद्योग 100 सालों बेरोक-टोक चल रहा है। 1923 में ही जाने-माने
स्वतंत्रता सेनानी, मूर्धन्य पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस भयानक खतरे से
आगाह करते हुए इसके विरुद्ध व्यापक उद्यम की जरूरत पर जोर दिया था। गौरतलब है कि
वे 1933 में कानपुर सांप्रदायिक दंगों के विरुद्ध इसी उद्यम को आंजाम देने में
फिरकापरस्त आतताइयों के हाथों शहीद हो गए थे। वही ताकतें जो
उपनिवेश-विरोधी आंदोलन में तपकर विकसित हो रहे भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में बांटो-राज
करो की औपनिवेशिक नीति के मुहरों के रूप में हिंदू-मुस्लिम राषट्रवाद के शगूफों के
रोड़े अटका रहे थे, वे आज देश की सामासिक संस्कृति के ताने-बाने तहस-नहस करते हुए देशद्रोह
की सनद बांट रहे हैं। क्या है इनका राष्ट्रवाद?
सुविदित है कि भारत
के गृहमंत्री ने ‘देशद्रोही’ नारों के हवाले से जेयनयू को देशद्रोह का अड्डा
बताकर, कैंपस को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया था। कुछ ‘राष्ट्रवादी’ विद्वानों
ने कैंपस में सिगरेट के ठूठे; शराब की बोतलें; और इस्तेमाल कंडोमों की गिनती और
गहन शोध के बाद एक डोजियर निकाल कर साबित करने की कोशिस
की कि जेयनयू देशद्रोह का ही नहीं सेक्स और व्यभिचार
का भी अड्डा है। क्या राष्ट्रवाद और यौनिक नैतिकता एक
दूसरे से जुड़ी हुई अवधारणाएं हैं? मैंने एक लेख (जेयनयू का विचार और संघी
राष्ट्रोंमाद, समकालीन तीसरी दुनिया, अप्रैल, 2015) में लिखा था कि फरवरी 2015
से जेयनयू अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में इस कदर छाया रहा कि वह जातिवाचक
संज्ञा, संस्थान से भाववाचक संज्ञा, विचार गया है। तमाम
विश्वविद्यालयों के कुलपति घोषणा करने लगे कि उसे जेयनयू नहीं बनने देंगे, यानि
राष्ट्र-दोह का अड्डा नहीं बनने देंगे। कैंपसों में जनतांत्रिक विचार-विमर्श राष्ट्र-द्रोह
है क्या?
एक नया राष्ट्रवाद
शुरू हुआ है – गोरक्षक राष्ट्रवाद। संघ और सरकार के प्रश्रय से गोरक्षक दल कानून
अपने हाथ में लेकर किसी भी मुसलमान को गोहत्या या गोतस्करी के संदेह में प्रताड़ित
करते हैं और पुलिस पीड़ितों को बंद कर पूछताछ करती है। राष्ट्रवादी सरकार
के मंत्री और संघ चिंतक गोमूत्र और गोगोबर की अतुलनीय महिमा पर व्याख्यान देते
हैं। 2 साल पहले का सुविदित दादरी कांड की सोचें। एक मंदिर से घोषणा होती है कि सवर्ण
हिंदू बहुल बस्ती में रहने वाले अख़्लाक़ नामक एक कारीगर के घर में गोमांस रखा
है, पल भर में सैकड़ों की प्रायोजित भीड़ उसके घर में घुस कर उसकी हत्या कर देती
है और पड़ोसी तटस्थ दर्शक बने रहते हैं। हत्यारे, ज्यादातर गांव के ही थे, हो सकता
है मृतक का गांव के किसी से कोई झगड़ा हो लेकिन सैकड़ों की भीड़ में हर किसी का
नहीं हो सकता। क्यों हत्या का उत्सव मनाते हैं, हिंदुत्व मार्का गोरक्षक
राष्ट्रभक्त? गोरक्षक राष्ट्रवादियों के अनगिनत कारनामे जगजाहिर हैं? बस याद दिला
दें कि अखलाक़ की हत्या के एक आरोपी की जेल में मौत हो जाने के बाद उसके शव को तिरंगे
में लपेट कर, ‘राष्ट्रवादी सम्मान’ के साथ अंतिम संस्कार किया गया था। गोरक्षा के
नाम पर किसी मुसलमान की हत्या राष्ट्रवाद और हत्यारा राष्ट्रवादी है क्या?
