Monday, June 30, 2014

प्रकृति के विनाश का विकल्प

चाय बागान का अहोभाग्य
रेणु से मुलाकात का सौभाग्य
यह उन्मुक्त ओ उन्मत्त मुस्कान
प्रकृति को करती और छटावान
नहीं गुमान प्रकृति पर विजय का
हर्ष है साथ उसके सामंजस्य का
यही रहा है सदा से कुदरती नाता
सदैव रही है प्रकृति जीवन दाता
निजाम-ए-ज़र ने बदला विधान
छेड़ दिया है प्रकृति पर घमासान
किया कुदरती रिश्ते को लहूलुहान
बनाता है उस पर धन की सीढ़ियां
भाड़ में जायें अगली पीढ़ियां
होंगी वे भी तो धरती की ही संतान
उन्हें भी चाहिए प्रकृति का वरदान
आइए लेते हैं आज यह संकल्प
ढूंढ़ेंगे प्रकृति के विनाश का विकल्प
(ईमिः01.07.2014)

लल्ला पुराण 161 (गज़ल)

 जंग-ए-आज़ादी में शहीद ही नहीं ग़ाज़ी भी होते है. पैकेजिंग की पेटेंटिंग नहीं हुई है. और ग़ज़ल के विद्रोह का तेवर ग़ालिब और मीर में दिखता है जो मजाज़ , फैज़, इब्ने इंशां, दुष्यंत कुमार, गोरख पांडेय और अदम की गज़लों में रवानगी हासिल करता है. दूल्हन अब पालकी में नहीं, खुद चलाकर कार में जाती है.

यार हार-जीत की कोई बात नहीं है, बस तफरीः में तुकबंदी हो गयी. गजल पालकी नहीं है और न क्रांति लाश है. मासूक के ज़लवे में कब तक फंसी रहेगी ग़ज़ल, अब वह मुफलिस की जवानी और बेवा के सबाब से भी मुखातिब होने लगी. "सर सर को सबा जुल्मत को जिया बंदे का खुदा अब क्या लिखना/दीवार को दर, पत्थर को गुहर, करगज को हुमा अब क्या लिखना/की हमने इन्ही की ग़मखारी, लोगों पर हमने जां वारी, होते हैं तो हो लें हाथ कलम शायर न बनेगा दरबारी/........  " (हबीब जालिब) मैंने नहीं कहा गज़ल माशूक के जल्वे न लिखे, लेकिन मजलूम की भूख और बेवा के सबाब के हाल लेने या लोगों की ग़मखारी से क्यों रोकते हैं उसे?

Chandra Bhushan Mishra माना कि ग़ज़ल की शुरुआत दरबारी मनोरंजन के साधन के रूप में हुई और फनकार दरबारी कृपा के लिए शराब-ओ-सबाब पर फन वारते रहे, औरत की अवधारणा को माशूकियत के जल्वों में कैद कर शासकों का दिल बहलाते रहे, जनता को जगाने का चलन जो न था. कई बार अनचाहे परिणाम (इनऐडवर्टेंट कान्सीक्वेंसेज़) लक्ष्य से अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं. गज़ल जैसी समृद्ध और अनंत संभावनाओं की विधा को महबूब की जुल्फों कैद रखना असंभव था और वर्जनाओं तथा प्रतिबंधों को तोड़ते हुए निकल पड़ी "वतन के लोगों को जगाने" और "पहुंच गये शहर के सारे ज़रदार थाने" (हबीब जालिब). माशूक जल्वे वाले कितने शायर याद हैं इतिहास को? है कोई मीर, मज़ाज, फैज़, शाहिर,...., दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, इब्ने इंशां, हबीब जालिब, गोरख पांडेय, अदम गोंडवी.....?
“एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल,
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल.
दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम,
शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल” (अदम गोंडवी)
Arun Kumar Singh  सही कह रहे हैं भक्तिकाल के कवियों ने रीतिकालीन काव्यविधा को जनसरोकारों के साथ जोड़ मतलब ही उलट दिया. अंतरात्मा एवं विवेक तथा भाव और विचारधारा (वैचारिक समझ) दोनों द्वंद्वात्मक एकता के बंधन में होते हैं और पारस्परिक सहायक की भूमिका निभाते हैं. कई खूबसूरत ग़जलों-शेरों का इस्तेमाल नारे के रूप में भी होता है. “..... कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो/सर भी बहुत बाजू भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पर ही डाले जायेंगे” (फैज).

Sunday, June 29, 2014

पल पल बदलती हो तुम बार बार

पल पल बदलती हो तुम बार बार
बदले स्वरूपों का मगर साश्वत है सार
चकित हिरणी सी आंखों में असीम प्यार
भले ही दिखें करती तीक्ष्ण सरवार
पक्व-बिंब से अधरों का गतिविज्ञान
बिखेरता प्रासंगिक गूढ़ मुस्कान
यहीं तक रोकता हूं फिलहाल कलम
आगे का वर्णन अभी बना रहे भरम
(ईमिः30.06.2014)

DU 17(Education and Knowledge 7)

वही विद्वान (दिवि के एसी-ईसी सदस्य) जो आंख बंद कर यवाईफयूपी पर अंगूठा लगाये उन्होने ही गुण-दोष पर चर्चा के बिना इसकी विदायी पर अंगूठा लगा दिया. इन्हें चेखव की कहानी गिरगिट पढ़ना चाहिए, ऐसे गुलाम-मानसिकता के लोग विद्या के संरक्षक, संचालक हैं जब कि उक्ति है, सा विद्या या विमुक्तये. साहब ने कहा सकार, स्कारस्कार से प्रतिध्वनित हुआ दरबार, फिर साहब ने बदला अंदाज बोला नकार, सुनाई दी प्रतिध्वनि न्कार न्कार....... इन प्रोफेसरों और प्रिंसिपलों का पर्दाफास और बहिष्कार होना चाहिए.

DU 16 (Education and Knowledge 6)

A casteist like the VC, Dinesh Singh, cant be a mathematician. Primordial axioms are in contradiction with mathematical theorems. A casteist mathematician is contradiction in terms.  Anyone having a degree in mathematics does not become a mathematician. I fondly remember with a sense of agreement, my high school maths' teacher's first statement in the class, "mathematics is that branch of knowledge, which trains our mind for clear thinking and reasoning." Unfortunately, under the existing scheme of teaching  Science/ maths (This equally applies to other disciplines too) are very mechanically taught and instead of imparting scientific/mathematical knowledge and temperament, it equips students with information and skill to maintain the statuesque. Happenings otherwise are not due to but despite it.

Saturday, June 28, 2014

ग़ाीफिल की एक ग़ज़ल परः

ग़ाीफिल की एक ग़ज़ल परः

शुक्रिया किस बात का गाफिल
ये तो है खानाबदोश महफिल
हवा ने दरवाजा खटकाया होगा
लगा कोई मेहमान आया होगा
देगा क्यों कोई आपको आवाज़
है जो माशूकी जल्वे का मोहताज
सराब-ओ-सबाब पर फन वारा
बनना चाहते हो मशीहा आवारा
रेगिस्तान में मोती की तलाश
करेगी ही मन-मानस को हताश
चाहते हो ग़र मोती तलाशना
सीखना होगा गहरे समुद्र में तैरना
शराब-ओ-सबाब पर है ग़ज़ल वारी
क्यों करेंगे लोग आपकी ग़मखा़री
चाहते हैं गर लोग दें आपको आवाज़
ग़म-ए-जहां से बुनिए ग़ज़ल की साज
(हा हा ग़ाफिल साहब, दिल पर न लें, गफ़लत में स्वस्फूर्त तुकबंदी हो गयी)
(ईमिः 29.06.2014)

जब तुम बोलती हो इंकिलाब

जब तुम बोलती हो इंकिलाब
बौखला जाता है मर्दवाद
(ईमिः29.06.2014)

DU 16 (Education and knowledge 5)

"Job fixing" on the basis of extra-academic considerations (academic competence being the added qualification) in the Indian universities" has been an unfortunate universal phenomenon. To me being a teacher is really very important and feel fortunate to be a teacher,    notwithstanding the curtailed tenure. In capitalism, we all, being freed from the means of labor, are "condemned" to do alienated labor for survival.  Teaching is one job in which one can minimize the alienation (if one wishes to) and marginally make for activism. Therefore my plea to colleagues in the teaching community is to realize the importance of being a teacher, irrespective of the "fixed" process of the selection.I never had any 2nd job priority. If even half of us do that, we can change the world. When Kautilya of Texila University had tol the Magadh emperor, Nanda that teachers create kings, he did not mean it just to be a metaphor.

