Friday, December 6, 2019

मार्क्सवाद 195 (कांग्रेस और सांप्रदायिकता)

बाबरी मस्जिद का ताला 1987 में खोला गया जिसकी परिणति मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा में हुई. 1984 से पहले भाजपा सामाजिक चेतना या उदारवादी युगचेतना के दबाव में बाजपेयी के मुखौटे में गांधीवादी समाजवाद के शगूफे की चादर ओढकर उदारवादी छवि निर्माण करने की नौटंकी कर रही थी. लेकिन सिख विरोधी जनसंहार की 1984 की चुनावी फसल का खलिहान देख नगपुरियों का माथा ठनका. अंग्रेज प्रभुओं की कृपा से तथा उनकी सेवा में 1925 से ही शाखाओं में रा्ष्ट्रीय आंदोलन के सामानांतर हिंदूराष्ट्र आंदोलन चला रहा है। तमाम युवा जिनमें कुछ भगत सिंह न बनते तो भी गांधीवादी मुख्य धारा से तो जुड़ते वे नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमें में बिना मतलब समझे समय बिता देते हैं . (अनुभव आधारित वक्तव्य) तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की फसल कांग्रेसी खलिहान में चली गयी. शैशवकाल से ही वे इतिहासबोध विकृत करने का तमाम अभियान चलारहे हैं तथा कुछ सिख मारकर कांग्रेल को इतना बहुमत मिल सकता है तो उसने धर्मोंमादी अडवानी को उग्र हिंदुत्व की बागडोर सौंपी. राम मंदिर मुद्दा बना. राजीव गांधी ने प्रतिद्वंद्विता में मस्जिद खुलवा दिया पूजा के लिए तथा गृहमंत्री चिदंबरम् ने मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा रचा. मंडल को कमंडल से पीछे ढकेलने की योजना को लालू ने फेल कर दिया. मैं लालू का तमाम कारणों से कटु आलोचक हूं, लेकिन इसके लिए सलाम. 1992 में पूर्ण बहुमत की कल्याण सरकार या बैसाखी बहुमत की नरसिंहाराव सरकार में कोई भी इसे रोक सकता था. लेकिन दोनों की मिलीभगत से अडवाणी ब्रिगेड ने मस्जिद ध्वंस कर दिया. यही मिलीभगत (मोदी-मुलायम) मुजफ्फरनगर में दिखती है क्योंकि हर दंगा प्रायोजित होता है और प्रशासन चाहे तो, जैसा विभूति नारायण राय ने सही फरमाया है, आधे घंटे में रोक सकती है।

07.22.2015

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