गांव देश 1
वैसे तो मुझे जेयनयू ही अपना गांव-देश लगता है। इलाहाबाद
से आकर यहां नई जीवन यात्रा शुरू हुई, तार्किक परिप्रेक्ष्य से दुनिया
देखने-समझने-बदलने की कोशिस का जीवन। लेकिन यहां मैं, जन्म के गांव-देश की बात कर
रहा हूं। जब भी छुट्टियों में घर (गांव) जाता था, या अब जब कभी जाता हूं, सोचता
हूं लौटकर यात्रा के संस्मरण लिखूंगा, लेकिन दिल्ली पहुंचकर यह प्राथमिकता में
इतना नीचे खिसक जाता रहा कि कभी नंबर हा नहीं आया। 2016 नवंबर और मई 2017 के बीच 3
यात्राएं हुईं, रोचक अनुभव हैं, जिसके बारे में फिर कभी। अभी 2004 मार्च की यात्रा
के एक दिन की लंबी संध्या का छोटा सा अनुभव शेयर करूंगा जो हिंदुस्तानी ‘आमजन’ की
राजनैतिक चेतना और नैतिकता की समझ पर सटीक टिप्पणी लगी थी।
2004 का संसदीय
चुनाव हो चुका था, परिणाम नहीं आया था। गांव में बाजार तो सही अर्थों में नहीं बना
है लेकिन सड़क बनने के बाद एकाध पक्की और कई कच्ची दुकानों के साथ चाय की
अड्डेबाजी का चौराहा बन गया है। चैराहे पर पहुंचते ही चाय के जिस अड्डे पर मैं बैठा
वहां 10-12 लोग थे, जिसमें बगल के गांव बखरिया के कुछ गिरि जी लोग मेरे परिचित थे
बाकी बताने पर जान गए। वहां तीन नामी यादव मैदान में थे। उनमें से दो अपनी अपराधिक
छवि की दबंगई के लिए नामी-गिरामी हैं, तीसरे अपनी ईमानदार, गैरअपराधिक छवि और
राजनैतिक अनुभव और समझ के लिए। जी, मैं आज़मगढ़ संसदीय क्षेत्र की बात कर रहा हूं,
जहां से 2014 में, सर्वविदित दबंग भाजपा के रमाकांत यादव को हराने के लिए मुलायम
सिंह को खुद डेरा डालना पड़ा। दबंगई में नाम के बाद ये बसपा के विधायक चुने गए। एक
दलित जूनियर इंजीनियर की हत्या में नाम आने के बाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की शरण
में चले गए। उसके बाद अंततः 2009 संसदीय चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार बनने तक
सपा-बसपा में आते-जाते रहे।
सोचा था बहुत छोटी
टिप्पणी लिखने को, भूमिका ही इतनी लंबी हो गयी। एक अंतिम बात के साथ भूमिका का अंत
करता हूं। भारतीय जनतंत्र, संख्यातंत्र है। जातीय संख्याबल में यादव और मुसलमान
ज्यादा सबल हैं। 1967 के बाद सभी पार्टियां यादव या मुसलमान उम्मीदवार ही खड़ा
करती हैं। 1967 के चुनाव में मैं आठवीं का छात्र था, प्रचार के लिए आई धूल उड़ाती
जीपों के पीछे हम दौड़ते थे। रानीति का अलिफ भी नहीं मालुम था। झोपड़ी, बरगद, दो
बैलों की जोड़ी, घर घर में दीपक जनसंह की निशानी किस्म के पोस्टरों का मतलब नहीं
समझ आता था। हम स्कूल से लौट रहे थे, देखा गांव के प्राइमरी स्कूल के बाहर लोगों
की भीड़ जमा थी। दौलतलाल सोसलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। (याद नहीं है बरगद वाली
या झोपड़ी वाली) मीटिंग खतम करके जीप की तरफ जाने को मुड़े मैं उनके पास गया और
पूछा, ‘तू ही दौलतलाल हय?’ उन्होंने ‘हां’ कहकर दुलार से सर पर हाथ फेरा। मैंने
सुना था कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे। मैं जानता नहीं था कि स्वतंत्रता सेननी कैसा
होता है। मेरे अपने गांव की राजनैतिक चेतना का स्तर यह था कि एक पुराने जमींदार
रामाज्ञा सिंह के बारे में लोग कहते थे कि कांग्रेस के चवन्नी (या इकन्नी जो भी
रही हो) वाले सदस्य थे। दौलतलाल को देखकर मैं विस्मित हुआ ये तो चकाचक सफेद
कुर्ता-धोली-टोपी में एक सहज सरल, हमीं जैसे व्यक्ति थे, हम स्वतंत्रता संग्राम के
बारे में पूछना चाहता था, पीठ पर प्यार से हाथ रखकर बोले थे, चुनाव के बाद कभी ढेर
सी बातें करेंगे। 1967 का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि इस संसदीय और विधानसभा