यहां प्रायोजित फर्जी मुठभेड़ों और प्रायोजित
सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों की फेहरिस्त देने की गुंजाइश और जरूरत नहीं है,
उनपर बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है। अयूब राणा की गुजरात फाइल्स उन उनपर एक जीवंत दस्तावेज है। यहां मकसद महज यह
इंगित करना है कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार के पास कोई सकारात्मक
आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रम है नहीं, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही उसका एकमात्र
राजनैतिक हथियार है। आतंकवादी बताकर सोहराबुद्दीन या इशरत जहां से फर्जी मुठभेड़
में उनके हत्यारे पुलिसियों की या उनके राजनैतिक आकाओं की कोई निजी दुश्मनी नहीं
रही होगी। इन सांप्रदायिक कार्रवाइयों का एकमात्र मकसद लोगों के दिलों में हर
मुसलमान के बारे में आतंकवादी यानि देशद्रोही होने का शक पैदा करना है और
बहुसंख्यकों में असुरक्षा की भावना। दोनों मकसदों में इन्हें अंशतः कामयाबी मिली
है। (ईश मिश्र, ‘मुसलमानों को जेयनयू और कश्मीर पर बयान नहीं देना चाहिए’
हस्तक्षेप, 2 जुलाई 2017; ‘भीड़ का भय:1984 के आइने में 2017’ हस्तक्षेप
12 अक्टूबर, 2017)। जब भी बहुसंख्यक
समुदाय की अल्पसंख्यंक समुदाय से असुरक्षा का हौव्वा खड़ा किया जाता है तो
राष्ट्रवाद फासीवादी स्वरूप अख्तियार कर लेता है। हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के
बारे में ऐसा ही किया था। वैसे इतिहास खुद को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है।
भयावह है यह प्रतिध्वनि।
आज-कल वास्तविक और
इंटरनेट की आभासी दुनिया के हर नुक्कड़ पर देशभक्ति की सनद बांटते लोग मिल जाते
हैं। पूछो राष्ट्रवाद या देशद्रोह होता क्या है? वह जेयनयू में देश के टुकड़े करने
के नारों की दुहाई देता है, कुछ बताता नहीं। अगर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री
स्मृति इरानी के संसद में वक्तव्य से आशय निकालें तो ‘भारत माता की जय बोलना’
राष्ट्रवाद है और महिषासुर दिवस मनाना देशद्रोह। सनद रहे कि उत्तर प्रदेश के
सोनभद्र से से लेकर झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बंगाल की कई जनजातियां तथा
दक्षिण भारत के कई समुदाय महिषासुर को अपना नायक मानती हैं। (महिषासुर: एक
जननायक सं. प्रमोद रंजन) आरयसयस के विभिन्न शाखाओं, खासकर इनकी छात्र-शाखा,
एबीवीपी के शूरवीरों के कृत्यों को राष्ट्रवाद मानें तो मां-बहन की गालियों और
ईंट-पत्थर की बौछार के साथ भारत माता की जय बोलते हुए, राजनैतिक विरोधियों के
कार्यक्रमों में उत्पात मचाना राष्ट्रवाद है और जनतांत्रिक ठंग से सभा करना, जुलूस
निकालना, आजादी के नारे लगाना, नाटकों और फिल्मों के प्रदर्शन से अपनी बात कहना
राष्ट्र-द्रोह। अवधारणाओं को अपरिभाषित रखना धूर्तता का एक मूलमंत्र है उसी तरह
जैसे विचारों या कामों की बजाय, जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण
ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद का। सत्तासीन संसदीय शाखा समेत आरयसयस की तमाम
शाखाओं के सर्वविदित राष्ट्रवादी कृत्यों के कतिपय उदाहरण इस लिए
दिए कि कोई राष्ट्रवाद को लाखों साल पुराना बताता है तो हजारों। आधुनिक
राष्ट्र-राज्य की सत्ता की वैधता की विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद एक आधुनिक
अवधारणा है । मध्ययुग की राजशाहियों की सत्ता की वैधता का
श्रोत ईश्वर था और धर्म विचारधारा। यूरोप में सत्ता के केंद्र के रूप में आधुनिक राष्ट्र-राज्य
(पूंजीवादी राज्य) के उदय के बाद उसकी विचारधारा के रूप राष्ट्रवाद अस्तित्व में
आया, जिसकी संक्षिप्त चर्चा आगे की जाएगी।
अराज्य से
राष्ट्र-राज्य तक
मनुष्यों के समूह के
सार्वजनिक, सामाजिक-आर्थिक विचार-व्यवहार की आचारसंहिता बनाने और लागू करने के केंद्र
के रूप में, शासन और सुरक्षा तंत्रों पर आधारित राज्य, न तो साश्वत या नैसर्गिक है,
न ही सार्वभौमिक। राज्य नैसर्गिक न होकर ऐतिहासिक है। दो पैरों पर चलने वाले
प्राणी के रूप में, मनुष्य और मनुष्य-समूहों के अस्तित्व के इतिहास का अधिकतम
हिस्सा वर्गविहीन, राज्यविहीन समाजों का है, जिसे प्रागैतिहासिक काल या
मार्क्सवादी शब्दावली में, आदिम सामुदायिक उत्पादन पर आधारित आदिम साम्यवादी युग कहा
