Sunday, December 31, 2017

वामपंथ का आंतरिक विवाद (बेतरतीब)

वामपंथ का आंतरिक विवाद
ईश मिश्र
यह लेख फेसबुक के एक ग्रुप में कुछ चिरकुट “अति क्रांतिकारियों” द्वारा मेरी नीयत पर सफाई के कमेंट्स का संकलन है।
मैं तीन कम्युनिस्ट संगठनों में रहा। जेल में सफाया लाइन से मोह भंग हो चुका था क्योंकि किसी वर्गशत्रु का नहीं बल्कि एक दूसरे का और मुखबिर के संदेह में आमजन का सफाया हो रहा था। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला थी, लगा सीपीयम गोल्डन मीन है। यसयफआई में चला गया। वहां से 1980 में  'प़लिटिक्स फ्रॉम एबव' पर सवाल करने के चलते 40 लोगों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया, आप जानते हैं कि कम्युनिस्ट संगठनों में इस्तीफे मंजूर नहीं होते, पार्टी विरोधी गतिविधियों केआरोप में निकाल दिया जाता है। हमने रिबेल यसयफआई बनाया और पीयडी करते हुए 1983 में एक लंबे आंदोलन में शिरकत के लिए मॉफी न मांगने के लिए 17-18 लोगों के निष्कासित कर दिया गया। मुझ समेत 3 लोगों के 3 साल के लिए बाकी को 2 साल के लिए। विवि अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गया था तथा 1983-84 जीरो यीयर घोषित तर दिया गया। सारे बड़े संगठनों ने समर्पण कर दिया था, लेकिन हम 15-20 लोगों ने पोस्टर, लीफलेट, नाटक आदि के जरिए आंदोलन को सालभर और 'खींचा'। 1983 में जेयनयू में प्रवेश लेने वाला कोई नहीं मिलेगा। वापस जनसंस्कृति मंच और आईपीयफ की मर्फत दुबारा यमयल आंदोलन से जुड़ा। दोनों ही संगठनों के सथापना सम्मेलनों में था। 1984 के सिख नरसंहार के बाज जेयनयू और डीयू के कुछ शिक्षक-छात्रों; डाक्टरों; पत्रकारों; फिल्मकारों आदि ने मिलकर सांप्रदायिता विरोधी आंदोलन (यसवीए) नाम से संगठन बनाया जो 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बिखर गया।

