Sunday, December 3, 2017

बेतरतीब 32 (1983)

हमारे जमाने में जेयनयू में पहली बड़ी मार 1983 में पड़ी, सब टूट गए. खोमोश हो गए, माफियां मांगने लगे। मैंने मौजूदा जारी आंदोलन के दौरान एक मीटिंग में अभी के बहादुर बच्चों के सलाम करते हुए कहा था कि हम एक ही मार में टूट गए और तुम पर मार पर मार पड़ती जा रही है, तुम टूटे नहीं, झुके नहीं, लड़ रहे हो। उस समय अंततः माफी मांगने से इंकार करने वाले 17-18 लोग निकाल दिए गए। 17 लोगों के निष्कासन पर जुलूस-प्रदर्शन की तो छोड़िए, जीबीयम की भी छोड़िए कोई आल-ऑर्गनाइजेसन मीटिंग तक नहीं हुई, ये यूजीसी पर घेरा डालते हैं। यसयफआई उस समय अगले चुनाव के लिए लोगों को कह रही थी कि वे जो भी करते हैं, अंडरहैंड डीलिंग करते हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी साइनेडाई और ज़ीरो सेसन न होता। कैंपस में मनोबल के स्तर का आलम यह था कि हम लोगों ने सोचा कि दिन में पोस्टर चिपकाए जाएं, क्लब बिल्डिंग में हम पोस्टर चिपका रहे थे, लोग आंख नीचे करके कैंटीन चले जाते थे कि पोस्टर पढ़ने के जुर्म में रस्टीकेसन न हो जाए। पोस्टरबाजी के सुखद अनुभवों पर कभी फिर लिखूंगा। दिलीप उपाध्याय सुंदर-सुंदर उद्धरण खोज के लाता था और शाहिद परवेज की शायरी की याददाश्त अद्भुत है। डॉ ओपे भी हम लोगों के साथ अक्सर रहते थे। मुझे रविवार, 2 अक्टूबर 1983 को हॉस्टल से इविक्ट किया गया। जेयनयू का पूरा सिक्योर्टी नेटवर्क और एक ट्रक पुलिस, मुझे लगा कि 46 किलो के एक लड़के से इतना खतरा? 10-12 लोग हॉस्टल के बाहर थे, कुछ लोग चीफ प्रॉक्टर रामेश्वर सिंह से उलझ रहे थे। पुलिस वालों के गाड़ी से उतरने की जरूरत नहीं पड़ी। एक बात जरूर शेयर करना चाहूंगा। किसी ने कहा, "You look like a joker." अभिजीत पाठक ने कहा, "No-no. He looks like a villain of a 3rd rate Hindi film." मुझे चार्टिस्ट आंदोलन की 1840 के दशक की वह घटना याद आई कि सरकार ने लाखों प्रदर्शनकारियों से निपटने की सेना-पलिस और बैरीकेड्स की तैयारी कर रखा था लेकिन कोई प्रदर्शन ही नहीं हुआ। जगदीश्वर जी! हर अगली पीठी तेजतर होती है, इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता, आगे ही बढ़ता है, कुछ-एक खतरनाक यू टर्नों के बावजूद।

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