जाता है। उत्पादन के साधनों में उन्नति, धातुओं के खनन और
नई धातुओं तथा इनके उपयोग का ज्ञान; नई कारीगरी तथा शिल्पों का इल्म और उनमें
तरक्की; बागवानी खेती तथा पशुपालन में निरंतर गुणात्मक और मात्रात्मक प्रगति आदि
ऐतिहासिक कारणों से भरण-पोषण की अर्थव्यवस्था, कालांतर में अतिरिक्त उत्पादन की
अर्थव्यवस्था में तब्दील हो गई। प्रकृति के संसाधनों पर ‘स्वाभाविक’ स्वामित्व तथा
अतिरिक्त उत्पादन पर अधिकार के गड़बड़झाले में समाज छोटे-बड़े में बंट गया। निजी
संपत्ति के आगाज से असमानता का आविर्भाव हुआ और समाज दो वर्गों में बंट गया –
श्रमजीवी और परजीवी। 18वीं सदी के
दार्शनिक रूसो ने असमानता पर विमर्श में लिखा था कि लोहे और अनाज के
अन्वेषण ने “मनुष्य को सभ्य बना दिया और मानवता का विनाश कर दिया”। लोग जरूरत से ज्यादा
पैदा करने लगे और उनमें अतिरिक्त उत्पाद पर अधिकार की होड़ मच गयी। वे अब इस्तेमाल
के लिए ही नहीं चीजें चाहते बल्कि रखने के लिए भी। अब उन्हें महज मौदूदा जरूरत की
चीजें नहीं चाहिए बल्कि अज्ञात भविष्य के लिए भी। रूसो
इसका दोष उस व्यक्ति के मत्थे मढ़ते हैं जिसने निजी संपत्ति का अन्वेषण किया,
जिसके परिणामस्वरूप समाज में असमानता पैदा हुई। “पहला
व्यक्ति जिसने जमीन के एक टुकड़े को घेर कर कहा, “यह मेरा है” और भोले-भाले लोगों
ने उसकी बात मान ली, वही इस सभ्यता का असली संस्थापक है”। वे इस “ढोंगी” की बात मान लेने को आत्मघाती
बताते हैं क्योंकि “धरती के सारे उपहार हम सबके हैं और धरती खुद किसी की नहीं”। इस
संपत्ति के साथ नवोदित असमानता के प्रबंधन के लिए एक वैध व्यवस्था की जरूरत की
पूर्ति के लिए राज्य अस्तित्व में आया। कानून को वे लोगों के साथ दूसरा “फरेब”
मानते हैं। “समाज और कानून की उत्पत्ति ने गरीबों के पैरों में नई बेड़ियां जकड़
दी और अमीरों के हाथों में नई ताकत दे दिया; राष्ट्रीय स्वतंत्रता को नष्ट कर
दिया; संपत्ति और असमानता पर कानूनी मुहर लगा दी; शातिराना
लूट को अपरिवर्तनीय अधिकार में तब्दील कर दिया; कुछ महत्वाकांक्षी
व्यक्तियों के फायदे के लिए संपूर्ण मानव जाति को जीतोड़ परिश्रम, गुलामी और
मनहूसियत की बेड़ियों में जकड़ दिया”।
राज्य की उत्पत्ति
को निजी संपत्ति के आगाज के परिणाम के रूप में चिन्हित कर रूसो परिवार, संपत्ति
और राज्य में फ्रेडरिक एंगेल्स की स्थापनाओं का पूर्वाभास तो देते ही हैं,
इसकी पुष्टि वैदिक और बौद्ध साहित्य के विवरण और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी
होती है। राज्य में “सभी की शक्ति” या “सार्वजनिक शक्ति”
निजी संपत्ति की सेवा में समर्पित होती है। यह जिसके पास जो है, उसकी कानूनी हिफाजत करता है, अमीरों की अमीरी की और गरीबों की
गरीबी की। भारत में वैदिक साहित्य और दर्शन में राज्य का
कोई सिद्धांत नहीं मिलता क्योंकि राज्य तब तक एक संस्था रूप में स्थापित नहीं हुआ
था। आदिम युग की शुरुआत में जो पुराणों में वर्णित कृतयुग से मेल खाता है, मनुष्य
फल-फूल; कंदमूल पर गुजारा करता था। बुद्ध के समय तक मगध, काशी, कोशल राजशाहियों और
16 महाजनपदों के उदय के साथ राज्य सत्ता की संस्था के रूप में जड़ें जमा चुका था।
राज्य की उत्पत्ति और भूमिका का पहला स्पष्ट सिद्धांत बौद्ध संकलनों – दीघनिकाय और अनगुत्तरनिकाय -
में मिलता है, जो संभवतः राज्य की उत्पत्ति का पहला सामाजिक संविदा सिद्धांत
है। इसमें राज्य की उत्पत्ति का कारण संपत्ति की सुरक्षा बताया गया। पहले लोग
प्रकृति पर निर्भर थे, किसी के पास संपत्ति नहीं थी जिसकी सुरक्षा के लिए राज्य की
जरूरत होती। जब से लोगों ने खेती करना शुरू किया और चावल का संग्रह, कुछ दुष्ट लोग
दूसरों का चावल चुराने लगे, उन्हें दंडित करने के लिए राज्य की जरूरत हुई। कौटिल्य
के अर्थशास्त्र में कुरु प्रदेश का वर्णन हैं जहां मेरा-तेरा की बात अज्ञात थी तथा
किसी स्त्री पर किसी पुरुष का अधिकार नहीं था। मतलब परिवार और संपत्ति की संस्थाएं
नहीं थीं। कौटिल्य इसे वैराज्य यानि राज्यविहीन समाज कहते हैं। राज्यविहीन समाज से
राज्य-नियंत्रित समाज में संक्रमण पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है, महज यह
बताना है कि राज्य की उत्पत्ति संपत्ति के आगाज से आई सामाजिक असमानता के प्रबंधन
के लिए हुई। मार्क्स
ने इसीलिए आधुनिक राज्य को पूंजीपति वर्ग के सामान्य हितों के प्रबंधन की