सबसे पहले तो दो अति 'क्रांतिकारियों' के निराधार निजी आक्षेपों से 'तिलमिलाकर', यह भूलकर कि 42 साल पहले 20 का था, उन्ही की भाषा में जवाब देने के लिए शर्मिंदा हूं और साथियों से क्षमा मांगता हूं। मार्क्स ने लिखा है कि शर्म एक क्रांतिकारी अनुभूति है। वैसे भी उस समय बहुत अच्छी मनोस्थिति में नहीं था क्योंकि 2-3 दिन दिन पहले मेरी बेटी के ब्वायफ्रेंड के पिताजी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी और उसके दुख में शरीक होना बाप की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। कमेंट के बीच में बेटी का चाय के लिए मिस्ड कॉल आ गया, सोचा पूरा करके उठूं, तब तक दूसरा कॉल आ गया और चाय बनाकर लौटा तो लैपटॉप का फ्लैप बंद करने में शायद कम्यूटर अज्ञान के चलते लगभग 250-300 शब्दों का कमेंट डिलीट हो गया। अब पत्नी भी उठ गयी हैं, उनके लिए चाय बनाकर, फिर कमेंट जारी रखूंगा। यह अति निजी बातें इस लिए लिख रहा हूं कि प्रैक्सिस का सिद्धांत मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाओं में है। दुनिया बदलने के लिए खुद को बदलना पड़ता है। इस ग्रुप के 2 साथी, Naveen Joshi और Lalprakash Rahi मेरे घर आए हैं और जानते हैं कि मैं कितनी 'ऐय्याशी' से रहता हूं। दोनों के आमंत्रण पर उनके शहरों में अपने किराये-खर्चे से इनके कार्यक्रमों में जा चुका हूं। क्योंकि मेरी छोटी सी समझ से मुझे लगता है, आज की मुख्य जरूरत सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की यानि क्रांतिकारी विचारों के प्रसार की है। साथी Manoj Singh से जनहस्तक्षेप के कार्यक्रम में मुलाकात हुई है। मैं कम्यनिस्ट अकेडमीसियन नहीं, खुद को ऐक्टिविस्ट मानता हूं, फिलहाल बिना किसी पार्टी की सदस्यता के। पार्टी साधन है साध्य नहीं, दुर्भाग्य से बुर्जुआ पार्टियों की ही तरह कम्यनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी साधन को ही साध्य मानने लगे हैं। मुझे इस बात पर भी शर्म आ रही है कि मुझे बताना पड़ रहा है कि मैं एक ईमानदार, सिद्धांतनिष्ठ मार्क्सवादी हूं। 18 साल की उम्र में किताबों से मार्क्सवादी बनने (किताबी नहीं) के बाद आंदोलनों में शिरकत से समझ विसित करने कोशिस करता रहा हूं। इतना लिखकर दिमाग थक गया है (बुड्ढा हूं), एक और चाय के बाद, अलाव जलाकर जारी रखूंगा। वैसे भी बहुत लंबा कमेंट एक साथ नहीं पोस्ट हो पाता। नौकरी के चलते घर मिल गया है जहां बांस की झोपड़ी में लाइब्रेरी बनाने और अलाव के पास काम करने का दिल्ली में दुर्लभ सुख मिल गया है जो डेढ़ साल और रहेगा।
चलिए, जब शुरू किया तो पूरा ही कर दूं। 18 साल में इलाहाबाद में क्रांतिकारी छात्र आंदोलनों से जुड़ने के बाद दीवारों पर सत्तर के दशक के मुक्ति का दशक के नारे लिखते हुए नौकरी की बात कभी सोचा नहीं। हमारी उम्मीदें और खुशफहमियां निराधार नहीं थी। विश्वयुद्ध के बाद 1949 में चीनी क्रांति, अमेरिका में सिविल राइट्स आंदोलन, क्यूबा, 1960 के दशक के छात्र आंदोलन (छात्र आंदोलन पर लेख के बीच इस पोस्ट में फंस गया, पता नहीं कब पूरा करूंगा, विवि भी खुल गया, मेरे लिए शिक्षण भी मेरी ऐक्टिविज्म का हिस्सा है।), वियतनाम, नक्सलबाड़ी, 1970 के छात्र आंदोलन, क्रांति अगले चौराहे पर खड़ी दिख रही थी। मैं अपने गांव का विवि पढ़ने जाने वाला पहला बालक था। किसान पिता की 'कलेक्टरी' की राय न मानने के लिए घर से पैसा लेना बंद कर दिया। वैसे भी खेतिहर अर्थव्यवस्था में नगदी की सुलभता आसान नहीं था। तबसे अपनी मेहनत-मजदूरी से अपनी पढ़ाई किया और भाई-बहन की पढ़ाई का जिम्मा उठाया पढ़ाई, एक्टिविज्म और आवारगी में बिना किसी कोताही के। तभी आपातकाल लग गया और अपनी बेवकूफी से गिरफ्तार हो गया। मैं सोचता था बड़े-बड़े लोगों को पकड़ रहे हैं और मैं तो 20 साल का छोटा सा छुटभइया था। 8-9 महीने का जेल प्रवास काफी ज्ञानवर्धक रहा, खाने-पीने की सुविधा अच्छी थी। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था, साहित्य का अध्ययन न के बराबर था। गोर्की, दोस्तोव्स्की, चेखव, ब्रेख्ट, थॉमस हार्डी, फ्रॉस्ट, लॉरेंस आदि की रचनाएं जेल में ही पढ़ा। मैं तब तक सोचता था लेखक तो किसी और ग्रह से आते होंगे, फिर भी हर शाम नोट लिखता था, डीआईआर से छूटने के बाद मीसा में वारंट जारी हो गया और मैं अपने सामान और किताबें लेने नहीं गया।जेल में फासीवाद का इतिहास पढ़ चुका था, और लगता था यह अगर 20 साल चला तो 21 में जाकर 41 में निकलूंगा। 21 की उम्र में 41 बहुत बड़ी उम्र लगती थी। इलाहाबाद में भूमिगत रहते हुए रोजी कमाना मुश्किल था और फीजिक्लस-केमेस्ट्री की किताबे सेकंड हैंड किताबों की बाजार में बेचकर दिल्ली आगया और एक सीनियर की तलाश में जेयनयू पहुंच गई, वह कहानी फिर कभी। में ही एहसास हुआ कि मेरी 17 साल में शादी हो गयी थी क्योंकि विद्रोही जज्बात इतना नहीं था कि भावनात्मक दबाव को तोड़ पाता। शादी मेरा चुनाव नहीं था लेकिन शादी निभाने का फैसला मेरा था। मेरी मर्जी से नहीं तो उनकी मर्जी से भी नहीं हुई थी। पूंजीवाद में हर कोई श्रम बेचने को अभिशप्त है। सोचा कि शिक्षक ही की नौकरी करूंगा। लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किया और 41 साल की उम्र में एक दुर्लभ संयोग से नौकरी मिल गयी।
मैं तीन कम्युनिस्ट संगठनों में रहा। जेल में सफाया लाइन से मोह भंग हो चुका था क्योंकि किसी वर्गशत्रु का नहीं बल्कि एक दूसरे का और मुखबिर के संदेह में आमजन का सफाया हो रहा था। सीपीआई कांग्रेस का पुछल्ला थी, लगा सीपीयम गोल्डन मीन है। यसयफआई में चला गया। वहां से 1980 में 'प़लिटिक्स फ्रॉम एबव' पर सवाल करने के चलते 40 लोगों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया, आप जानते हैं कि कम्युनिस्ट संगठनों में इस्तीफे मंजूर नहीं होते, पार्टी विरोधी गतिविधियों केआरोप में निकाल दिया जाता है। हमने रिबेल यसयफआई बनाया और पीयडी करते हुए 1983 में एक लंबे आंदोलन में शिरकत के लिए मॉफी न मांगने के लिए 17-18 लोगों के निष्कासित कर दिया गया। मुझ समेत 3 लोगों के 3 साल के लिए बाकी को 2 साल के लिए। विवि अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गया था तथा 1983-84 जीरो यीयर घोषित तर दिया गया। सारे बड़े संगठनों ने समर्पण कर दिया था, लेकिन हम 15-20 लोगों ने पोस्टर, लीफलेट, नाटक आदि के जरिए आंदोलन को सालभर और 'खींचा'1983 में जेयनयू में प्रवेश लेने वाला कोई नहीं मिलेगा। वापस जनसंस्कृति मंच और आईपीयफ की मर्फत दुबारा यमयल आंदोलन से जुड़ा। दोनों ही संगठनों के सथापना सम्मेलनों में था। 1984 के सिख नरसंहार के बाज जेयनयू और डीयू के कुछ शिक्षक-छात्रों; डाक्टरों; पत्रकारों; फिल्मकारों आदि ने मिलकर सांप्रदायिता विरोधी आंदोलन (यसवीए) नाम से संगठन बनाया जो 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बिखर गया।