DU 15 (Education and Knowledge 4)

She seems to have gone insane. Madhu Kishwar's support for Sibal's man, DU VC, Dinesh Singh seems to be emanating from her sense of dejection due to being overlooked by the new establishment under the PMship of Modi who may or may not  have read Machiavelli, but seems to have imbibed some of the advices given to a prudent king and if Machiavelli had to choose a living model for his Prince from contemporary India, Modi would have replaced Ceaser Borgias (subsequently pope Alexander VI). One of the advices to the Prince establishing the state by conquest through others' arms is how to deal with the Vth column, expecting high rewards, who consider themselves to be the king makers. He tells the prince, just to ignore them. They have no where to go. There are several strata of this category in the present case. One of them is represented by likes of Madhu ji, who after singing eulogy of Modi for years now, from the "secular feminist" position, was expecting big ounce of the flesh, but didn't get even the small one.

Friday, June 27, 2014

DU 14

Kumud Ranjan Singh वैसे आपके सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं थी, लेकिन मायूस न हों दे देता हूं. पहली बात, बुढ़ा़पा होगा आपका. बुढ़ापा उम्र से नहीं युवा सोच और संघर्ष के जज़्बे की कमी से आता है. मैं एक उम्रदराज़ युवक हूं. युवा उम्र की तमाम ज़िंदा लाशें भटकती दिखती रहती है, जान भी आती है तो तो कुर्सी की वफा में. दूसरी बात,मुझे कैसे दुर्घटनाबस उस उम्र में (सेवा-निवृत्तिकी आयु 65 साल होने के चलते चाहूं तो उसके एक दिन पहले स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति की अर्जी दे सकता हूं ) कैसे नौकरी मिल गयी का जवाब इसी मंच पर किसी के ऐसे ही सवाल के जवाब में दे चुका हूं, ब्लॉग से खोजने की कोशिस करता हूं, नहीं तो फिर से बहस के लिए लिख कर पेस्ट करता हूं. बस इतना बता दूं कि जुगाड़ या कृपा से नौकरी लेना होता तो कम-से-कम 15 साल पहले मिल जाती. 4 साल एक ऐसे कुलपति थे जिनके बेटी-बेटा मेरे करीबी दोस्त थे. और अगर तेवर थोड़ा नर्म कर लेता तो कम-से-कम 10 साल पहले. बिना नौकरी के भी यही तेवर थे. और तीसरी बात मेरी नौकरी एढॉक से नहीं रेगुलराइज हुई. मुझे कभी कोई एढॉक नौकरी कभी मिली ही नहीं और नियमित का इंटरविव मजाक बन जाता है क्योंकि उस पद पर पहले से कोई स्वाभाविक दावेदार पढ़ा रहा होता है. अपवाद नियम की पुष्टि ही करते हैं. वरिष्ठ लोग जानते हैं कि पहले विभाग इंटरविव करके 30 का एढॉक पैनल बनाता था, मेरा नाम पैनल में हमेशा काफी ऊपर होता था. एक बार तो ऐसा हुआ कि पैनल में सिर्फ मेरा नाम बचा था. प्रिंसिपल ने पैनल से बाहर से किसी को रख लिया और बोला जिसे रखा है वह उसके चाचा का लड़का तो नहीं है, अब मुझे तो मालुम नहीं उसके कितने चाचा-बाप थे. दुबारा सिर्फ मेरा और राजेंद्र दयाल के नाम बचे थे भ्रष्ट विभागाध्यक्ष ने पैनल से बाहर किसी का नाम भेज दिया, पूछने पर नतीजे भुगतने की धमकी देने लगा. अगर आप राजनीतिशास्त्र के वरिष्ठ शिक्षक राजेंद्र दयाल को जानते हों तो उन्हें उस हेड के साथ संवाद के बारे में पूछ सकते हैं, 25 साल से ज्यादा पुरानी बात है. मुझे देर से नौकरी मिलने की शिकायत नहीं है, बल्कि सौभाग्यशाली मानता हूं कि देर से ही सही मिल कैसे गयी, वैसे नौकरियां में मेरी कभी दूसरी प्राथमिकता नहीं रही. अंत में थोड़ी अपनी तारीफ और कर दूं, मेरे स्टूडेंट्स मुझे बहुत अच्छा टीचर मानते हैं और यह कि मेरा पहला (and the best researched as yet) पेपर 1987 में छपा था जो कि नारी-समस्या और सांप्रदायिकता पर पहला काम था और गूगल पर देख रहा था तो पाया कि नम्बूदरीपाद और तनिका सरकार समेत की लेखकों ने उद्धृत किया है.

रेगिस्तान में भी मोती

हम तो लेते तलाश रेगिस्तान में भी मोती
दुस्साहसी मिशाल की ग़र बात न होती
(ईमिः27.06.2014)

Thursday, June 26, 2014

DU 13 (FYUP)

Forget  about urgency and hurry with which FYUP courses were desiogned, even the semester courses were framed by HoDs and their obedient "scholar-teaches" with the same hurry without application of mind. In Political Science, we have an optional course, 'Political Economy & Society' with 2 not unrelated section. That was revised for the annual system as 'Contemporary Political Economy' for annual system, applied only to 2 batches -- 2012&13. Whether the topics included are all justified in conformity with the name of the course or not can be debated, it was a quite a big course to be completed only with extended classes.  The same course, as it was, has been moved to one semester.

Wednesday, June 25, 2014

गरीब की हंसी

नहीं है गरीब की हंसी
निशानी उसके चेहरे पर दौलत की
बयान-ए-यक़ीन है ये
नामाकूल में जीने की कुव्वत की
यह हंसी खोजती है
नामाकूल के माकूल में तब्दीली की राह
इस हंसी के हवाले से
अमीर करता जन जन को गुमराह
कहता फिरता है
नहीं गरीब को धनदौलत की चाह
गरीब की इस हंसी में
छिपी है एक और संगीन बात
समझने लगा है
वह अब अमीरों की फरेबी खुराफात
यह हंसी भविष्यवाणी है
छेड़ेगा वह फैसलाकुन जंग गरीबी के खिलाफ
श्रम की शर्त पर
कर देगा परजीवी अमीरों को मॉफ
(ईमिः26.06.2014)

क्षणिकाएं 26 (471-482)