कार्यकारी कमेटी कहा है। यही स्थिति यूरोप की थी। प्लैटो के पहले पाश्चात्य
साहित्य और दर्शन में राज्य का सिद्धांत नहीं मिलता क्योंकि राज्य एक संस्था के
रूप में जड़ें जमा रहा था। आठवीं-पांचवी ईशापूर्व यूनान के कुटुंब-कबीलों से पोलिस
(नगर राज्य) की अनूठी व्यवस्था ने जन्म लिया और प्लैटो की रिपब्लिक तथा
अरस्तू की पॉलिटिक्स पाश्चात्य दर्शन में राज्य के सिद्धांत के बुनियादी
ग्रंथ हैं।
आदिमकाल में अनुभवों
और प्रयोगों से अन्वेषणों तथा उन्हें हथियार और औजार में ढालने के शिल्प के ज्ञान
पर आधारित मानव इतिहास के विभिन्न चरणों और फलस्वरूप विभिन्न श्रम विभाजनों की
चर्चा की न तो जरूरत है, न गुंजाइश, यह जिक्र इसलिए किया कि मानव इतिहास का बहुत
लंबा, प्रागैतिहासिक हिस्सा राज्यविहीन रहा है। राज्य की उत्पत्ति निजी संपत्ति और
समाज के असमान वर्ग विभाजन के फलस्वरूप, असमानता को बरकरार रखने के औजार के रूप
में हुई। ऐसा नहीं था कि आदिम काल में अराजकता थी, उनके आचार-व्यवहार
कुटुंब-कबीलों की प्रथाओं, प्रचलनों और व्यवहार से अर्जित रीति-रिवाजों से
नियंत्रित होते थे। ऐसा भी नहीं है कि वे अहिंसक थे। धनुष-तीर का अन्वेषण एक
क्रांतिकारी अन्वेषण था जिसने बड़े जानवरों का शिकार सुलभकर, उनकी आजीविका के
साधनों में अपार वृद्धि कर दी। हर नए अन्वेषण का तकनीकी उपयोग पहले हथियार बनाने
में होता है, फिर औजार। जिस लोहे के अन्वेषण ने मानव-जीवन में क्रांतिकारी
परिवर्तन ला दिया, उसका इस्तेमाल पहले तीर, तलवार और भाला बनाने में हुआ, खुरपी,
हल और हथौड़ा बनाने में बाद में। कबीले हथियारों का इस्तेमाल सिर्फ शिकार में ही
नहीं करते थे बल्कि कबालाई युद्धों में भी। लेकिन वे आजीविका सामग्रियों की लूट के
लिए युद्ध करते थे। वे युद्ध बंदी नहीं बनाते थे क्योंकि उससे उन्हें कोई फायदा
नहीं था। श्रमविभाजन और नए अन्वेषणों के चलते अतिरिक्त उत्पादन की अर्थव्यवस्था
में युद्धबंदी काम की चीज बन गया और सभ्यता की शुरुआत क्रूरतम शोषण की दासप्रणाली
से हुई और जिसे अरस्तू जैसे तमाम पैरोकार मिल गए। गौरतलब है कि यूनान और रोम का
गौरव दासश्रम की बुनियाद पर खड़ा था। धरती के इस हिस्से में सामाज के वर्ग विभाजन
वर्ण-विभाजन के रूप में हुई जिसे ब्राह्मणों ने दैविक जामा पहना दिया। प्लैटो का
आदर्श राज्य वर्णाश्रम व्यवस्था का ही रूपांतर है। यहां ब्राह्मण परामर्शदाता,
बौद्धिक नेता है सत्ता शस्त्रधारी (क्षत्रिय) के हाथ में होती है जो आर्थिक तथा
सेवक वर्गों (क्रमशः वैश्य और शूद्र) पर शासन करता है। प्लेटो की रिपब्लिक के
आदर्श राज्य में ज्ञानी वर्ग (दार्शनिक) ससस्त्र वर्ग (सैनिक की मदद) से आर्थिक
वर्ग पर शासन करता है। प्लैटो का आदर्श राज्य कभी, कहीं लागू नहीं हुआ और ज्ञान पर
ब्राह्मणों के एकाधिकार को नष्ट कर, ज्ञान की वैकल्पिक धारा के उद्घाटन साथ
वर्णाश्रम व्यवस्था को छठी शताब्दी ईशापूर्व में बुद्ध से पहली गंभीर चुनौती मिली।
पहली शताब्दी ईशापूर्व स्पार्टकस के नेतृत्व में सशस्त्र दास विद्रोह ने यूरोप में
दास व्यवस्था की चूलें हिला दीं।
रोम के पतन के बाद
यूरोप में मध्ययुग की शुरुआत होती है जिसे अंधायुग या सामंती युग कहा जाता है।
राजा और सामंत ईश्वर के प्रतिनिधियों के रूप बन गए और ईश्वर उनकी सत्ता की वैधता
का केंद्र तथा धर्म उसकी विचारधारा। सामंतवाद
के अवशेषों पर निर्मित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के राजनैतिक अधिरचना के रूप में
उभरे नये पूंजीवादी, आधुनिक राष्ट्र-राज्य में सत्ता की वैधता के श्रोत तथा राज्य
के वर्चस्व के औचित्य के विचारधारा की जरूरत थी। मध्ययुगीन राजशाहियों में सत्ता
की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म उसकी विचारधारा। यूरोपीय नवजागरण तथा प्रबोधन
आंदोलनों ने इन्हें अमान्य कर दिया। सत्ता की वैधता के श्रोत खोजने का काम
उदारवादी चिंतकों ने राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक अनुबंध यानि सहमति से
शासन के सिद्धांत के जरिए किया। सत्ता की वैधता के श्रोत के रूप में भगवान की अमूर्त
अवधारणा की जगह “लोग” की अमूर्त अवधारणा ने ले ली, विचारधारा के
रूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद प्रतिष्ठित हो गया। अन्य पूर्ववर्ती वर्ग समाजों
की तरह पूंजीवाद भी एक दोगली व्यवस्था है। “लोग” के नाम पर लोगों पर दमन करने