सोवियत संघ में गोर्वाचोव के ग्लास्तनोस्त के बाद लिबरेसन में भी ग्लास्तनोस्त हो गया और मुझे लगा अब मेरे लिए उस पार्टी में जगह नहीं है और कॉमरेडों से यह आग्रह करके अलग हो गया कि वे सीपीयम वालो के बताएं, 'जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर वहां हम भी पहुंचे, मगर धीरे-धीरे।' उसके बाद मार्क्स-लेनिन-ग्राम्सी को और पढ़ने तथा मनन करने के बाद मुझे पार्टी, लाइन और जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के व्यहारिकता का पार्टियों में स्थिति से सैद्धांतिक मतभेद होने लगा।1996 में दिल्ली में एक कार्यक्रम में कॉ. वीयम से आखिरी मुलाकात में उन्होंने, मेरी 'गलतफहमियां' दूर करने के लिए एक बार साथ बैठने का आमंत्रण दिया। मैंने कहा कि उनके साथ बैठना हमेशा सुखद है, लेकिन कोई सार्थक संवाद नहीं हो सकता क्योंकि "मेरे मतभेद आपको गलतफहमी लगते हैं"। उसके कुछ महीनों बाद ही कॉ वीयम अचानक चल बसे। लेकिन परिवर्तन के लिए संगठन जरूरी है। इसलिए हम कुछ लोगों ने एक मानवाधिकार संगठन जनहस्तक्षेप बनाया। हम आंदोलनों को मदद करते है। हमारी मुजफ्फरनगर और दादरी की रिपोर्ट दुनिया भर के तमाम प्रकाशनों ने कैरी किया। साथी मनोज कश्मीर पर हमारे कार्यक्रम में आए थे। 2006 में कलिंगनगर पर भी हमारी रिपोर्ट बहुतों ने छापा और मैं ईपीडब्लू समेत हिंदीअंग्रेजी में कई लेख लिखे और टाटा के कुछ अधिकारी मुझे खरीदने आ गए, लेकिन क्रांतिकारी न बिकता है, न झुकता है, न टूटता है, लड़ता है और शहीद होता है। 3 यमयल पार्टियों के महासचिवों से मेरा नियमित संपर्क है। न्यू डेमोक्रेसी का सिंपेथाइजर हूं, उनके जनसंगठनों के कार्यक्रमों और स्टडी कलासेज के लिए अपने किराये-खर्चे से जाता हूं। पार्टी ज्वाइन करने की मेरी 3 शर्तें कोई मानता नहीं। स्टालिन, पार्टी लाइन और जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के व्यवहार पर खुली बहस। उनके मुखपत्रों के लिए लिखता भी हूं। इलाहाबाद में आइसा वालों के भी स्टडी क्लासेज करता था, जबसे उनके नेताओं को पता चला बंद हो गया। मेरा मानना है कि ये बच्चे जहां भी मार्क्सवाद का प्रशिक्षण लें, ऐतिहासिक क्रांतिकारी परिस्थियों में सब साथ आएंगे। छात्र आंदोलन पर लेख का समय, अफनी सफाई देने में लगा दिया। अब यहीं इसे समाप्त करता हूं अभ एक साल की अपनी माटी (नतिनी) से मिलने जाना है। ग्रुप के ऐडमिन चाहें तो मुझे निकाल सकते हैं। विश्वविद्यालयों, नौकरियों, पार्टियों और फेसबुक के ग्रुपों से निष्कासनों का मेरा रिकॉर्ड लंबा है और हर निष्कासन का फक्र है। लाल सलाम।

