Monday, December 25, 2017

लल्ला पुराण 168 (हिंदू-मुलमान)

इस कविता में हिंदू-मुसलमान का कोई जिक्र नहीं है, लेकिन कुछ के मगज में इतना भूसा भरा होता है कि उन्हें हिंदू-मुसलमान से ऊपर इंसान दिखता नहीं। पढ़-लिख कर दिमाग को विषय पर बोलने लायक बनाते नहीं, कोई भी चर्चा हो, विषयांतर से विमर्श विकृत करने के उद्देश्य से या तो हिंदू-मुस्लिम अभुआने लगते हैं या वामी कौमी। मैं भी इन ठस दिमागियों को हिंदू-मुसलमान से इंसान बनाने यानि रेगिस्तान में मोती तलाशने जैसे असंभव काम में लग जाता हूं, लेकिन असंभव महज एक सैद्धांतिक अवधारणा है।

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