वाली, यह व्यवस्था, जो कहती है करती नहीं, जो करती है कहती नहीं। मोदी कालाधन वापस
लाने का वायदा करके चुनाव जीतते हैं, सत्ता में आकर कॉरपोरेट घरानों को लाखों
करोड़ की छूट देते हैं। “लोग” का मतलब था धनिक पुरुष वर्ग। मजदूर पुरुषों को
इंगलैंड में 1867 में महिलाओं को 1929 में मताधिकार प्राप्त हुआ। यह जनतंत्र आम
आदमी को संवैधानिक, समान मौलिक अधिकार देता है तथा उनके दमन के संवैधानिक प्रावधान करता है।
राष्ट्रवाद को जानबूझ कर अपरिभाषित रखा गया है
जिससे खास परिस्थिति में अपनी सुविधा अनुसार शासकवर्ग राजनैतिक विरोधियों के
विरुद्ध मनमानी ढंग से परिभाषित कर सके। भारत के संविधान या किसी भी संविधान में
राष्ट्रवाद का वर्णन नहीं है। जाने-माने इतिहासकार एरिक हॉबरमास के अनुसार, आधुनिक
राष्ट्र-राज्य में देशभक्ति की एक मात्र कसौटी संविधान में निष्ठा है न कि
अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी पर क्रूर
हमला। यदि संविधीन के प्रति निष्ठा राष्ट्रवाद है तो प्रधानमंत्री द्वारा संविधान
के प्राक्कथन का उल्लंघन करते हुए, खुद को हिंदू राष्ट्रवादी बताना देशद्रोह नहीं
है? संविधान भारतीय राष्ट्र की बात करता है, हिंदू-मुस्लिम-सिख राष्ट्र या
राष्ट्रवाद की नहीं।
सैमुअल जॉनसन के शब्दों में
“हरामखोरों का अंतिम पनाहगाह”, एक आधुनिक विचारधारा तथा
अस्मिता का नया मानदंड है, जो प्रबोधनकाल में राजवंशों के शासन तथा प्रजा की वफादारी की दैविक वैधता के विनाश के बाद अस्तित्व में आया। संवैधानिक
जनतांत्रिक राज्यों में
संप्रभुता संविधान में निवास करती है न कि सरकार में, या बहुसंख्यक समाज
की प्रथाओं, मान्यताओं में और न ही किसी खास धर्मिक-मिथकीय संस्कृति में। जहां यूरोप में राष्ट्रवाद पूंजीवादी राज्य की विचारधारा के रूप
में विकसित हुआ वहीं भारत जैसे औपनिवेशिक देशों में उपनिवेशविरोधी विचारधारा के
रूप में विकसित हुई। धर्म आधारित राष्ट्रवाद आधुनिक राष्ट्रराज्य का विकृत रूप है
क्योंकि इसका उदय ही राजनीति की धर्मशास्त्रीय व्याख्या और राज्य में धार्मिक
हस्तक्षेप के विरुद्ध हुआ। राष्ट्रवाद के इतिहास की चर्चा अप्रासंगिक तो नहीं मगर
विषयांतर होगा। समयांतर में समाजवाद के संक्षिप्त इतिहास (1789-1917) पर
लेखमाला में राष्ट्रवाद की प्रतिक्रांतिकारी और मजदूर विरोधी भूमिका की चर्चा की
गई है। 1797 में नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी युद्धोंमादी राष्ट्रवाद और
फ्रांसीसी गौरव के नाम गणतंत्र को राजशाही में तब्दील कर सम्राट बन गया, जैसे कि
साम्राज्यवादी विस्तार ही राष्ट्रवाद हो। वही हश्र 1848 की क्रांति की हुई।
राष्ट्रवाद के नाम पर क्रांति की उपलब्धियों में हिस्सेदारी तथा अपनी मांगों के
लिए आंदोलित सर्वहारा का नरसंहार कर 1851 में लुई बोनापार्ट संसद भंगकर गणतंत्र को
दुबारा राजशाही में तब्दील कर सम्राट नेपोलियन तृतीय बन गया। 1871 में पेरिस
कम्यून को कुचलने को लिए यूरोप के सारे राष्ट्रीय दुश्मन एक हो गए। विश्वक्रांति
के नेतृत्व की संभावना वाला दूसरा इंटरनेसनल प्रथम विश्वयुद्ध में
युद्धोंमादी राष्ट्रवाद के प्रवाह में बह गया। 1917 तक रूस में सत्ता के दो केंद्र
थे, तदर्थ सरकार और सोवियत।
सुविदित है कि स्पेन, इटली, जर्मनी में फासीवाद अपरिभाषित
राष्ट्रवादी उंमाद के ही कंधे पर सवार हो कर आया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
शीतयुद्ध छिड़ गया और मेकार्थीवाद के तहत हजारों शिक्षाविदों; शिक्षकों;
वैज्ञानिकों; फिल्म निर्माताओं; कलाकारों; लेखकों तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को
कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट समर्थक यानि “राष्ट्रीय” शत्रु सोवियत संघ का समर्थक होने
के संदेह में मार दिया गया, जेल में डाल दिया गया, नौकरियों से निकाल दिया गया।
मनहट्टन परियोजना से जुड़े एक वैज्ञानिक दंपति को ऐसा परमाणु फॉर्मूला सोवियत संघ
को लीक करने के आरोप में ‘सिंग-सिंग’ कुर्सी पर बैठा कर मार दिया गया जो सार्जनिक
हो चुका था। आधुनिक राज्य के संविधानों में जहां एक तरफ सोच, अभिव्यक्ति, संगठन, धार्मिक-राजनैतिक निष्ठा की आजादी के
अधिकार के प्रावधान हैं वहीं दूसरी तरफ असामान्य काले कानून बनाकर उन्हें निरस्त
करने के भी प्रावधान हैं। आइंस्टाइन आदि के जी-तोड़ अभियान वैज्ञानिक जूलियस और