भगत सिंह और अंबेडकर

भगत सिंह और अंबेडकर
ईश मिश्र

जिस पोस्ट का जिक्र हो रहा है, वह काल्पनिक है क्योंकि 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में भगत सिंह ने अंबेडकर का जिक्र नहीं किया है। और भी भगत सिंह के लेख, जितने मैंने पढ़ा है, उनमें अंबेडकर का जिक्र नहीं है। यचयसआर के गठन के पहले से ही, बल्कि कानपुर आकर गणेश शंकर विद्यार्थी और शिव वर्मा से मिलने के पहले से ही भगत सिंह जातिवाद औरसांप्रदायिकता तथा धर्म पर छद्म नाम से ट्रीब्यून और किरती किसान में लिखते रहे थे लेकिन किसी में भी अंबेडकर का जिक्र नहीं है। भगत सिंह की शहादत पर अंबेडकर ने अपने मराठी अखबार जनता में संपादकीय लिखा (31 अप्रैल 1931)
तथापि उनका लेख अछूत समस्या इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इससे जाति और वर्ण-समस्या पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों की झलक मिलती है। तथापि उनका लेख अछूत समस्या इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इससे जाति और वर्ण-समस्या पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों की झलक मिलती है। “बात बिल्कुल खरी है। लेकिन यह क्योंकि एक मुस्लिम ने कही है, इसलिए हिन्दू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने में शामिल करना चाहते हैं।धर्मांतरण का समर्थन करते हुए उन्होंने लिखा है, “जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जायेंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जायेगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।”  सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भगत सिंह और अंबेडकर के विचार मिलते हैं, लेकिन भगत सिंह के लेखों में, जहां तक मुझे मालुम है, अंबेडकर के कामों का उद्धरण नहीं है। भगत सिंह सामाजिक न्याय को क्रांति का हिस्सा मानते थे, अंबेडकर से स्वतंत्र।  जयभीम-लालसलाम नारे की आज की स्थिति में यही क्रांतिकारी प्रासंगिकता है। यह नारा रोहित बेमुला की संस्थात्मक हत्या के विरोध में सबसे पहले जेयनयू के छात्रों ने दिया था, अंबेडकरवादियों ने नहीं। प्रगतिशील अंबेडकरवादी भी यह नारा दुहराने लगे, शुद्ध अस्मितावादी, अंबेडकरवादी सिर्फ जयभीम लगाते हैं। सामाजिक और आर्थिक न्याय के संघर्षों की एकता से ही मुक्ति संभव है। यदि हमारे वैचारिक पूर्वजों (कम्युनिस्ट पार्टी) ने सामाजिक न्याय के मुद्दे की अहमियत समझा होता तो शायद अंबेडकर उनके साथ होते (क्या होता तो क्या होता की बात वैसे व्यर्थ है, जो हुआ वही हुआ)।