471
रवायतें कर नहीं पायेंगी  नज़र-ए-ज़िंदां अब आज़ादी
कर्णकटु लगने लगी है पुरानपंथ की बेअसर मुनादी
सर पर बोझ हैं परंपराएं बाबा आदम के लाशों की
पांवों में जड़ती हैं बेड़ियां वर्जनाओं और निषेधों की
भड़काती हैं समाज में भेड़चाल दे दुहाई संस्कारों की
सलामत रहें जिससे गद्दियां सभी सरमायेदारों की
बनाती हैं तोते और उनके पिजड़े ज्ञान के सलाखों की
पंडित की पोथी जिससे गढ़ती रहे किस्मत लाखों की
चली है अब तो दुनियां में सवालों की एक नई बयार
साबित करो तभी ये बच्चे मानेंगे कोई विचार
टूटेंगी ही अंध-आस्था की रवायतों की रूढ़ियां
नई रीतियां गढ़ेंगी हमारी हर अगली पीढ़ियां.
(ईमिः17.06.2014)
472
नहीं बुझने देंगे आंखो के ये दिये
करेंगे इन्हें रोशन जनवाद के तेल से
फूंकेंगे जान बुतखाने की हसीं यादों में
जम्हूरी दिल-ओ-दिमाग के मेल से
लहराते हुए हाथ चलेगी जब हर लाश
दिये गुल करने वालों का होगा सत्यानाश
फिर इक दिन आयेगा जनवादी जनसैलाब
जम्हूरियत के दुश्मनों को कर देगा बेआब
नहीं बुझेंगे आंखों के दिये तब कभी
अमन-ओ-चैन से जियेंगे हम सभी
(ईमिः18.06.2014)
473
कायरतापूर्ण पलायन है चयन मरने का
और नहीं है जीवनेतर उद्देश्य जीने का
खुद एक उद्देश्य है जीना एक अच्छी ज़िंदगी
न करो किसी पर कृपा न किसी की बंदगी
भरना है सूखी आंखों में उम्मीदों का आब
देखना है इनको इक नई दुनिया का ख़्वाब
उतारना है धरती पर एक अनोखा आफ़ताब
उमड़ते दिखेंगे कितने जनवादी जनसैलाब
सीख लो मुश्किलों को बनाना आसान
मानना प्रतिकूल को बदले भेष में बरदान
झूम पड़ेंगे खुशी से ये वीरान बियाबान
बेजान में आ जायेगी एक नई जान
(ईमिः18.06.2014)
474
इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
लगता है हो जैसे कोई अादिम प्रदेश
यह प्रोफेसरों की जागीरदारी का नतीजा है
कोई बेटा-बेटी तो कोई गोद लिया भतीजा है
धर्मपिताओं की है यहां एक परंपरा महान
धर्मपुत्र-पुत्रियों में फूंकता जो अनूठा ज्ञान
डिग्री मिलते ही बन जाते हैं अद्भुत विद्वान
लेता है धर्मपिता इस दुर्घटना का संज्ञान
करता है अगली पीढ़ी के ज्ञान का निदान
धर्मपुत्र होत हैं बाहुबल में भी कम नहीं
कहते रहिए लंपट इन्हें कोई ग़म नहीं.
(ईमिः20.06.2014)
475
खूबसूरती के संज्ञान पर हुई जो तुम शुक्रगुजार
हुई तुम्हारी तस्वीर पर एक उड़ती कविता उधार
यह तो था अभी महज कविता का वायदा
अभी भरना है तस्वीर में विप्लव का इरादा
उन्मुक्त दुपट्टे की गगनचुंबी मस्ती भरी उड़ान
आंखों की बेपरवाही में झलकता मर्मज्ञ तूफान
विश्वस्त मुस्कान दर्शाती इसके ऊंचे अरमान
कि वर्जनाओं की मिटा देगी नाम-ओ-निशान
(ईमिः 21.06.2014)
476
भूल जायेंगे लोग कखग की कवितायें
क्योंकि वे एक लड़की से प्यार की कवितायें है
और याद रखेंगे मेरी
क्योंकि वे जहां से प्यार की कवितायें है
शामिल है जिसमें माशूक का भी प्यार
सलाम तुम्हारे जज्बे और इश्क-ए-उसूल को
(ईमिः21.06.2014)
477
बेकरारी-ए-इंक़िलाब है इन झुकी झुकी नजरों में
ख़्वाब-ए-इंसाफ है रास्ते टोहती  इन नज़रो में
(ईमिः21.06.2014)
478
उलझी है भंगिमा घनाच्छादित बालों में
खोयी है य़े किन्ही संजीदा खयालों में
(ईमिः21.06.2014)
479
दिल हल्का हो जाता है निचुड़ जाने से आंखो का पानी
वाष्प बन जाता है वह तप कर यादों की धूप में
बादल बन बरस कर कर देता है हरा भरा उपवन
480
सोचता है वह खुद को इतिहास का सिकंदर
चाहता ऱखना दुनिया जो जूते की नोंक पर
की थी उसने यूनानी नगर-राज्यों से शुरुआत
किया बर्बर लूट-पाट और भीषण रक्तपात
रौंदा  घोड़ों की टापों से दर्शन की परंपराओं को
और जनतांत्रिक संविधानों की ऋचाओं को
पढ़ता नहीं तानाशाह ढंग से इतिहास
होता है हर सिकंदर का वीभत्स विनाश
बढ़ता रहा आगे करते अभूतपूर्व जनसंहार
सोचा उसने करने को जब रावी नदी पार
मालुम हुआ उसे मगध की सेना का आकार
हार गयी हिम्मत और टूट गया अहंकार
टूटता है जब किसी अहंकारी का अहंकार
हो जाता है वह मनोविकार का शिकार
खंडित हुई जब विश्वविजय की अभिलाषा
छा गई उस पर जिजीविषा की निराशा
लौटा वापस वह लश्कर-ए-मातम के साथ
पड़ गया हिंदुकुश के कबीलों के हाथ
बनना चाहता था वो दुनियां का लंबरदार
कर न पाया सिकंदर 25 साल भी पार
मिल गया हिंदुकश की पहाड़ियों की खाक में
था जो दुनिया पर राज करने की फिराक़ में
हो गया उसके साम्राज्य का सत्यानाश
करके यूनानी सभ्यता के गौरव का नाश
देता था जिसकी मिसाल इतिहास
शीघ्र ही बन गया रोम का दास
सीखना है हमको इतिहास से
बचाना है मुल्क संभावित विनाश से
(ईमिः22.06.2014)
481
नेता की भितरघात तो समझ आती है
खुली खुशामद करे, ये तो हद है
बदनामी छिपाना तो समझ आता है
उसका डंका कोई पीटे ये तो हद है
शिक्षक का न पढ़ाना समझ आता है
कुज्ञान की फसल उगाये ये तो हद है
मालिक की वफादारी तो समझ आती है
अपना ही गांव जला दे, ये तो हद है
मालिक की मुसीबत से मायूस होना समझ आता है
उसके लिए जान दे दे ये तो हद है
ख़ुदगर्जी में सर नवाना तो समझ आता है
कोई साष्टांग करे ये तो हद है
(ईमिः24.06.2014)
482
अगली मंजिल
मंजिलें और भी हैं इस मंजिल से आगे
जोड़ना है इन सभी मंजिलों के धागे
रहती अगली मंजिल की सदा हसरत
बढ़ते ही जाने की है मेरी फितरत
एथेंस में करता सुकरात सी चहल
कारों के बेदर्द शहर में गाता ग़ज़ल
हमसफर हाजी कहते मुझे बुतपरस्त
खैय्याम कहते हूं हाजी जबरदस्त
लड़ते बढ़ते बस चलता जाता हूं
पहुंच मंजिल पे थोड़ा सुस्ताता हूं
खत्म नहीं होता सफर पाकर मंजिल
अगली फिर अगली का करता है दिल
(ईमिः 26.06.2014)










अगली मंजिल

मंजिलें और भी हैं इस मंजिल से आगे
जोड़ना है इन सभी मंजिलों के धागे
रहती अगली मंजिल की सदा हसरत
बढ़ते ही जाने की है मेरी फितरत
एथेंस में करता सुकरात सी चहल
कारों के बेदर्द शहर में गाता ग़ज़ल
हमसफर हाजी कहते मुझे बुतपरस्त
खैय्याम कहते हूं हाजी जबरदस्त
लड़ते बढ़ते बस चलता जाता हूं
पहुंच मंजिल पे थोड़ा सुस्ताता हूं
खत्म नहीं होता सफर पाकर मंजिल
अगली फिर अगली का करता है दिल
(ईमिः 26.06.2014)

Tuesday, June 24, 2014

ईश्वर और नास्तिक 2

भारत में भगवानों की भीड़ देख मैं भी कभी सोचता हूं कि सांई बाबा या रजनीश की तरह भगवान ही क्यों न बन जाऊं. लेकिन ............ आप लोग मेरे बारे में भी यही सब कहेंगे जे इन बेचारे शंकरों और सांइयों के बारे में कहते हैं और फरेब भूलकर कहीं ऐतिहासिक भौतिकवाद पर प्रवचन करने लगूं तथा बाकी भगवानों के साथ अपनी भी पोल-पट्टी न खोल दूं और भक्त गण नक्सल घुसपैठिया समझ लें, इसीलिए विचार बदल देता हूं. वैसे मेरे दादा जी ने भगवानत्व की संभावनाएं देखकर ही मेरा नाम ईश रखा होगा, लेकिन ऊ ईश ही कैसा जो किसी और ईश को घास डाले और ई इशवा त 17 साल तक पहुंचत-पहुंचत नास्तिक बनकर दादा जी की आशाओं पर पानी फेर दिया. लेकिन अगर दुनियां की जनता ने आग्रह किया तो मैं अपने फैसले पर पुनर्विचार कर सकता हूं.

