Saturday, December 2, 2017

बेतरतीब 31 (तलाश-ए-माश 2)

तलाश-ए-माश 2

तलाश-ए-माश के क्रमांक घटनाक्रम के अनुसार सिलसिलेवार नहीं, बल्कि बेतरतीब हैं। जो जब याद आ गया। वैसे तो तलाश-ए-माश का सिससिला 1973 में घर से आर्थिक संबंध-विच्छेद के बाद  ही शुरू हो गया था। दुस्साहस के दुष्परिणाम तो झेलने ही पड़ते हैं, लेकिन कष्ट स्वचयनित हों तो उनका गुरत्व सापेक्ष हो जाता है। सही अर्थों में ‘स्ट्रगल फॉर सर्वाइवल’ का कभी एहसास ही नहीं हुआ। कलम की मजदूरी की कल्पना न थी। सोचता था लेखक किसी और ग्रह से आते होंगे। उतने पहले जाने से अभी जो बात याद आई वह रह जाएगी।

सितंबर, 1988 की बात है। जोधपुर विवि ने कुछ अस्थाई लेक्चरर्स के पदों का विज्ञापन दिया था कि फला फला मानदंड पूरा करने वाले लोग सीवी के साथ अर्जी भेजकर, अमुक तारीख को अमुक बजे से अमुक बजे तक ‘वाक-इन’ इंटरविव के लिए पहुंचें। बहुत दिनों से जोधपुर जाने का मन था। मैंने रजिस्जटर्ड पोस्ट से सीवी के साथ अर्जी भेजा, जिसकी प्राप्ति की रसीद न मिलने पर सोचा कि ऐसा होा होगा। घर से 2 दिन पहले निकल दिया, जयपुर एक दिन रुक कर बहन से मिलने वनस्थली चला गया था। जयपुर में ढाबे पर भोजन करते हुए एक ऐसी घटना हुई जिसमें मैं एक बार और पिटते-पिटते बचा। चारों तरफ लोग रामदेव रामदेव की बात कर रहे थे। हर बात में टांग अड़ाने के चलते, उसी मेज पर भोजन कर रहे एक व्यक्ति से मैंने पूछ लिया, “यह रामदेव कौन हैं”? वहां बैठे सब लोग मुझे इतनी कुपित नजरों से देखने लगे, लगे जैसे मैंने कोई बहुत अनहोनी बात कर दी हो, मैं सपक गया। उनमें से एक ने बहुत क्रुद्ध अंदाज में कहा, “भगवान हैं, भगवान। यहां बाबा रामदेव और उनकी महिमा तथा किंवंदंतियों के बारे में चर्चा की गुंजाइश नहीं है, बस इतना बतादूं कि बाबा रामदेव के जोधपुर मंदिर में दर्शनार्थियों को जनसैलाब को देखकर इलाबाद में कुंभ की भीड़ याद आ गयी। जयपुर से जोधपुर की किसी ट्रेन में फौरी आरक्षण मिल गया। मेरे सामने वाली सीट पर एक फिरंग लड़की बैठी थी जो परिचय होने पर पता चला ऑस्ट्रेलिया की बीबीसी ऑस्ट्रेलिया में पत्रकार थीं। हैंड रोल्ड सिगरेट के साझा शौक ने बातचीत शुरू हो गयी। तब ट्रेन में सिगरेट पीने की मनाही नहीं थी। वह बीकानेर, बाड़मेर में बसे विस्थापितों पर एक स्टोरी करने आई थी। बीच में रामदेव के मेले पर भी एक स्टोरी कर ली, मैंने भी। खैर असली बात पर आते हैं, ट्रेन में ही उससे एक हफ्ते के रोजगार का करार हो गया – इंटरप्रेटर का काम। उसने मेरी फीस पूछा, वैसे भी फ्रीलांसर (बेरोगार) बहुत ही अनफ्री होता है। मैंने अगले दिन अपने इंटरविव का जिक्र किया तो बोली, नौकरी मिल गयी तो करार कैंसिल। मैं राजी हो गया, फीस पूछने पर मैंने कहा कुछ भी। वह हंसने लगी। मैंने हिम्मत करके 500 रुपए प्रतिदिन बोल दिया, राहखर्च के साथ उस समय एक हफ्तो का साढ़े तीन हजार बहुत लगा था, था भी। मैं किसी सस्ते से होटल में रुकने वाला था, उसने रास्थान टूरिज्म के गेस्ट हाउस में ही मेरे लिए भी कमरा बुक कर दिया। थोड़े में कहें तो दोस्ती सी हो गयी। शाम दो-दो घूंट लेकर सो गए और सुबह उठकर राजनीतिशास्त्र की पुस्तकें पलटने के बाद भूगोल का मुआइना करने निकल पड़ा। सड़कें भगवानमय थीं, भक्त दूरदूर से आए थे। वापस नहा-धेकर नास्ता करके जोधपुर विवि पहुंचा। कोई रोठौर साहब हेड थे। ऑफिस वालों ने बताया मेरा आवेदन नहीं मिला। और रजिस्ट्री या एक्नॉलेजमेंट की रसीदें मैं ले नहीं गया था। राठौर साहब से