अंबेडकर पूंजीवाद के दलाल नहीं थे, वे हेरॉल्ड लास्की किस्म के प्रगतिशील उदारवादी थे। इंगलैंड (यूरोप) में जन्म आधारित सामाजिक विभाजन नवजागरण और एन्लाइटेनमेंड क्रांतियों के दौरान खत्म हो गया था इसीलिए मार्क्स लिखते हैं कि पूंजीवाद ने समाज को दो खेमों में बांट दिया है। भारत में नवजागरण कबीर के साथ शुरू हुआ लेकिन अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के समय भारत में पूंजीवाद नहीं था, न ही पूंजीवादी सामाजिक संबंध, इसलिए सामाजिक न्याय का मुद्दा प्रमुखता से एजेंडा पर होना चाहिए था, जिसके न होने से आज क्रांतिकारी सामाजिक चेतना के रास्ते में ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद बहुत बड़े स्पीड ब्रेकर्स बने हुए हैं। मार्क्स की मैनिफेस्टो की भाषा की आक्रात्मकता पहले इंटरनेसनल में लचीली हो गयी जिसकी मार्क्स ने व्यापक मोर्चे की जरूरत बताकर एंगेल्स को सफाई दी थी।सच्चाई यह है कि सामाजिक न्याय कम्युनिस्टों के साथ नहीं अंबेडकर से साथ जोड़कर देखा जा ता है, जयभीम-लाल सलाम नारा रणनीतिक रूप से क्रांतिकारी नारा है।च्चाई यह है कि सामाजिक न्याय कम्युनिस्टों के साथ नहीं अंबेडकर से साथ जोड़कर देखा जा ता है, जयभीम-लाल सलाम नारा रणनीतिक रूप से क्रांतिकारी नारा है।एंगेल्स ने ही कुछ बुद्धिजीवियों को फटकारते हुए लिखा था कि मजदूर ही क्राेति करेगा उनकी क्रांति एनलाइटेंड बुद्धिजीवी नहींमार्क्स 1848 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद से लगातार लिखते रहे कि मजदूर अपनी मुक्ति की लड़ाई मजदूर खुद लड़ेगा, लेकिन अपने आप में वर्ग से अपने लिए वर्ग बनने के बाद, यानि वर्गचेतना आत्मसात करने के बाद यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बाद, हमारा मख्य काम वही है।मार्क्स 1848 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद से लगातार लिखते रहे कि मजदूर अपनी मुक्ति की लड़ाई मजदूर खुद लड़ेगा, लेकिन अपने आप में वर्ग से अपने लिए वर्ग बनने के बाद, यानि वर्गचेतना आत्मसात करने के बाद यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बाद, हमारा मख्य काम वही है।

Saturday, December 30, 2017

शिक्षा और ज्ञान 141 (बाबर-राणा सांगा)