ये तो हद है


नेता की भितरघात तो समझ आती है
खुली खुशामद करे, ये तो हद है
बदनामी छिपाना तो समझ आता है
उसका डंका कोई पीटे ये तो हद है
शिक्षक का न पढ़ाना समझ आता है
कुज्ञान की फसल उगाये ये तो हद है
मालिक की वफादारी तो समझ आती है
अपना ही गांव जला दे, ये तो हद है
मालिक की मुसीबत से मायूस होना समझ आता है
उसके लिए जान दे दे ये तो हद है
ख़ुदगर्जी में सर नवाना तो समझ आता है
कोई साष्टांग करे ये तो हद है
(ईमिः24.06.2014)

Monday, June 23, 2014

Marxism 5

At the time of revolution, Russia was almost a non-capitalist country and with the planned development, within 15 years it left behind the centuries old industrial development of the developed capitalist countries. Had it not been surrounded by imperialist aggression and threat from all sides and not exp[ended so much energy and resources into military build up to quell these threats and dangers and that was channelized in socialist reconstruction, things would be still different.

DU 12 (FYUP)

Friends from Allahabad University say that Dinesh Singh's father UN Singh, equally casteist, had tried to impose FYUP when he was VC there and was forced by students protest to roll back. Like a worthy son he wanted to fulfill unfulfilled desires of the father and alas! UGC had to interfere, but nevertheless would meet the father's fate. He should have resigned by now, if had some dignity.

This (DU, FYUP) issue is being debated among some Allahabad University students and someone cited that UN Singh had also made such an effort in AU and was defeated. I just mentioned it to point that he has inherited FYUP mania and also atmosphere of growing up certainly influences the shaping of one's mindset. according to friends from AU, like the son, he too indulged in casteism and sided with one of the caste based teachers lobbies.

Anti-Emergency Day

PUCL, C.F.D., JANHASTAKSSHEP,
THE AMIYA & B.G.RAO FOUNDATION

ANTI- EMERGENCY DAY :  26TH JUNE:
                     NEW DANGERS
Dear friends,
 Every year we observe 25th /26th June as Anti-Emergency Day to  remember those dark days when internal emergency was imposed in the country on the mid-night of 25th/26th June 1975 which continued for 19 months.  Fundamental rights were suspended, press was gagged, voice of dissent throttled and more than one lakh opposition leaders and  critics were detained without trial. Dictatorship was in full swing. Supreme Court, the highest seat of justice,  ruled  that even if a policeman  shot dead  a citizen without any cause - or even  with malafide  intention, the victim had no avenue of redress.         
        On this day we also take stock of the prevailing  situation to  see as to what extent human rights are secure and what should be done to check the growing  authoritarian tendencies in the governmental set up. At present the attack on the rights of the minorities, dalits, tribals, human right activists and other people’s rights organizations are on increase in spite of the change of the government at the Centre. Unlawful Activities (Prevention) Act i.e. UAPA  was amended last year to include threat to ‘economic security’ within the definition of the ‘terrorist act’  and  thereafter  the I.B. has dutifully  brought out a report listing organizations which are posing threats to the ‘economy ’ of India. Around 150 Maruti workers still languish in jail for the last two and half years which basically is a labour-management dispute in which around 2500 workers were rendered jobless and their families on starvation. News of large scale retrenchments are pouring in. Such instances are only tip of the iceberg. 

          Public Meeting at 5.30 PM, Thursday, 26th June, 2014
          Venue :  Gandhi Peace Foundation, 223, Deen Dayal Upadhyay Marg,
          New Delhi-110002

Speakers include Justice Rajinder Sachar(Retd.), Shri Kuldip Nayar, Shri Ravikiran Jain, Dr.Aparna, Shri Ashok Panda, Ish Mishra & others.

               All are welcome to Participate

P.U.C.L., Citizens For Democracy, Janhastkshep,
The Amiya & B.G.Rao Foundation
(M) 9811099532,   27850073

Sunday, June 22, 2014

DU 11

Savita Jha Khan My dear young friend, I will reply to it in details, I stll hold that united we stand stronger and no one would have stopped you from coming into the tent and raise your voice. I am opposed to any kind of barricading that were erected on the orders of the VC, who has otherwise also turned the campus into Police camps and has introduced the bouncer culture. I wish we were united and strong to break the barricades. Rulers always adopt the tactic of divide and rule and find people ready to be lured for ignominious gains. I am quite hopeful that we shall in near future shall fight unitedly and shall be strong enough to break the barricades and rally inside, not fight among ourselves outside the gate. Not filling the posts for so long is a deliberate ploy of authoritarian and hence insecure administration to keep a sizable number "insecure" to silence their voices in dissent and blackmail them into assent. I am an advocate of partisanship in society and social sciences, partisanship towards the rights and interests of the "wretched of the earth" -- the disadvantaged; deprived; discriminated and the oppressed -- within the limits of my ability to comprehend and consciousness, ever eager to cross and expand. Objectivity is an illusion created by the vested interests of the statuesque. I wanted to express my views on prolonged adhocism, some other time.

No rhetoric, gave them up by the late teenage along with other things by deciding to defy the norms of civility that introduces duality. One wants to look what one is not, that proved to be costly, but you do not get anything for free.

ha ha perfection of a misanthrope. thanks for the complements anyway. I really do not debate for debate sake, to score a point, I have none to.I am not member or supporter of any teachers' group at the time, rather for quite some time. They do not hold me in high esteem either. My stand is always based on issue.

Savita Jha Khan  This is unrelated to this thread. I do not only appreciate dissenting voices but also invoke, provoke, promote, encourage and love them, as they and articulation of differences are becoming rarity. The spirit of dissent/rebellion is a virtue, the dimension and content of which continue to change and at times changes are so gradual that we do not realize. I have many interesting experiences as a teacher must not preach but teach by example. (Same is true of the parents). I fondly remember some of my students who at one time or the other asked me uncomfortable questions. 

Saturday, June 21, 2014

इतिहास का सिकंदर

सोचता है वह खुद को इतिहास का सिकंदर
चाहता ऱखना दुनिया जो जूते की नोंक पर
की थी उसने यूनानी नगर-राज्यों से शुरुआत
किया बर्बर लूट-पाट और भीषण रक्तपात
रौंदा  घोड़ों की टापों से दर्शन की परंपराओं को
और जनतांत्रिक संविधानों की ऋचाओं को
पढ़ता नहीं तानाशाह ढंग से इतिहास
होता है हर सिकंदर का वीभत्स विनाश
बढ़ता रहा आगे करते अभूतपूर्व जनसंहार
सोचा उसने करने को जब रावी नदी पार
मालुम हुआ उसे मगध की सेना का आकार
हार गयी हिम्मत और टूट गया अहंकार
टूटता है जब किसी अहंकारी का अहंकार
हो जाता है वह मनोविकार का शिकार
खंडित हुई जब विश्वविजय की अभिलाषा
छा गई उस पर जिजीविषा की निराशा
लौटा वापस वह लश्कर-ए-मातम के साथ
पड़ गया हिंदुकुश के कबीलों के हाथ
बनना चाहता था वो दुनियां का लंबरदार
कर न पाया सिकंदर 25 साल भी पार
मिल गया हिंदुकश की पहाड़ियों की खाक में
था जो दुनिया पर राज करने की फिराक़ में
हो गया उसके साम्राज्य का सत्यानाश
करके यूनानी सभ्यता के गौरव का नाश
देता था जिसकी मिसाल इतिहास
शीघ्र ही बन गया रोम का दास
सीखना है हमको इतिहास से
बचाना है मुल्क संभावित विनाश से
(ईमिः22.06.2014)