मैंने बहुत मिनती-बिनती की कि बेरोजगारी में इतनी दूर से अपना किराया-भाड़ा खर्च करके आया हूं तो इंटरविव दे देने दें, इंटरविव से ही तो नौकरी नहीं मिल जाएगी। मैं अपना तबतक छपा एकमात्र रिसर्च पेपर और पत्र-पत्रिकाओं के कई लेख लेकर गया उन्हें दिखाने की कोशिस की लेकिन वे नियम-कानून से बंधे थे। जोधपुर में हाई कोर्ट का भी हवाला दिया और अपने फैसले पर अडिग रहे। सोचा परिसर घूम लूं। मन नहीं किया। वापस कमरे यह सोचते आ गया कि इंटरविव दे देने देते तो कौन सी आफत आ जाती।
गेस्ट हाउस के लॉन में पार्कर सिगरेट रोल करते हुए चहल रही थी। मुझे इतनी जल्दी वापस आते देख उसे ताज्जुब हुआ। उसे सब बताया तो हंसने लगी और गंभीर होकर बोली, “टेक द ऐडवर्सिटीज एज ब्लेलिंग इन डिस्गाइज’, जैसे और भी कोई विकल्प हो? उसका मुश्किल सा नाम नहीं याद आ रहा, सरनेम पार्कर था। (मैं तब भी पार्कर कलम से ही लिखता था।)  लंच कर हम लोग घूमने निकल गए। उसके पास रोड मैप था और एक उद्यान में जाने के पहले हम शहर की गलियों में घूमने लगे, भांग का प्रचलन बनारस सा लगा। ठंडाई में; लस्सी में; निब्बू-पानी में; पकौड़ी; लड्डू सब रूपों में। हम एक पार्क में गए, शायद मनसौर पार्क या ऐसा ही कुछ नाम। इसका जिक्र इसलिए कि वहां क मंडप में दीवार पर राम, कृष्ण, शेकर आदि दोवताओं की तस्वीरें थीं, सभी राणाप्रताप टाइप मूंछों के साथ, नीचे उनके नाम न लिखे होते, तो पहचानना मुश्किल था।
पर्यटन विवरण की गुंजाइश नहीं है। अगले दिन आरक्षित टैक्सी में हम जैसलमेर होते हुए अपने कार्यक्षेत्र, राजस्थान के हिंदुस्तानी रेगिस्तान और सिंध के पाकिस्तानी रेगिस्तान के संगम पर पहुंचे। कहानी के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। लब्बो-लुबाब यह कि 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में हिंदुस्तानी फौज सिंध के काफी अंदर तक चली गयी थी। उन इलाकों से भारी संख्या में पाकिस्तानी हिंदू सीमा के इस पार आ गए और बीकानेर, बाड़मेर के सीमांत जिलों में फैल गए। युद्धविराम और फौजों की वापसी तथा शिमला समझौते के बावजूद, इन ‘पाक विस्थापितों’ ने वापस जाने से इंकार कर दिया। वे नागरिकता विहीन लोग थे और नागरिकता तथा अन्य अधिकारों के लिए संघर्षरत रहते हुए कारीगरी, कला आदि माधियमों से इन्होने अपना काम चलाऊ अर्थतंत्र विकसित कर लिया था। गुड़ की शराब बहुत अच्छी बनाते थे। हिंदी का अंदाज अजीब था लेकिन समझ में आ जाता था। पार्कर के लिए उनकी बात की व्याख्या के साथ-साथ मैं भी नोट भी ले रहा था। इन लोगों के साथ हमने 3-4 दिन बिताया। खूबसूरत लोग और अपने लीमित साधनों में मेहमाननवाजी में कश्मीरियों की बराबरीपर। यहां से मेरी इंटरप्रेटर की भूमिका समाप्त। अंतिम शाम उन्ही लोगों के साथ पार्टी-भोज हुआ। अगले दिन हम सेखावटी में पत्थर और बालू के पहाड़ों के संगमस्थल की तरफ चल पड़े।
सेखावटी का नाम हमने पहले सेखावटी गायों के संदर्भ में सुना था। रामगढ़ (शोले वाला नहीं) हवेलियों का गांव है, इसलिए पर्यटन स्थल। यह अफीमयुद्ध के समय अफीम तस्करी रूट पर था। पश्चिम मे पूंजीपतियों के ‘तथाकथित आदिम संचय’ के श्रोत थे किसानों की बेदखली, कारीगरों की तबाही और औपनिवेशिक लूट। टाटा-विड़ला समेत ज्यादातर भारतीय पूंजीपतियों के ‘तथाकथित आदिम संचय’  का श्रोत अफीम तस्करी थी। यहां बिड़ला, रुइया, भुइया.... सभी मारवाड़ी पूंजीपतियों की हवेलियां हैं। सबसे बड़ी हवेली 200 कमरे की है। एक छोटी हवेली को छोड़कर किसी हवेली का मालिक