Samar Mukherjee बजरंगी पढ़ता नहीं, पढ़ते तो आप भी यह सर्वविदित बात जानते कि राणा सांगा ने बाबर टुच्चे स्वार्थों के लिए दिल्ली सल्तनत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया था। उसे रोकने की कोशिस इब्रािमह लोदी ने किया था, सांगा ने नहीं। जब राणा सांगा पर बाबर ने वायदा खिलाफी के बहाने हमला किया तो बाकी रजवाड़े क्या कर रहे थे? जेनयू एक विचार है जिसे समझने के लिए बाभन से इंसान बनना पड़ता है, यह पोगापंथी, दक्षिणाखोर बाभनों की समझ से परे है। जेयनयू की धरती पर तर्क-विवेक की बयार फैली है, आप वहां हो आइए तो आप भी कठमुल्ले से थोड़ा विवेकशील हो जाएंगे। यह शूरवीरों का ऐसा देश है कि नादिरशाह जैसा दो कौड़ी का चरवाहा दो हजार घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंदता हुआ लूट कर वापस चला जाता है, हमारे शूरवीर अपनी बिलों में छुप कर बैठे रहे।

ब्राह्मणवाद 2

एक पांडे जी ने मेरी एक पोस्ट पर कमेंट किया " aap bar-bar apne ko kyon BABHAN se insan banne ki ghoshna karte hai.Mujhe to shakl-surat, kad- kathi aurbuddhi-vichar se kabhi aap babhan nahi lage aur na hai".

उसपर:

बाभन से इंसान बनना एक रूपक है, जन्म की जीवैज्ञानिक दुर्घना की अस्मिता से ऊपर उठकर एक स्व-अर्जित विवेकसम्मत अस्मिता बनाने का। बाभन से इंसान बनना वैसे ही है जैसे अहिर से इंसान बनना या हिंदू-मुसलमान से इंसान बनना। जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है जिसने समाज को शताब्दियों तक जड़ बनाए रखा। शक्ल और कद-काठी से मूल्यांकन ब्रह्मणवाद में आपका नया योगदान है। संयोग से मैं एक कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में पैदा हो गया जिसमें मेरा कोई योगदान नहीं है, उस पर शर्म-या गर्व करने का मुझे कोई औचित्य नहीं दिखता। इंसानियत ही मेरी जाति-धर्म है, जिस पर मुझे गर्व है।

नवब्राह्मणवाद 33 (अखिलेश यादव)

सही कह रहे हैं आस्ट्रलिया में पढ़ाई कर लेने से सद्बुद्धि नहीं आ जाती नहीं तो अखिलेश हिंदुत्व की बात न करता। पढ़े-लिखे जाहिलों का प्रतिशत अपढ़ जाहिलों से अधिक है। जिस तरह बाभन से इंसान बनना मुश्किल है उसी तरह अहिर से इंसान बनना भी मुश्किल है। इसके बाप जिससे इसे मुख्यमंत्रित्व  विरासत में मिली, पहली बार मुख्यमंत्री बनते ही पहला काम किया था, डालमिया की सेवा में डालमिया सीमेंट के मजदूरों के शांतिपूर्ण आंदोलन को बर्बरता से कुचलने का। मायावती ने काश अंबेडकर पढ़ा होता और नवब्राह्मणवादी न बनती तो 2012 में उसे हटाना मुश्किल होता। साथी ये सब अब अप्रासंगिक हो गए हैं, जयभीम-लाल सलाम नारे को सैद्धांतिक रूप देकर एक नई ताकत की जरूरत है, आप नवजवानों को पहल करनी चाहिए। माया-मुलायम-लालू के पास अंतरदृष्टि होती तो इतिहास अलग होता।

Friday, December 29, 2017

शिक्षा और ज्ञान 141 (सेकुलर साप्रदायिकता)

