बहुत खूब। ऐसे (सामाजिक दबाव में दुहरी जिंदगी का तर्क देने वाले) चरित्रों के लिए गोरख पांडेय की कालजयी कविता 'समझदाकों का गीत' में एक पंक्ति है, 'हम दुखी रहते हैं ईश्वर से, अगर महज कल्पना नहीं.....'. बहुत से लोग प्लेटफॉर्म की सलाश में 'क्रांतिकारी' हो जाते हैं, लेकिन संस्कारों और धर्मभीरुता को तार-तार करने का साहस नहीं कर पाते क्योंकि आत्मसंघर्ष से डरते हैं।
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