DU 10

दिवि के ये जातिवादी-सामंती-दरबारी कुलपति, दिनेश सिंह दिवि के इतिहास में सर्वाधिक घृणास्पद कुलपति के रूप  जो सारे नियम-कानून ताक पर रख कर, भ्रष्टाचार की खुली हिमायत करने वाले पूर्व मंत्री, कपिल सिब्बल की कृपा और मिलीभगत से विवि का कारपोटीकरण करने की कवायत शुरू किया. चारवर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम उसी का हिस्सा है. सीबीयससी बच्चों को तोता और भेड़ बनाने का कार्यक्रम चलाती है. 95-98% लेकर आने वाले बच्चों की समझ ही नहीं उनके सहजबोध पर भी तरस आता है, लेकिन बच्चों का क्या कसूर? कॉलेज में दिमाग को सक्रियता का थोड़ा अवसर मिलता था, उसे खत्म करने कि लिए दिवि ने उन्हें बोझ ढोने के गधे बनाने का 4वर्षीय कार्यक्रम लागू कर दिया. परीक्षा-मूल्यांकन के मजाक पर फिर कभी, अभी इतना ही कि कुछ साल पहले, सेमेस्टर सिस्टम जब थोपा गया तो उसकी सफलता दर्शाने के लिए माडरेसन कमेटी ने सभी के 20 अंक बढ़ा दिए नतीजतन एक स्टूडेंट को 100 में 104 अंक मिल गये, अखबारों में भी आया था.

लल्लापुराण 160 (रेल भाड़ा)

Arun Kumar Singh   दूसरे प्रश्न यानि रेल के निजीकरण की संभावना नहीं है. देखते रहिए आगे-आगे. शपथ लेने के पहले ही सबसे मलाईदार सेक्टर-- रक्षा-- को  विदेशी निवेश के हवाले करने की बात कर दी, रेल के घाटे का शगूफा इसीलिए छोड़ा जा रहा है कि उसका निजीकरण किया जा सके. कैटरिंग के निजाकरण से प्लेटफॉर्म से सेरे रेड़ी वालों को ठेकेदार के दबाव में जबरन भगा दिया गया. यात्री रेल का मंहगा-घटिया खाना खाने को अभिशप्त हैं और गरीब आदमी मुंह बांधे यात्रा करता है, देश भर में लाखों का रोजगार छिनना अलग. अभी से रेल के निजीकरण के विरोध के लिए कमर कस लीजिए क्योंकि जिन थैलीशाहों ने मोदी के छविनिर्माण और उड़नखटोले में घुमाकर बकवास सुनवाने में जारों करोड़ खर्च किया है उन्हें सूद समेत वसूलना ङी तो है. गुजरात तो पहले ही लुटा चुके हैं अब रेल से शुरू करके देश बेचने की बारी है. अभी तो रेल किराये और डीजल मूल्यवृद्धि से होने वाली मंहगाई का झटका झेलिए. हम आप तो झेल ले जायेंगे लेकिन मोंटेक की गरीबी रेखा का क्या होगा.

आंखो का पानी

दिल हल्का हो जाता है निचुड़ जाने से आंखो का पानी
वाष्प बन जाता है वह तप कर यादों की धूप में
बादल बन बरस कर कर देता है हरा भरा उपवन

उलझी है भंगिमा घनाच्छादित बालों में

उलझी है भंगिमा घनाच्छादित बालों में
खोयी है य़े किन्ही संजीदा खयालों में
(ईमिः21.06.2014)

लल्ला पुराण 159

T.n. Tiwari आप को किसी वामपंथी ने कभी गाली दिया क्या? अगर आपको कह दूं कि आप अफवाहों और पूर्वाग्रहों पर आधारित ज्ञान पर फतवानुमा वक्तव्य देते हैं तो आप इसे गाली समझ लेंगे. आप वामपंथ के बारे में क्या और किन श्रोतों से जानते हैं? आपके कौव्वा-तीतर कहने से मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता आपके भाषाबोध का ही खुलासा होता है. चीन के बारे में कुछ और पढ़ने की बात तो छोड़िए आप अखबारी ज्ञान भी नहीं रखते, लगता है दैनिक जागरण से ही चक्षु संतृप्त कर लेते हैं. आपकी संक्षिप्त जानकारी के लिए बता दूं कि माओ की मौत के बाद से ही चीन का पूंजीवादीकरण शुरू हो गया था. 1989 में प्रक्रिया का चरम तक पहुंचते पहुंचते इसके विरुद्ध छात्रों के समाजवादी आजादी के आंदोलन की पूंवादी चीनी राज्य की टैंकों ने कुचला. इगली क्रांति की प्रतीक्षा है.  अगर आप कुछ पढ़ते तो आपके मालुम होता कि वामपंथ के पास पूंजीवाद का निटोजित विकल्प हैः श्रम के फल पर श्रमिक का अधिकार यानि उत्पादन साधनों औरसमाज संसाधनों पर निजी स्वामित्व समाप्त कर सामाजिक स्वामित्व की स्थापना जो कि आज नहीं तो कल अवश्यंभावी है. जिसके लिए जनवादी जनचेतना की जरूरत है जिसके लिए जरूरी है कि हमारे आप जैसे अपेक्षाकृत सुविधा-संपन्न श्रमिक शासक होने की खुशफहमी से मुक्त होकर इस तथ्य को पहचानें कि श्रम ही जीवन की आत्मा है. लेकिन अगर आप अंबानी के उड़न खटोले पर घूमेंगे तो कृष्णा बेसिन उसे देकर, गैस के दाम बढ़ाकर श्रमिक के पेट पर लात मारेंगे ही, रेल अपुने कारपोरेटी आकाओं को औने-पौने दाम में बेचेंगे ही और उनकी झंझट कम करने के लिए किराया बढ़ायेंगे ही. सांप्रदायिक उन्माद के ओपेन एजेंडा के पीछे मुल्क कारपोरेटों को बेचने का हिडेन एजेंडा है. अगर मेरी बात बुरी लगे तो मॉफ कीजिएगा. दर-असल सत्यम् ब्रूयात वाले श्लोक की दूसरी लाइन मैंने पढ़ा ही नहीं. मित्र कुछ पढ़िए और दिमाग का इस्तेमाल करिए तब सार्थक विमर्श हो सकता है.

बेकरारी-ए-इंक़िलाब है इन झुकी झुकी नजरों में

बेकरारी-ए-इंक़िलाब है इन झुकी झुकी नजरों में
ख़्वाब-ए-इंसाफ है रास्ते टोहती  इन नज़रो में
(ईमिः21.06.2014)

भूल जायेंगे लोग कखग की कवितायें

भूल जायेंगे लोग कखग की कवितायें
क्योंकि वे एक लड़की से प्यार की कवितायें है
और याद रखेंगे मेरी
क्योंकि वे जहां से प्यार की कवितायें है
शामिल है जिसमें माशूक का भी प्यार
सलाम तुम्हारे जज्बे और इश्क-ए-उसूल को
(ईमिः21.06.2014)

Friday, June 20, 2014

लल्ला पुराण 158 (गांधी-भगत सिंह)

@Nishant Kumar: आज़ादी तो चरखा कातने यानि कांग्रसे नीत राष्ट्रीय आंदोलन से ही आयी है, क्रांतिकारियों के बलिदानों ने उत्प्रेरक की भूमिका अदा किया. गांधी की नीतियां तत्कालीन सामाजिक चेतना के अनुरूप थीं और क्रांतिकारी कार्यक्रम समंय से आगे एक नये शोषणविहीन समाजनिर्माण का था. इसीलिए गांधी के पास अपार जनाधार था और क्रांतिकारियों के पास क्रांतिकारी समझ और बलिदान की भावना के बावजूद जनाधार नहीं था. भगत सिंह बलिदान के बाद महानायक बने, गांधी ने महानायक बनकर बलिदान दिया. भगत सिंह के विचारों के धुरविरोधी संगठन भी अब उन्हें अपना नायक बताने लगे हैं. एक शोषण दमन मुक्त समाज का भगत सिंह का सपना अभी भी दूर दिखता है. आइए उस सपने को साकार करने के लिए छात्रों-नवजवानों की लामबंदी की कोशिस करें.