उनमें नहीं रहता, वे बड़े शहरों में रहते हैं। जो सज्जन वहां रहते हैं उनके बच्चे कलकत्ता-मुंबई में थे और इन शहरों में उनकी सेहत गड़बड़ हो जाती थी। सभी में केयरटेकर, प्रायः पुरोहित रहते हैं। हमलोग जिस भी हवेली में गए, हमें निःशुल्क जाने दिया। हवेलियों के बारे में विस्तार और भोर में भूगोल के मुआइने तथा खेत-बाड़ी के राजनैतिक अर्थशास्त्र के वर्णन की गुंजाइश नहीं है। रेगिस्तान के खेती घाटियों और मैदानों की खेती में, जमीन आसमान का फर्क है लेकिन विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। बालू के टीलों की गति और स्थान परिवर्तन से बाड़ का आकार और स्वरूप बदलता रहता है। एक किसान के खेत में गया और उनके साथ लालमिर्च की चटनी के साथ एक टुकड़ा रोटी खाया और खेत से तोड़कर मतीरा खिलाया। मतीरा तरबूज की प्रजाति का छोटा, गोला फल होता है। हाथ से मारने से दो कटोरों के आकार में टूटता है। मलाई खाने के बाद उसमें पानी बचता है, पीकर मस्त। थर्मस में जोहड़ से पानी भरा एकदम स्वच्छ और स्वादिष्ट। 1996 में मैं दुबारा राम गढ़ एक टेलीफिल्म में अभिनय के लिए गया, जिसके बारे में फिर कभी कहीं और।
बीकानेर में एक दिन एक मंहगे होटल में शेखी में आकर डिनर का बिल चुका दिया था। रामगढ़ में मेरी जेब में 30 रुपये थे। उसे वहां से कुछ जगहों के पर्यटन पर जाना था जहां दुभाषिए की जरूरत नहीं थी। मैं खुश था कि विदा होने से पहले वह 3500 रुपए देगी लेकिन उसने दिल्ली की टैक्सी बुक कर तंबाकू का ड्रम का एक पाउच गिफ्ट किया और 4 दिन बाद दिल्ली के एक पते पर फोन करके मिलने को कहा। मेरे पास उसका विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। सिगरेट का इंतजाम था। रास्ते में एक साधारण से ढाबे 20 रुपए में खाना खाया और सिगरेट का इंतजाम था ही, घर पहुंचते ही पता चला मेरी छोटी बेटी डॉक्टरों के अनुमान से पहले ही इस दुनिया में आ गयी। मेरे चचेरे भाई शेषनारायण की पत्नी की एक दोस्त लेडी हार्डिंग अस्पताल में नर्स थी उन्होंने आसानी से भर्ती करा दिया था और वहां एक मेरी डीपीयस की स्टूडेंट मिल गई रेजीडेंट डॉक्टर उसने विशेष ध्यान दिया। जेब में 10 रुपए, मोटरसाइकिल में तेल कितना था पता नहीं। लेकिन सोचा बेटी पैदा होने का उत्सव नहीं मानाऊंगा तो लोग कहेगे कि बड़ा फेमिनिस्ट बनता है लेकिन दूसरी बेटी पैदा होते ही दब गया। यह तलाश-ए-माश से जुड़ा नहीं है इसलिए यहां विस्तार की हुंजाइश नहीं है। बाइक में 10 रुपए का तेल डाला और एक दोस्त के ऑफिस 1000 रुपए मांगने पहुंचा तो उसने पूछा इतना पैसा क्या करोगे, मैंने कहा कि वर्ल्ड बैंक हो गए हो? खैर उसने पैसे दे दिए। आगे की कहानी फिर कभी कहीं।
4 दिन बाद पार्कर बताए पते पर मिल गई और 3500 के लिफाफे के साथ एक पार्कर कलम भी गिफ्ट किया। मैंने ब्लिट्ज हिंदी अंग्रेजी में भगवान रामदेव के मेले और किंवदंतिए पर एक एक लेख लिखे। एक बड़े यनजीओ में बड़े पद पर काम करने वाले मित्र से पाक विस्थापितों की चर्चा की उन्होंने रिपोर्ट लिखने को कहा, रिपोर्ट में मैंने 20-25 दिन लगा दिए। जिसका  5000 पारिश्रमिक मिला। जिस माश की तलाश में निकले थे वहां से तो दरवाजे से ही भगा दिए गए लेकिन उस यात्रा से कुछ महीनों के किराए-किचेन का इंतजाम हो गया। छोटी की जरूरतों की चीजों में बहुत कोताही नहीं करनी पड़ी। खिलौने खरीदने की बात उस समय दिमाग में नहीं आई। तलाश-ए-माश जारी रही।            


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