एथेल रोजनबर्ग दंपति को नहीं बचा सका। खुद आइंस्टाइन पर निगरानी के लिए यफबीआई में
क विशिष्ट प्रकोष्ठ था। मेकार्थीवाद राष्ट्रीय हित और राष्ट्रवाद के नाम से
अमेरिका में वामपंथी विरोध को धराशायी कर दिया जो अभी तक नहीं उठ पाया। 1975 में डीआईआर
और मीसा के तहत आपातकाल में विरोधियों को राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे
के नाम पर जेल में डाल दिया था। नागरिकों
के मौलिक अधिकारों के निलंबन और सेंसरसिप के फासीवादी खौफ के हम गवाह रह चुके हैं।
दर-असल उपनिवेश-विरोधी आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद की दो विपरीत
धाराएं उभरीं। एक उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय दोलन से निकली अनेकता में एकता के
सामासिक राष्ट्रवाद की और प्रकारांतर से उपनिवेशवाद समर्थक, राष्ट्रीय आंदोलन की
एकता में अनेकता पैदा करने वाली धार्मिक राष्ट्रवाद की। एक अध्ययन के अनुसार,
हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य वाली आरयसयस और निजा-ए-इलाही का सपना दिखाने वाली
जमात-ए-इस्लामी में न सिर्फ औपनिवेशिक शासन के समर्थन और मजहबी नफरत फैलाने में
समानता है बल्कि सभी प्रमुख सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मुद्दों पर इनके विचारों
में समानता है। दोनों के विचार जनतंत्रविरोधी, अधिनायकवादी शासन के पक्षधर हैं और
किसी भी तरह की समानता के प्रखर विरोधी। दोनों ही औपनिवेशिक पूंजीवाद की कोख से
पैदा जुड़वा संताने हैं, जिनका धार्मिकता से कुछ लेना-देना नहीं है, सांप्रदायिकता
धार्मिक आधार पर उंमादी राजनैतिक लामबंदी की विचारधारा है। जैसा कि इतिहास बन चुका
है, अनैतिहासिक धार्मिक राष्ट्रवाद के हिंदुत्व और इस्लामी पैरोकारों ने इतना नफरत
फैलाया और विद्वेष पैदा किया कि अभूतपूर्व हिंसा और विस्थापन के साथ देश का
बंटवारा न रुक सका और वह घाव कश्मीर समस्या के रूप में नासूर बन अभी तक रिस रहा है,
जिसके समाधान से दोनों ही देशों के शासकों के पास राष्ट्रवाद का एक मुद्दा कम हो
जाएगा। सीमा के आर-पार के हुक्मरानों को अपनी घरेलू समस्याओं से विषयांतर के लिए
स्थाई राष्ट्रीय दुश्मन मिल गये। हबीब जालिब ने सही कहा है, “न मेरा घर है खतरे
में, न तेरा घर है खतरे में/वतन को कुछ नहीं खतरा निजाम-ए-ज़र है खतरे में”। ऐतिहासिक
अनुभव से दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि हिंदुस्तान या पाकिस्तान में
मजदूर-किसानों के क्रांतिकारी विद्रोह को कुचलने का मामला होगा तो दोनों देशों के
हुक्मरान सनातनी “राष्ट्रीय शत्रुता” भूलकर एक हो जाएंगे, उसी तरह जैसे 1871 में
पेरिस की सर्वहारा क्रांति को कुलने में, सनातनी “राष्ट्रीय शत्रु” जर्मनी और
फ्रांस एक हो गए थे।
नवउदारवाद और राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद का विकास नवोदित, उदारवादी पूजीवाद की राजनैतिक
विचारधारा के रूप में हुआ इसलिए पूंजीवाद के चरित्र में परिवर्तन के साथ
राष्ट्रवाद के चरित्र में भी परिवर्तन होता रहा। पूंजीवाद और राष्ट्रवाद की यात्रा
की चर्चा की गुंजाइश नहीं है, पूंजवाद के विकास के मौजूदा, नवउदारवादी चरण में राष्ट्रवाद
के चरित्र पर संक्षिप्त टिप्पणी अप्रासंगिक नहीं होगी। नवोदित
पूंजीवादी शासक वर्ग की वैधता की विचारधारा स्थापित करने के लिए, पूर्ववर्ती शासक
वर्ग की विचारधारा को खारिज करना जरूरी था। इसलिए उदारवादी राष्ट्रवाद धार्मिकता
से मुक्त था। इतिहास, समाज और राजनीति की प्रबोधनकाल में खारिज हो चुकी
धर्मशास्त्रीय व्याख्या की खाली जगह तार्किक व्याख्या से भरने का काम उदारवादी
राजनैतिक दर्शनिकों और अर्थशास्त्रियों ने किया। हॉब्स और लॉक आदि राजनैतिक
विचारकों ने राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत के जरिए सहमति से
शासन का विचार दिया तथा ऐडम स्मिथ सरीखे अर्थशास्त्रियों ने राजनैतिक हस्तक्षेप से
मुक्त बाजार का सिद्धांत दिया। पूंजीपतियों की संपत्ति को ‘राष्ट्र की संपत्ति’ और
इतिहास को मुनाफा कमाने की गतिविधियों का उपपरिणाम मानने वाले ऐडम स्मिथ का मानना
था कि राष्ट्र का सर्वाधिक उत्थान व्यापारिक समाज को ‘बाजार के अदृश्य हाथों’ की
देखरेख में मुनाफा कमाने की खुली छूट से होगा। इस लिए वे लेजेफेयर स्टेट
(अहस्तक्षेपीय राज्य) के पक्षधर थे। 19वीं शताब्दी में दो अलग-अलग भूभागों में राष्ट्रवाद की विपरीतार्थी