लल्ला पुराण 157 ( रेल किराया)

Sumant Bhattacharya  रेल किराया बढ़ने से आपको गिला हो न हो आवाम को है. पहली बात तो बजट सत्र  दूर नहीं था फिर रेल किराये में बढ़ोत्तरी की इतनी हड़बड़ी क्यों? रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के के फैसले के बाद अब रेल के निजीकरण का नंबर है, भावी रेल मालिकों के मुनाफे की बढ़ोत्तरी के लिए उन्हें खुद बदनाम न होना पड़े इस लिए तथाकथित प्रचंड बहुमत (55% का 31%=17%) से पहले ही किराया बढ़ा दिया उसी तरह जैसे बाजपेयी की 13 दिन की सरकार ने संसद में बहुमत की परवाह किए बिना कुख्यात एनरॉन को मुनाफे की काउंटर गारंटी दे दी थी. आम जनता रेल में चलती है और रेल से ढोये गये सामानों का इस्तेमाल करती है. लीकेज चहुं ओर व्याप्त भ्रष्टाचार का अभिन्न हिस्सा है, चुटकी में भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाले मोदी जी साफ दिखती लीकेज क्यों नहीं रोक सकते? मित्र, आप एक लपेट में सभी संगठनों को गिरोह बता कर बतौर एक स्वतंत्र (तभी तक जब तक उसका व्यवस्था पर फर्क नहीं पड़ता) नागरिक अाप सवाल करते रहना चाहते हैं, इससे नैतिक आत्मतुष्टि के अलावा और कुछ नहीं होगा, जवाब तो दूर कोई सवाल ही नहीं सुनेगा. हाकिम को सुनाने के लिए  संगठन की ताकत चाहिए और जनवादी जनसंगठन के लिए जनवादी जनचेतना, वह भी संगठित प्रयासों से ही संभव है. मौजूदा संगठनों में खामियां हैं तो नये बनाइए. गांधी जी भी अकेले कुछ नहीं कर सकते थे. उन्हें कांग्रेस जैसा एक बना बनाया राष्ट्रीय संगठन मिला था जिसे उन्होने सालों देश भ्रमण के दौरान ग्रासरूट संगठनों के निर्माण और स्वदेशी चेतना के प्रसार से समृद्ध किया. इन संगठनों के बल पर ही गांधीजी राष्ट्रीय आंदोलन को शहरी मध्यवर्ग के आंदोलन से जनांदोलन में तब्दील कर सके और औपनिवेशिक शासन की चूलें हिल गयीं. सवाल का जवाब तभी मिलेगा जब सवाल संगठित शक्ति की बुलंद आवाज़ में हो. संगठन और नियोजित रणनीति के अभाव में अमेरिका और य़ुरोप के ऑकुपाई आंदोलन में उमड़े स्वस्फूर्त जनसैलाब या दिल्ली के बलात्कार-विरोधी और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के स्वस्फूर्त जन-उभार कितना असर छोड़ पाये? स्वस्फूर्त आंदोलनों की अपनी सीमित भूमिका होती है. स्वस्फूर्त बिहार छात्र आंदोलन में छात्र संगठनों की भागीदारी थी. जेपी के शामिल होने के बाद आंदोलन के दौरान बने युवासंघर्ष वाहिनी और छात्र संघर्ष वाहिनी संगठनों ने आंदोलन की कमान संभाला. आवाज सुनाने के लिए संगठन की जरूरत है. अकेले नहीं लड़ी जाती कोई जंग, ज़िंदगी काटी जाती है. और अंत में प्रचंड बहुमत आवाम के लिए खतरनाक होता है, इसी की बदौलत इंदिरा गांधी आपात काल लगा सकी थीं.

खूबसूरती के संज्ञान पर

खूबसूरती के संज्ञान पर हुई जो तुम शुक्रगुजार
हुई तुम्हारी तस्वीर पर एक उड़ती कविता उधार
यह तो था अभी महज कविता का वायदा
अभी भरना है तस्वीर में विप्लव का इरादा
उन्मुक्त दुपट्टे की गगनचुंबी मस्ती भरी उड़ान
आंखों की बेपरवाही में झलकता मर्मज्ञ तूफान
विश्वस्त मुस्कान दर्शाती इसके ऊंचे अरमान
कि वर्जनाओं की मिटा देगी नाम-ओ-निशान
(ईमिः 21.06.2014)

हर हर मोदी.

रेल किराये में अभूतपूर्व वृद्धि - 14.5%. अच्छे दिन तेजी सो आ रहे हैं. यह रेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कि पूर्व (यानि देश की रेलवे की अकूत संपत्ति भूमंडलीय पूंजी के समर्पित करने के पहले) आम जन की बदहाली की कीमत पर अपने भूमंडलीय आकाओं को मुनाफे की गारंटी का उपहार है जिन्होने हजारो करोड़ भूटान को नेपाल, लाहौर को अंडमान, तक्षशिला को बिहार बताने वाले और विवेकानंद को श्यामाप्रसाद से मिलाने वाले,  "visionary" तथा नसंहार और बलात्कार के आयोजन से सांम्रदायिक ध्रुवीकरण की चुनावी फसल काटने वाले सामाज-विनाशक कारपोरेट कुमार को विकासपुरुष, युग पुरुष और यहां तक कि कल्कि-अवतार साबित करने में खर्च किया. रेल और डीजल के किराये बढ़ने से सभी वस्तुएं मंहगी होंगी और अच्छे दिन आ जायेंगे लेकिन जनता के नहीं थैलीशाहों के. हर हर मोदी.

प्रोफेसरों की जागीरदारी

This poem is a comment on a DU group:

इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
लगता है हो जैसे कोई अादिम प्रदेश
यह प्रोफेसरों की जागीरदारी का नतीजा है
कोई बेटा-बेटी तो कोई गोद लिया भतीजा है
धर्मपिताओं की है यहां एक परंपरा महान
धर्मपुत्र-पुत्रियों में फूंकता जो अनूठा ज्ञान
डिग्री मिलते ही बन जाते हैं अद्भुत विद्वान
लेता है धर्मपिता इस दुर्घटना का संज्ञान
करता है अगली पीढ़ी के ज्ञान का निदान
धर्मपुत्र होत हैं बाहुबल में भी कम नहीं
कहते रहिए लंपट इन्हें कोई ग़म नहीं.
(ईमिः20.06.2014)

Marxism 4

In the neoliberal  phase of finance capital that has become global, in the sense that it is no more  geo-centric either in terms of its source or investment, the need is of a reassessment of capitalism and the causes of delay in maturing of the contradictions with its advancement of capitalism in the context of non-formalization and outsourcing  of the production process and superstructuaral factors in capitalism's recovery from the crises on the one hand and the ruthless critical analysis of the split in the communist movement, particularly in the aftermath of the Naxalbari, on the other. It is huge task. 

