Wednesday, December 27, 2017

बेतरतीब 37 (अटलबिहारी)

मैंने अटल जी के दो भाषण सुना है, एक 1969 में और दूसरा 1999 में। पहला जब 'युवा हृदय-सम्राट' थे दूसरा जब वे प्रधानमंत्री थे। 1969 में मैं दसवीं में टीडी कॉलेज जौनपुर में पढ़ता था और हॉस्टल के कुछ सीनियरों के साथ 10-20 बार शाखा भी जा चुका था,और अफवाहजन्य इतिहासबोध के कुछ बौद्धिक भी सुन चुका था। स्कर्ट टाइप का हाफपैंट मुझे बेहूदा लगता था और ड्रिल करने से चिढ़ थी, इसलिए स्वयंसेवक होते-होते बच गया। भूमिका यहीं खत्म करता हूं नहीं तो कहानी रह जाएगी। कई दिनों से रिक्शों पर भोंपू से प्रचार हो रहा था, 'युवाहृदय सम्राट' की सभा का। फूल-मालाओं और नोटों के 100 स्वागत द्वार बने थे। जौनपुर का राजा यादवेंद्र दत्त दूबे यमयलए था। वैसे तो यूपी-बिहार में कोई राज-घराने ही नहीं थे। तनकी भर बड़ियार जमींदार अपने को राजा रहते थे। 1967 में पहली बार जौनपुर से 5 यमयलए जनसंघ के जीते थे। खैर 14 साल के ब्राह्मण बालक (जनेऊ तोड़ चुका था, संस्कार-सोच इतनी जल्दी नहीं टूटते) को लोगों के हास्यबोध पर आश्चर्य हुआ। भीषण सूखा और तबाही मची थी, अमरीका से गेहूं-बजरा मागाया गया था। जिस क्रूर मस्खरी पर सबसे ज्यादा तालियां बजीं वह मुझे शब्दशः याद है। "आपके यहां शूखा पड़ गया..ऐ..। हुआ यों कि ....इंद्रजी और इंदिरा में लड़ाई हो गयी..। इंद्रजी जीत गएएए.. इंदिरा जी हार गईं.. सूखा पड़ गियाआआआ"। 1999 की भंडैती की कहानी फिर कभी।

