धर्म खुशी या दुख से निजाद का भ्रम प्रदान करता है, उन भ्रमों को तोड़ने का मतलब है उन कारणों को खत्म करना जिससे भ्रम की जरूरत न हो, दुख ही न हो तो निजात के भ्रम की जरूरत ही न पड़े। लेकिन हकीकत यह है कि दुख हैं। अपने आप दूर नहीं होंगे। कौन दूर करेगा? यह कौन अमूर्त व्यक्ति ही जिसका उससे सब कुछ छीना जा चुका है और ईश्वर न छीने जाने की गुहार लगाई जा रही है? हम कौन हैं? क्या हम उनसे अलग हैं? तमाम क्रांतिकारी मां-बाप सामाज के जबाव में दहेज ले लेते हैं, समाज में काम करने के लिए जनेऊ पहन लेता हैं, सत्यनारायण की कथा सुन लेते हैं, नमाज पढ़ लेते हैं। दबाव में अपना आचरण तय करने वाला क्रांतिकारी नहीं हो सकता। अपनी मुक्ति की लड़ाई लोग खुद लड़ेंगे और जब तक भ्रम पर निर्रता रहेगी अपने आत्मभाव पर भरोसा नहीं होगा और वह ईश्वर के भरोसे भाग्य बदलने का इंतजार करेगा। मेरी पत्नी रोज एक घंटा घंटी बजाती हैं, तो क्या मैं भी हाथ जोड़कर आरती गाऊं? लोगों को भ्रम से निकालने के लिए राजनैतिक शिक्षा की जरूरत है, शिक्षक को मिशाल से पढ़ाना होता है, प्रवचन से नहीं। यथास्थितिवादी जड़ता और मजबूत होती जब हम उसका खुले आम उल्लंघन का साहस नहीं करते। 'मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं, तोड़ते हुए आगे बढ़ें.......' 'अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे.......'
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