Wednesday, June 18, 2014

शिक्षा और ज्ञान 12

http://ishmishra.blogspot.com/2014/06/blog-post_18.html

इस कविता की पोस्ट पर एक फेसबुक मित्र ने 3 सवाल (असंबद्ध) और "एक वात और" पूछा. उनका जवाबः
T.n. Tiwari सादर प्रणाम. पहली बात तो आप तथ्य-तर्कों पर आधारित विवेक सम्मत विमर्श को धता बताते हुए विरासत में मिली, कहा-सुनी/कानाफूसी/गप-शप पर आधारित अपने विरासती ज्ञान को अक्ष्क्षुण रखते हुए उसे तर्क-तथ्यों की कसौटी पर कसने का कष्ट नहीं उठाना चाहते. दूसरी बात अपनी विषयांतर की आदत के अनुसार, आपके कोेई भी सवाल इस पोस्ट के मुद्दों पर नहीं हैं. आप उन परीक्षार्थियों की याद दिललाते हैं जो सवाल कुछ भी हो जो रटकर आये हैं वही लिखेंगे. फिर भी मैं आपके सवालों और  "एक बात और "  के जवाब अपनी सामर्थ्य में देने का प्रयास करूंगा. 1. "प्रकृति ने सभी जीवों को बराबर शक्ति/सामर्थ्य क्यों नहीं दी?"  2.  "क्या सभी मनुष्यों का शक्ति/सामर्थ्य में बराबर होना वास्तव में संभव है?" इन दोनों सवालों का जवाब एक साथः
 प्रकृति ने सभी जीवों को भिन्न बनाया है, असमान नहीं. हाथी जैसा शक्तिशाली जानवर अपने 1फीसदी वजन से भी कम एक णनुष्य के नियंत्रण में आ जाता है लेकिन खरहा जैसा छोटा जानवर नहीं. फिद्दी सी मधुमक्खी छत्तो बुनने के शिल्प में काबिल-से-काबिल बुनकर को पीछे छोड़ देती है. रटा-रटाया जुमला है कि सभी अंगुलियां बराबर नहीं होतीं, लेकिन द्रोणाचार्य को एकतलब्य की लंबाई में सबसे छोटी उंगली, अंगूठा ही सबसे खतरनाक लगा. शरीर के वजन को अगर असमानता का मानदंड माना जाय तो दुनिया के लगभग सारे पुरुष मुझसे श्रेष्ठतर होंगे. मैं प्रोफेसर हूं आप बड़े बाबू, दोनों 2 अलग किस्म के काम करते हैं असमान नहीं. असमानता के सिद्धांतकार औरक उनकेभ क्त भिन्नताओं को पहले असमानता के रूप में परिभाषित करते हैं और गोल-मटोल तर्क का इस्तेमाल करते हुए, उसी परिभाषा से असमानता को प्रमाणित करते हैं.
"३. क्या बराबरी का फलसफा किसी हसीं(?) ख्वाब की तरह ही नहीं ?" जब तक कोई विचार-कार्यक्रम फलीभूत नहीं होता तब तक वह हसीं(या कुछ के लिए भयावह) ख़्वाब (यूटोपिया) लगता है. दलित मजदूरों की थाली-लोटे में 2फीट ऊपर से रोटी-पानी डालने वाले हमारे-आपके बाप-दादा को किसी ब्राह्मण द्वारा कैमरे के सामने एक दलित महिला का चरणस्पर्श करके मंत्रि पद की सपथ लेने की बात यूटोपिया लगती. वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि घरों की चारदीवारी में कैद रहने के बाद कुसी "कुलीन खूंटे" में खुशी खुशी बंधने वाली उनके खावदान की लड़कियां हॉ़ट पैंट पहन कर मोटर साइकिल चलायेंगी या किसी गैर ब्रह्मण से शादी कर लेंगी. 1950-60 के दशक तक अमेरिका में अश्वेत गुलामों के किसी वंशज का अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की बात यूटोपिया लगती. दरअसल लोगों की सामाजिक चेतना सफल वैचारिक विद्रोह तक शासक वर्गों द्वारा पोषित युगचेतना की चेरी बना रहती है, और लोग समट से आगे सोच नहीं पाते. हमारा मक्सद जनविरोधी, प्रतिगामी युगचेतना का वर्चस्व समाप्त कर जनवादी सामाजिक चेतना का निर्माण करना है.
"एक बात और सर, मुस्लिम भाइयों के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है, विशेषकर उनकी उत्पादन प्रवृत्ति को लेकर " सभी संघी तोते की तरह यही बात दशकों से रटते आ रहे हैं. आप कितने भाई-बहन हैं? 4-5 होंगे! हम कुल 9 भाई-बहन थे. मेरे गांव में मेरे हमउम्र गांव में रहने वाले जितने लोग हैं सबके लगभग, औसतन आधा दर्जन बच्चे हैं. मेरा अपना, मुझसे छोटा चचेरा भाई 4 बेटियों और 2 बेटों का बाप है. जाहिर है, बेटियां बड़ी हैं. मेरे बहुत से मुस्लिम परिचित हैं(कई इलाहाबाद में भी) जिनकी एक ही औलाद है. कहने का मतलब मित्र यह कि सांप्रदायिकता (या धर्मनिरपेक्षता) जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना पर आधारित कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि एक विचारधारा है जिसे हम रोजमर्रा के व्यवहार से पोषित-परिवर्धित करते हैं. उसी तरह परिवारनियोजन की चेतना धार्मिक प्रवृत्ति न होकर आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक संदर्भ और समाजीकरण का परिणाम है. मित्र, आग्रह गै कि विरासती नैतिकता को विवेकसम्मत नैतिकता से प्रतिस्थापित करें.

बेजान में जान

 कायरतापूर्ण पलायन है चयन मरने का
और नहीं है जीवनेतर उद्देश्य जीने का
खुद एक उद्देश्य है जीना एक अच्छी ज़िंदगी
न करो किसी पर कृपा न किसी की बंदगी
भरना है सूखी आंखों में उम्मीदों का आब
देखना है इनको इक नई दुनिया का ख़्वाब
उतारना है धरती पर एक अनोखा आफ़ताब
उमड़ते दिखेंगे कितने जनवादी जनसैलाब
सीख लो मुश्किलों को बनाना आसान
मानना प्रतिकूल को बदले भेष में बरदान
झूम पड़ेंगे खुशी से ये वीरान बियाबान
बेजान में आ जायेगी एक नई जान
(ईमिः18.06.2014)

Tuesday, June 17, 2014

नहीं बुझने देंगे आंखो के दिये

नहीं बुझने देंगे आंखो के ये दिये
करेंगे इन्हें रोशन जनवाद के तेल से
फूंकेंगे जान बुतखाने की हसीं यादों में
जम्हूरी दिल-ओ-दिमाग के मेल से
लहराते हुए हाथ चलेगी जब हर लाश
दिये गुल करने वालों का होगा सत्यानाश
फिर इक दिन आयेगा जनवादी जनसैलाब
जम्हूरियत के दुश्मनों को कर देगा बेआब
नहीं बुझेंगे आंखों के दिये तब कभी
अमन-ओ-चैन से जियेंगे हम सभी
(ईमिः18.06.2014)

परंपरा

रवायतें कर नहीं पायेंगी  नज़र-ए-ज़िंदां अब आज़ादी
कर्णकटु लगने लगी है पुरानपंथ की बेअसर मुनादी
सर पर बोझ हैं परंपराएं बाबा आदम के लाशों की
पांवों में जड़ती हैं बेड़ियां वर्जनाओं और निषेधों की
भड़काती हैं समाज में भेड़चाल दे दुहाई संस्कारों की
सलामत रहें जिससे गद्दियां सभी सरमायेदारों की
बनाती हैं तोते और उनके पिजड़े ज्ञान के सलाखों की
पंडित की पोथी जिससे गढ़ती रहे किस्मत लाखों की
चली है अब तो दुनियां में सवालों की एक नई बयार
साबित करो तभी ये बच्चे मानेंगे कोई विचार
टूटेंगी ही अंध-आस्था की रवायतों की रूढ़ियां
नई रीतियां गढ़ेंगी हमारी हर अगली पीढ़ियां.
(ईमिः17.06.2014)

Monday, June 16, 2014

शिक्षा और ज्ञान 11

 वैचारिक शून्यता एक अमूर्त अवधारणा है. उपभोक्ता संस्कृति ने शिक्षा को उपभोक्ता संस्कृति बना दिया है, यह इलाहाबाद या दिवि की बात नहीं है.सभी कैंपसों में प्रतिक्रांतिकारी विचारों का बोलबाला है. हिंदी पट्टी के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह इलाहाबाद विवि शिक्षकों और छात्रों में हमेशा जातिवाद का बोलबाला रहा है. दबंगों की तूती बोलती थी. दिवि और इविवि में हमेशा छोटे-छोटे प्रगतिशील समूह-संगठन रहे हैं जो समय समय पर सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार के मुद्दों पर आंदोलित होते रहे हैं. ज्यादातर छात्र कैरियर के अलावा कुछ नहीं सोचते. 4-8 साल तोतों की तरह कोचिंग के नोट रटते हैं और सफल होते ही दहेज से शुरू करके देश लूटने में मशगूल हो जाते हैं और पढ़ने-सोचने का मौका ही नहीं मिलता. जनेवि का राजनैतिक चरित्र थोड़ा भिन्न है.