Jagadishwar Chaturvedi सहमत। देश का दुर्भाग्य है कि दो धुर दक्षिणपंथी, हिंदूतुष्टीरण प्रतिस्पर्धी, साम्राज्यवादी दलाल पार्टियों का आंतरिक और बनावटी अंतर्विरोध, राष्ट्रीय राजनैतिक अंतर्विरोध बन गया है, तीसरा विकल्प राजनैतिक पटल से गायब है, जिसकी जिम्मेदारी कम्युनिस्टों के अकर्म-कुकर्मों की है। सिख नरसंहार के बाद सहानुभूतिक अपार लहर में राहुल गांधी का बाप प्रधानमंत्री बनते ही भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को मस्जिद (राष्ट्रीय, ऐतिहासिक धरोहर) में छल-कपट से रखी मूर्ति के दर्शन के लिए ताला खोल दिया और गेंद भाजपा के पाले में फेंक दिया। उसके गृह मंत्री, विश्व बैंक के दलाल पी चिदंबरम् मेरठ-मलियाना में विरोध प्रदर्शन को बर्बरता से कुचला और वर्दीधारी बजरंगियों से हाशिमपुरा से घरों से उठाकर अमानवीय नरसंहार करवाया। इस प्रतिस्पर्धा में उसे हारना ही था क्योंकि उसके पास स्वयंसेवकों और बजरंगियों जैसे संगठित दंगाई गिरोह नहीं था। कॉमर्सियल पाइलट से राजनेता बने मूर्ख राजीव गांधी ने प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिका में जुटकर आरयसयस के लिए मैदान खुला छोड़ दिया। वही मूर्खता उसका राजनैतिक जाहिल बेटा कर रहा है, मंदिरों की जनेऊधारक यात्राओं के जरिए कर रहा है। राजीव गांधी का सेवक गहलोत 'असली हिंदुत्व' से सांप्रदायिक हिंदुत्व से लड़ने की बेहूदी बातें कर रहा है। आरयसयस ने एजेंड़ सेट कर दिया, सब उसी पर रिऐक्ट कर रहे हैं। और तो और खुद को लोहिया का शिष्य बताने वाले और प्रदेश में यादवी गुंडागर्दी के सरगना मुलायम का आस्ट्रेलियाई हुनर वाला उत्तराधिकारी बेटा भी अपने को हिंदुत्व का असली दावेदार बता रहा है। मुजफ्फरनगर में मुलायम-मोदी के टैसिट गठजोड़ पर हमें तब भी आश्चर्य नहीं हुआ था, अब तो साफ हो गया है। जब मुजफ्फरनगर जल रहा था तो बाप-बेटे सामंती सैफई उत्सव में नाच-गाने करवा रहा था। हाशिमपुरा कत्लेआम के समय गाजियाबाद के यसयसपी रहेविभूति नारायण राय ने सही कहा था कि सरकार चाहे तो कोई भी दंगाआधे घंटे में रोक सकता है। मुजफ्फर नगर तब से अब तक जल रहा है। सारे दंगाई हत्यारे मंत्री-विधायक बने हैं। योगी भीमसेना के प्रमुख पर रासुका लगाता है तो अखिलेश ने मुजफ्फरनगर के नायक संगीत सोम और संजीव बालियान को खुला छोड़ दिया। सरकार की जिम्मेदारी थी कि विस्थापितों को उनके अपने गांव में पुर्स्थापित कर सुरक्षा प्रदान करता, इसने उनसे 5 लाख मुआवजे के बदले अपने गांवों की तरफ दुबारा न देखने का हलफनामा ले रहा था। हम लोगों के होहल्ला करने पर सैद्धांतिक तौर हलफनामा वापस ले लिया, लेकिन व्यवाहरीक तौर पर विस्थापित अब भी अपने गांवों की तरफ नहीं देख सकता क्योंकि उन्हें विस्थापित करने वाले खुल्ला घूम रहे हैं और उनके नेता केंद्र और राज्य में मंत्री, सांसद विधायक बन रोज भड़काऊ भाषण दे रहे हैं, साप्रदायिक जहर उगल रहे हैं। पढ़े-लिखे जाहिलों की जमात राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ रही है। अब तो एक ही विकल्प है, जनता जागे और सड़क से संसद जाम कर दे, लेकिन जनता को जगाने वाली ताकतें या तो सो रही हैं या धर्म की अफीम खाकर आव-बाव बक रही है। धर्म और धार्मिक राष्ट्रवाद के नशे में चूर जनता भगवान के नाम पर सारी मुसीबते झेलते हुए किसी अवतार पुरुष का इंतजार कर रही है। इन मानसिक गुलामों को जगाने और नेतृत्व प्रदान करने वाला कोई स्पार्टकस दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।