Monday, December 30, 2019

फुटनोट 347 ( बेतरतीब देव)

1988 में मेरे 22 साल के भाई की लखनऊ विश्वविद्यालय में हत्या हो गई थी। वह असंभव किस्म का बालक था कुश्ती का चैंपियन और एमए का टॉपर। जब भी किसी की असामयिक, अप्राकृतिक मौत की खबर पढ़ता हूं, उसकी याद में विक्षिप्त हो जाता हूं। तथाकथित देशभक्त हत्यारे अमानवीय हैवान होते हैं, सोचते नहीं कि य़दि उनके किसी परिजन की हत्या हो जाए तो उनपर क्या बीतती? 2017 सरकारी शह पर राष्ट्रवादी हत्याओं का साल रहा है। इस घृणित राष्ट्रवाद का विनाश हो। अपने दम पर अकेले एक बड़ा संयुक्त परिवार संभालने वाली मेरी बहादुर मां की उम्र एकाएक 10 साल बढ़ गई थी, दिमागी हालत यह कि कोई भी उसे कुछ संभालने को नहीं देता था। औसतन हर हफ्ते अपना एक जोड़ी चप्पल कहीं छोड़ आती थी। कहीं किसी असामयिक मौत की खबर से विक्षिप्त हो जाती थी, जीवन के बाकी 17 साल उसके ऐसे ही थे। तुम्हारी अतिमानवीय संवेदनाओं को सलाम, मां!

31.12.2010


Kumar Narendra Singh
आपकी उस पीड़ा का मैं गवाह रहा हूं और उसे महसूस भी किया है। न जाने कितनी बार उस छोटे भाई के बल-बुद्धि के बारे में हमने बातें की हैं और हर बार दिल से आह निकलती रही है। घर में वही तो था, जो आपको पूरी तरह समझता था। आपको गोद में उठाकर नाला पार करा देता था।
सादर नमन।
Ish Mishra
Kumar Narendra Singh Kumar Narendra Singh नाला नहीं नदी, गोदमें उठाकर नहीं, कंधे पर बैठाकर। वह कक्षा 10 में था मैं नदी पार से कहीं से साइकिल से आ रहा था, नाव का सीजन खत्म हो गया था और चह अभी बनी नहीं थी। उसने साइकिल उठाया और मैं अंडरवियर में नदी पार करने के लिए पैंट उतारने लगा तो उसने रोक दिया और साइकिल उस पार करके मुझे कंधे पर बैठाकर नदी पार कराया। किनारे पहुंचकर हड़बड़ाहट में उतरने में मैंने पैंट की मोहड़ी गीली कर ली थी। उस समय लगता था कि उसके बिना दुनिया कैसे चलेगी? लेकिन इतिहास क्रूर भी होता है, उसकी यादें अब इतिहास बन गयी हैं।


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