क्षेत्र से विचारधारा और व्यक्तित्व के आधार पर लड़ा-जीता गया अंतिम चुनाव था।
कांग्रेस के रामबचन यादव के मुकाबले दौलतलाल चुनाव जीत गए। दौलतलाल कायस्थ थे और
क्षेत्र में कायस्थों की आबादी एक फीसदी से भी बहुत कम होगी। भूमिका की अंतिम बात
भी बहुत लंबी हो गयी, कहानी बहुत छोटी है।
मूल कहानी पर आते
हैं, चौराहे की चायचर्चा पर। इसकी भी छोटी सी भूमिका। गांव से मेरे साथ 4 लोग और
(2 ब्राह्मण, 2 ठाकुर) निकले थे चौराहे पर चाय पीने निकले और रास्ते में रुककर ‘प्रधानपति’
से बात करने लगे और मैं आगे बढ़कर चाय की जो पहली दुकान दिखी, 5 चाय का ऑर्डर दे दिया।
बाकी 3 कौन थे, भूल गया चौथा मेरा बचपन का मित्र, बाबाओं की भेषभूषा में पूजा-पाठ
की छवि वाला, उसका नाम फिलहाल छोड़ देता हूं। वह दुकान उपरोक्त ‘प्रधानपति’ की थी।
मेरे मित्र ने तो कुछ संध्य-वंदना का बहाना किया, बाकी किसी ने गुटका खा लिया किसी
का कोई और कारण था। इन लोगों ने वहां चाय नहीं पिया। कोई यह साफ बोल भी नहीं सका
कि चमार की दुकान पर चाय नहीं पिऊंगा। अगले (सुम्हाडीह) चौराहे पर उसने एक से अधिक
चाय पी। एक कहानी में दो-दो भूमिकाएं हो जायं तो कहानी तक पहुंचते-पहुंचते पाठक की
रुचि खतम हो सकती है। लेकिन अब तो हो ही गयी।
उस चाय चर्चा का सार
यह था कि उस चुनाव में तीन प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे। उपरोक्त स्वनामधन्य रमाकांत
यादव (बसपा); एक अन्य बाहुबली छवि वाले अंगद यादव (या ऐसा ही कोई पौराणिक नाम); और
1977 में उप्र के मुख्यमंत्री रह चुके, तत्कालीन विधायक, रामनरेश यादव। सब यह मान-कह
रहे थे कि राम नरेश जी गैर-अपराधिक छवि के ईमानदार हैं, राजनैतिक सूझ-बूझ भी है।
हाल में ही मरम्मत हुई सड़क दिखाकर बताया कि विधायक फंड से इलाके में काम भी
करवाते हैं, यह सड़क उन्होंने ही बनवाया, लेकिन वोट काटने के लिए खड़े हो गए। मुझे
लगा भारतीय राजनीति की नैतिकता पर यह सटीक टिप्पणी है, दो दबंग सांसदी के प्रमुख
दावेदार होते हैं और एक ईमानदार राजनेता, वोटकटवा।
पहली छोटी सी कहानी
कि भूमिकाएं बहुत लंबी हो गयीं इसलिए उस संध्या की अगली कहानी बहुत ही संक्षेप
में। अपने गांव के चौराहे से साइकिल 4 किमी दूर अगले चौराहे (सुम्हाडीह) की तरफ चल
पड़ी। चाय पीते हुए सड़क पार, सूर्यकुमार यादव मास्टर साहब के बरामदे में कई सजे-धजे
लोग दिखे। मैं जब भी वहां जाता हूं तो उनसे मिलने की कोशिस करता हूं। कुछ
परिचित-अपरिचित शिक्षक और एक इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल किसी नेताजी का इंतजार कर
रहे थे पता चला कि सांसद जी इधर से गुजरेंगे। मैंने हास्यभाव से उनमें से एक
परिचित से पूछा कि ऐसे व्यक्ति का वे इतना सम्मान क्यों करते हैं? उन्होंने मायूसी
से जवाब दिया भय बस। मुझे मैक्यवली याद आया और लगा कि अकारण भयभीत शिक्षक निर्भय
नागरिक कैसे बनाएंगे? हम बच्चों की परवरिश में अनजाने में, अपने अंदर का अकारण,
अज्ञात, अमूर्त भय अपने बच्चों में भर देते हैं। कई आजीवन भयमुक्त नहीं हो पाते,
और नहीं तो भगवान और भूत का भय तो रहता ही है। प्रिंसिपल साहब ने तंज से कहा था कि
उनकी जगह मैं भी वही करता, अपरिचित थे मैं बिना जवाब दिए साइकिल अगले चौराहे की
तरफ बढ़ा दिया। यही बात 2011 में हमारे कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल ने कहा तो
मैंने उनसे इतनी भद्दी गाली न देने के आग्रह के साथ जो जवाब दिया था, उसके बारे
में, यदि कभी आंदोलनों की यादों में झांकने का मौका मिला तब।
02.12.2017
No comments:
Post a Comment