दूसरे भाषण की बात भी बता दूं। पहले छोटी सी भूमिका। 1998 में जब अटलबिहारी बाजपेयी प्रधान मंत्री हुए, पढ़े-लिखे तमाम लोग कहने लगे, "अंततः भारत को एक युगद्रष्टा (विज़नरी) प्रधानमंत्री मिल गया"। मैं उनसे कहता था कि मैं जुए में विश्वास नहीं करता, न ही मुश्किल से मिली इस नौकरी के अलावा कोई संपत्ति है, लेकिन यह नौकरी दाव पर लगाकर दुनिया के सारे बुद्धिजीवियों को खुली चुनौती देता हूं कि उनके  कृत्यों; कथनों या तुकबंदियों से एक वाक्य या वाकया बता दें जो उनके युगद्रष्टा होने की तस्दीक करते हों। मैं 1942 में क्रांतिकारियों की मुखबिरी से लेकर 2004 में फील-गुड के शगूफे तक अनेकों वाक्य और वाकया उद्धृत कर सकता हूं जो साबित करते हैं कि वे देश और जनता के प्रति गद्दारी करते रहे हैं। 1996 तक वे स्वदेशी जागरण के मंच से एनरॉन का विरोध करते रहे और 1996 में 13 दिन के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होने संसदीय नैतिकता को लात मारते हुए बिना विश्वासमत हासिल किए एक ही नीतिगत फैसला किया, एनरॉन को मुनाफे की काउंटर गारंटी देने का। 1992 में उन्होंने अयोध्या में भजन-कीर्तन का हलफनामा दिया और क्या किया, दुनिया जानती है। 1991 में नरसिंह राव और मनमोहन सरकार ने देश की परिसंपत्तियां और सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने का काम लुके-छिपे करना शुरू किया था, 1998 में प्रधानमंत्री बनने के बाद खुली बिक्री के लिए विनिवेश मंत्रालय शुरू कर दिया, वैसे ही जैसे शिक्षा मंत्रालय को मानवसंसाधन विकास मंत्रालय बना दिया। भूमिका लंबी हो गयी, अब भाषण की बात पर आता हूं।
1999 हिंदू कॉलेज (दिल्ली विवि) की स्थापना के शताब्दी समारोह में अटल जी मुख्य अतिथि थे। अपना विरोध दर्ज करते हुए एक शिक्षिका, डॉ. त्रिप्ता वाही बांह पर काली पट्टी बांधकर कॉलेज आ रही थीं, उन्हें घर से कॉलेज के रास्ते में पुलिस ने रोक लिया और कार्यक्रम खत्म होने तक थाने में बैठाए रखा। कई बार शर्म की बात पर लोग गर्व करते हैं। हिंदू कॉलेज में छात्रसंघ की जगह संसद है, सारे छात्र जिसके सदस्य हैं। प्रिंसिपल के पास वीटो पावर है तथा उसके दो चहेते शिक्षक क्रमशः स्पीकर और डिप्टी स्पीकर होते हैं। प्रधानमंत्री का सीधे चुनाव होता है, वह अपने मंत्री नियुक्त करता है तथा हारा हुआ उम्मीदवार नेता विपक्ष होता है और साल में 1-2 बार स्पीकर संसद का सत्र बुलाता है और बजट वगैरह पर बहस होती है। छात्र संघ का काम होता है छात्रों की समस्याओं के लिए संघर्ष, लेकिन पीयमओ साल भर में एक ही काम करता है – वार्षिक उत्सव (मक्का) का आयोजन और स्पांसरशिप में दलाली खाना। एक वर्ष (1997 या 1998) पीयम नेता विपक्ष को हिस्सा दिए बिना अकेले ही दलाली हड़प जाना चाहता था तो ऑडीटोरियम में आग लग गई और उस साल मक्का का आयोजन ही नहीं हो सका। खैर जिन कॉलेजों में छात्रसंघ है और दिल्ली विवि छात्रसंघ (डूसू) भी वही करता है। पिछले 30-35 सालों में डूसू के नेतृत्व में किसी छात्र आंदोलन का कोई इतिहास नहीं है। कभी कभी कुछ हंगामे जरूर करता है, जैसे पिछली साल छात्रसंघ अध्यक्ष (एबीवीपी) ने लॉ फैकल्टी की डीन के साथ कम हाजिरी वाले छात्रों को परीक्षा प्रवेशपत्र न देने के लिए गाली-गलौच किया तथा श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के एक शिक्षक की इसी कारण पिटाई कर दी। उससे पहले वाली साल डूसू अध्यक्ष, सत्येंद्र अवाना ने श्रीराम कॉलेज के ही फीजिकल एजूकेसन के प्रोफेसक की बाहरी लोगों को मुफ्त में स्वीमिंग पूल के इस्तेमाल की मनाही के चलते 10-12 गुंडों के साथ मिलकर हड्डी-पसली तोड़ दी थी। मुझे कश्मीर पर लिखने और बोलने के लिए गाली-गलौच के साथ फोन पर धमकी दी, बोला तुम्हारी ‘मुझसे मिलने में फटती क्यों है?’ मैंने कहा कि मेरी सारे गुंडे-मवालियों से फटती है। खैर गुंडे कत्तों की तरह कायर होते हैं झुंड में शेर हो जाते हैं, अकेले में पत्थर उठाने के नाटक से दुम दबाकर भाग जाते हैं। एक भूमिका खत्म करके भाषण पर आना चाहता था मगर दूसरी लंबी भूमिका हो गयी। इतने छोटे टेक्स्ट की 2 लंबी भूमिकाएं हो गयीं।
मंच पर कॉलेज का प्रधानमंत्री भी बैठा था। अटलजी के जिस भाषण पर सबसे ज्यादा तालियां बजीं, “यहां दो-दो प्रधानमंत्री बैठे हैं, लेकिन हमारा कोई झगड़ा नहईंईई, मैं वर्तमान हूं, ये भविष्य हैं और कुछ भूत भी बैठे होंगे। .. हमारे यहां नेता विपक्ष को मंत्री का दर्जा प्राप्त है, हम विरोध करने का भी पैसा देते ऐंएए”। और विरोध करने वाली एक शिक्षिका को गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद टीचर्स असोसिएसन में, मैंने जैसे ही बोलना शुरू किया, “हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी भड़ैतीपूर्ण शैली में......” इतना ही बोला था तब तक शोर-गुल के साथ दर्जनें प्वाइंट ऑफ ऑर्डर उठने लगे। मैं आगे बोल नहीं पाया। कुछ लोगों ने कहा मैंने प्रधानमंत्री और फलस्वरूप राष्ट्र का अपमान किया है, अपने शब्द वापस लूं। मैंने कहा कि मुझे नहीं मालुम किस विधा से कहे शब्द वापस लिये जा सकते हैं, कहिए तो अंग्रजी अनुवाद कर दूं, .. कॉमिकल स्टाइल में। लेकिन विरोध के लिए पैसा देने वाले शासन में, मैं शोर-गुल में एक वाक्य भी नहीं पूरा कर पाया। 2 वाक्यों का कमेंट सोचा था, लेकिन कलम आवारगी पर उतर आया। अपने आप से माफी, क्योंकि सुबह-सुबह एक लंबित लेख शुरू करना चाहता था कि अटल जी की भंड़ैती के चक्कर में फंस गया।
28.12.2017।


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