अवधारणाएं विकसित हो रही थीं – उपनिवेशवादी, विकसित पूंजीवादी देशों में
राष्ट्रीयता का चरित्र साम्राज्यवादी था और उपनिवेशों में साम्राज्य-विरोधी। दूसरी
तरफ राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना तोड़ते हुए एक तीसरी धारा भी विकसित हो रही थी,
मजदूरों का अंतर्राष्ट्रीयवाद, जिसकी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। गौरतलब है कि
लंबे संघर्ष के बाद इंग्लैंड में जब मजदूरों और अन्य निचले तपकों के पुरुषों को
मताधिकार मिला तो शासक वर्ग घबरा गया क्योंकि सारे वर्ग-समाजों में गरीब ही
बहुसंख्यक होता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री डिजरायली ने तभी यह नारा दिया था कि
ब्रितानी साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता। आर्थिक सवालों को, पेट के सवाल
को भूल कर ब्रिटेन के मजदूर ऐसे राष्ट्र की नागरिकता के ‘राष्ट्रवादी’ नशे में मगन हो गए जिसका
कभी सूर्यास्त नहीं होता, जबकि ऐडम स्मिथ के नीचे तक रिसाव के सिद्धांत के विपरीत
उन तक औपनिवेशिक लूट का एक कतरा भी नहीं पहुंचता था। वहीं दूसरी तरफ उपनिवेशों में
राष्ट्रवाद का चरित्र साम्राज्यविरोधी था।
नवउदारवादी पूंजी विशुद्ध भूमंडलीय है क्योंकि अब यह न तो उद्गम के
मामले में राष्ट्र-केंद्रित है, न ही निवेश के। साम्राज्यवाद के उदारवादी दौर में
मामला माल के निर्यात का था और नवउदारवादी दौर में पूंजी निर्यात का है। इस दौर
में एक तरफ आर्थिक तथा राजनैतिक संप्रभुता, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों
द्वारा निर्दिष्ट साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण की नीतियों के तहत भूमंडलीय पूंजी के
अधीन होती जा रही है दूसरी तरफ विकसित तथा विकासशील देशों में बहुसंख्यकवादी
संकीर्ण राष्ट्रवाद भी जोर मार रहा है, कहीं नस्ल के नाम पर, कहीं धर्म के तो कहीं
राष्ट्रीयता के। उदारवादी पूंजीवाद की जरूरत अहस्तक्षेपीय राज्य था, लेकिन
नवउदारवादी पूंजीवाद को ‘विकास’ में सहभागी राज्य की जरूरत है। टाटा खुद उड़ीसा की
सुखिंदा घाटी में कलिंगनगर के आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन अपने-आप नहीं
कब्जिया सकते थे न ही विस्थापन विरोधी मजबूत संघर्ष का अपने बलबूते सामना कर पाते।
उसके लिए सरकार की भागीदारी चाहिए। गौरतलब है कि 2 जनवरी 2006 को आदिवासियों के
विशाल, शांतिपूर्ण विस्थापन विरोधी प्रदर्शन की सभा को चारों ओर से घेर कर पुलिस
गोलीबारी की जिसमें 16 आदिवासी किसानों की मौत हो गयी थी तथा गोलीबारी का आदेश
देने वाले कलेक्टर तथा यसपी को प्रोन्नति।
‘नया राजनैतिक अर्थशास्त्र’ (न्यू पॉलिटिकल इकॉनॉमी) नाम से
विश्वबैंक पोषित अर्थशास्त्रियों का एक समूह है, जिसका काम है विश्वबैंक की
भूमंडलीकरण की नीतियों की व्याख्या करना; उनका औचित्य, अनिवार्यता, अपरिहार्यता
साबित करना; उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करवाने की रणनीति तय करना। भारत और अन्य
तीसरी दुनिया के देशों में इसका मतलब है, ढांचागत संयोजन कार्यक्रम (स्ट्रक्चरल ऐडजेस्टमेंट प्रोग्राम) लागू करवाना, जिसकी शुरुआत 1991 में नरसिंह राव की सरकार के समय ही
हो चुकी। विश्वबैंक के इन अर्थशास्त्रियों के विचारों के विस्तार और विविधता में
जाए बिना राज्य पर इनके कुछ विचारों का जिक्र जरूरी लगता है, जिससे तमाम देशों में
दक्षिणपंथी उग्र राष्ट्रवादी उफान समझने में मदद मिलेगी। पहली बात तो शासन में
राजनीतिज्ञों की तुलना में नीतिगत फैसलों में टेक्नोलॉजिस्ट-नौकरीशाही का वर्चस्व
बेहतर है क्योंकि उन्हें ‘प्रशिक्षित’ करना आसान है। दूसरी, ट्रेडयूनियन या अन्य
जनतांत्रिक संगठन विकास में बाधक हैं। ये मानते हैं कि ‘सुधार’ लागू करने की
प्रक्रिया पीड़ादायक होगी। यहां तक कि भविष्य के लाभार्थी भी आश्वस्त नहीं होंगे।
परेशान लोग प्रतिरोध करेंगे जिसे कुचलने के लिए निर्मम बल प्रयोग की जरूरत होगी,
जिसके लिए जनतांत्रिक की बजाय अधिनायकवादी, निरंकुश सरकार उपयुक्त है। निरंकुश
सासकों को अरस्तू ने धार्मिकता की सलाह दी थी। कौटिल्य भी धार्मिक अंधविश्वासों के
अपद्धर्म के रूप में राजनैतिक इस्तेमाल की हिमायत की है। मैक्यावली धर्म को लोगों
की एकता और वफादारी का सबसे कारगर औजार मानता था और समझदार राजा को सलाह देता है
कि धार्मिक रीति-रिवाज कैसे भी हों, उन्हें छेड़ने की बजाय उनका अनुपालन सुनिश्चित