दक्षिण के विवि ही नहीं  यह एक विश्वव्यापी सच्चाई है. परिवार-विद्यालय-विवि सभी संस्थाएं अनुशासन-आज्ञाकारिता आदि के नाम पर  बच्चों की स्वतंत्र चिंतन की स्वाभाविक प्रवृत्ति को कुंद कर भेड़ और तोते बनाते हैं. दिवि का सामंती कुलपति अब 4 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के जरिए गधे बनाना चाहता है. कई चिंतनशील छात्र प्रज्ञा और अन्वेषण की नई-नई ऊंचाइयां समाजीकरण और शिक्षा के चलते नहीं, इसके बावजूद तय करते हैं.

Sumant Bhattacharya  मित्र, गैरबराबरी-शोषण-दमन यानि अन्याय की बुनियाद पर पर खड़ी सभ्यता के संपूर्ण इतिहास में प्रतिरोध की संभावनाएं हमेशा ही रही हैं, जब भी उन्हें सार्थक स्वर मिले प्रस्फुटित भी हुईं और होंती रहेंगी.  छात्र-युवा होने और छात्र-युवा शक्ति होने में  छात्र-युवा चेतना -- समाज की विवेकसम्मत समझ और अन्याय से लड़ने का जज़्बा -- की मुश्किल कड़ी है. छात्र चेतना अभाव छात्र एक भीड़ भर बने रहते हैं. क्रांतिकारी छात्र चेतना का निर्माण हमारा उद्देश्य होना चाहिए.

क्षणिकाएं 25 (461-70)


461
उजाड़ दो यादों की दुनिया जो इतनी छोटी हो
छोटा सा टीला ही जिसमें पहाड़ की चोटी होे
दो इस दुनिया को हिमालय  सा विस्तार
ऊंचाई का जिसके हो न कोई आर-पार
उमड़ता है जब क्षितिज में मानवता का सैलाब
उगता है दुनियां में एक नया आफताब
जब तलक रहेगी दुनिया की जनसंख्या बस एक
रुकेगा नहीं मानवता के विरुद्ध जारी फरेब
आइए बनाते हैं एक-एक मिलाकर अनेक को
अंध आस्था की जगह लाते हैं विवेक को
चलेंगे सब हम जब मिलकर साथ साथ
फरेबों की सारी दुनिया हो जायेगी अनाथ
आइए लगाते हैं मिलकर नारा-ए-इंक़िलाब
निजी प्यार भी होगा उसी में आबाद
(बस ऐसे ही तफरी में)
(ईमिः03.06.2014)
462
लीक पर चलने को कहते हैं भेड़चाल
नये रास्ते तलाशना है तेरा कमाल
(ईमिः04.06.2014)
463
कुदरती आलम है चांद का अपने अक्ष पर घूमना
पागलपन की सनक है उसे धरती पर उतारना 
आभूषण है वह चांद का समझते हो जिसे दाग
मिटाने की करोगे कोशिस तो लग जायेगी आग
गुल-ओ-खार की द्वंद्वात्मक एकता जहां का उसूल
तोड़ना यह समग्रता है मानव की नादान भूल
जिंदा रहने की शर्त है ज़िंदगी की जीत में यकीन
मज़मून-ए-जन्नत को करेगी साकार जमीन
आयेगी इस चमन में अमन-ओ-चैन की बहार
होंगे जब गुलामी-ए-ज़र के सभी बंधन तार तार
आग से पेट की लगता है  भूखे दिलो में दाग
न बुझ सकी ये आग तो हो जायेगा इंक़िलाब
महकूम-ओ-मजलूम के चमन में आयेगी बहार
हो जायेगा ये जहां तब हर्षोल्लास से गुल्जार
(ईमिः04.06.2014)
464
चांद को न रोटी का टुकड़ा न हुस्न का पर्याय बताते
पृथ्वी का उपग्रह है, यह बात तथ्य-तर्क से हैं समझाते
बहलाते नहीं बच्चों को बताकर चाद को रोटी का टुकड़ा
फुसलाते नहीं महबूब को बताकर उसे उसका मुखड़ा
बहलाते नहीं बच्चों को सौर्यमंडल की हक़ीकत बताते हैं
समाज के ख़्वाबों के भविष्य का उन्हें पहरेदार बनाते हैं
फुसलाते नहीं माशूक को दिल की चाहत दिखाते हैं
बन हमजोली दोनों पारस्पारिकता का पेंग बढ़ाते हैं
(ईमिः04.06.2014)
465
जो देखता सुनता महसूसता हूं,
 शब्दों में उसे ही पिरोता हूं
करता नहीं अमूर्तीकरण अनुभवातीत इकाई का
सत्यापन को ही मानता हूं आधार सच्चाई का
मक्सद है तोड़ना मिथ्याचेतना का जटिल जाल
आध्यात्मिकता का आवरण है शासकों की चाल
है वैसे तो यह बहुत कठिन वैचारिक काम
आसानियों को दे सकता है कोई भी अंज़ाम
(ईमिः 05.04.2014)
466
वही शहर वही नहीं रहता और लोग भी बदलते हैं
कभी कभी इतना कि पहचान में नहीं आते
(ईमिः04.06.2014)
467
न करो भरोसा रटंत विद्या का
ठहर जाता है वह ज्ञान
हो जाता जो कंठस्थ
(ईमिः04.06.2014)
468
इस संकल्पशील तस्वीर पर
लिखनी ही पड़ेगी अब तो एक उड़ती हुई कविता
टिका नज़रें सुदूर मंजिल पर
निकली हो जैसे चीर कर घनी-अंधेरी सविता
लिखी है बुलंद इरादों की इबारत चेहरे पर
खत्म हो गयी हो मानो वर्जनाओं की दुविधा।
अभी फिलहाल शब्द-जाल इतना ही
तस्वीर को शब्दों में पिरोना है मुश्किल भी
(ईमिः16.06.2014)
469
धैर्य रखो धन्ये!
कोमल हो जाएगी उसके जाने की सख्त घड़ी
वापसी की मोहक उम्मीदों में
वियोग-संयोग के संगम से खिंचती है जीवन रेखा
(ईमिः16.06.2014)
470
तोलकर बोलते हैं बोलते हैं जब भी
समझते हैं बदले वक़्त की तासीर भी
नहीं है अपनी फितरत चुप रहने की
आदत है जो हक़ीक़त बयान करने की
जगह थी जिन कमीनों की जेल में
तख्तनशीं हैं वे सियासती खेल में
अपन तो साथ हैं मजलूमों-महकूमों के
ज़ंग-ए-हक़ हमसफर खाक़नशीनों के
होते हैं ग़र हाथ कलम तो हो लें
अपना कलम तो उगलेगी शोले
हिम्म्त बहुत है इस 46 किलो की शरीर में
देखेंगे जगह है कितनी ज़ालिम की जेल में
(ईमिः16.05.2014)