करना चाहिए। भगवान का भय राजा के भय में तब्दील हो जाती है। दुनिया में दक्षिणपंथी
उग्रवाद के उंमादी राष्ट्रवादी लामबंदी की धुरी धर्म, नस्ल या राष्ट्रीयता की
अस्मिता है। ये नए राजनैतिक अर्थशास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि जनप्रतिरोध का
निर्मम दमन करने वाला दल विश्वसनीयता खो देगा। उसे दर-किनार करो, अगले को लाओ जो
सारी गड़बड़ियां पिछली सरकार के मत्थे मढ़ उसके कुकृत्यों को सुधारने के नाम पर
सुधार जारी रथे। पक्ष भी इनका विपक्ष भी। विश्वबैंक की नीतियां लागू करना शुरू
किया कांग्रेस सरकार ने जो वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में त्वरित हुई और मनमोहन
सरकार में गति जारी रही। मोदी ने तो लोगों को गाय और बंदेमातरम् के बहस में फंसाकर
बेशर्मी से विश्वबैंक की वफादारी शुरू कर दी। शासक वर्ग हमेशा अपने आंतरिक
अंतर्विरोधों को उछाल कर वास्तविक, आर्थिक अंतरविरोध की धार कुंद करता है। आज भारत
में विश्वबैंक के दो प्रतिस्पर्धी पैरोकारों – कांग्रेस और भजपा – के आंतरिक तथा गौड़
अंतर्विरोध राष्ट्रीय राजनैतिक अंतर्विरोध बन गए हैं । व्यापक जन-असंतोष की
राजनैतिक लामबंदी का वैकल्पिक संगठन फिलहाल नहीं दिख रहा है। एक और बात, इनका
मानना है, जो सच्चाई से बहुत दूर नहीं लगता, कि तीसरी दुनियां के देशों के राजनेता
बेवकूफ होते हैं, न तो उन्हें कुछ आता-जाता है न ही किसी भी कीमत पर कुर्सी पाने
और चिपके रहने के अलावा इनका कोई सरोकार। “अच्छे लोगों की पीठ बुरी सरकार के लात
से बचाने के लिए, सरकार खरीद लो”। उदारवादी पूंजीवाद को धर्म की मदद नहीं चाहिए था
नवउदारवादी, भूमंडलीय, साम्राज्यवादी पूंजी को अपने विस्तार के लिए आज्ञाकारी
निरंकुश शासन चाहिए उसकी राजनैतिक लामबंदी की धुरी कहीं भी हो।
उपसंहार
राष्ट्रवाद राष्ट्रराज्य की वैधता की विचारधारा है लेकिन किसी भी
राज्य के संविधान में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। जैसा कि ऊपर इतिहासकार
हाव्सबॉम के हवाले से बताया गया है कि सिद्धांततः संवैधानिक जनतंत्र में
राष्ट्रवाद संविधान के प्रति यानि इसके प्रवधानों के प्रति निष्ठा है। लेकिन
पूंजीवाद पूर्ववर्ती वर्गसमाजों की ही तरह दोगली व्यवस्था है तथा कथनी-करनी का
अंतर्विरोध इसका साश्वत अंतर्विरोध है। यूएपीए के तहत कोबाड गांधी और जीयन
साईबाबा की गिरफ्तारी और न्यायिक उत्पीड़न इसका जीता जागता उदाहरण है। उससे भी
खतरनाक होता है धर्म या नस्ल आधारित राष्ट्रवाद जो सिद्धांततः राष्ट्रद्रोह है।
ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद से कोई अमेरिकी नस्लवादी किसी अश्वेत को गोली मार
देगा या धमकी देगा कि मेरे देश से जाओ, जैसे उसके दादा जी ने वह देश निर्मितकर
उसके लिए विरासत में छोड़ गए हों! यही बात उन ‘देश भक्तों’ पर भी लागू होती है जो
हर मोदी विरोधी को बात-बात में पाकिस्तान भेजते रहते हैं। मोदी के भारत में सत्तासीन होने के बाद से
राष्ट्रवाद के नाम पर संघ के विभिन्न ब्रिगेड जेयनयू, गोमांस, राष्ट्रीय झंडा,
बंदे-मातरम जैसे बहानों पर किसी भी मुसलमान को प्रताड़ित करते हैं, ज्यादातर
मामलों में दोषियों को सरकारी संरक्षण मिला होता है। जेयनयू के संदर्भ से बात शुरू
हुई थी तो वहीं पर खत्म करते हैं। राष्ट्रवाद नारे और गोरक्षा नहीं है, राष्ट्रवाद
संविधान में प्रदत्त आचार संहिता का पालन है। संविधान में विचार, अभिव्यक्ति,
सभा-सम्मेलन, निष्ठा और धर्म की आजादी के मौलिक अधिकार का प्रावधान है, जेयनयू के
छात्र संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर संविधान के प्रति निष्ठा और सम्मान
व्यक्त कर देशभक्ति का काम कर रहे थे।
उनके संवैधानिक अधिकारों और संवैधानिक संस्थानों पर हमला देशद्रोह है, और यही
देशद्रोही देशभक्ति की सनद बांट रहे हैं। मोदी-योगी समेत तमाम भाजपाई और संघी अपने
भाषणों और कृत्यों से लगातार संविधान को तार तार कर रहे हैं। हिंदू राष्ट्रवाद संविधान
के प्राक्कथन का उल्लंघन है और इसलिए देशद्रोह। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः
संज्ञान लेना होता तो कब का ले चुकी होती। आज जरूरत हिंदुत्व द्वारा फैलाए जा रहे
राष्ट्रवाद के मिथ को बेनकाब कर लोगों को इसकी हकीकत बताने की है।
24.12. 2017
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