Anupam Tiwari थॉमस हॉब्स आत्मा का नषेध नहीं करता, उसका मजाक उड़ाता है कि यदि आत्मा भी होती हैमतो उसकी भी शरीर (बॉडी) होती है। किसी अवधारणा कामजाक उड़ाना निषेध का एक तरीका है। फैज जिया उल हक़ केइस्लामी शासन में यहां-वहां भागते फिरे, ज्यादा समय जेएनयू में रहे। हमलोगों को भी सत्संग का बहुत मौका मिला। अब लगता है कितने बड़े बड़े लोगों के साथ मित्रवत सत्संग का मौका मिला जेएनयू में। फैज, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय...। बाबा (नागार्जुन) तो घर की मुर्गी से थे, बाकी अदम, गोरख, सलभ श्रीराम सिंह तो साथी से ही थे। फैज एक बार यही नज्म पढ़ चुके थे, 'लाजिम है हम भी देखेंगे....'। एक उर्दू के लड़के (डा. शाहिद परवेज) ने मजाकिया मूड में पूछ दिया, 'अच्छा फैज साहब, आपकी नज्मेंसबसेबुराकौन पढ़ता है?' फैज सेंटिया कर गुस्सा हो गए, 'मै, मैं पंजाबी हूं, मेरी जुबान पंजाबी में मुड़ती है।' मेरी बेटियां मेरे अंग्रेजीउच्चारण का कभी मजाक उड़ाती हैं तो मैं उन्हें कहता हूं, मेरी जुबान भोजपुरी में मुड़तीहै। खैर विषयांतर के लिए माफी। 'चली है रश्म कि कोई न सर उठाके चले', लेकिन नतमस्तक समाज में सर उठाके चलने का आनंद और है, कीमत कितनी भी क्यों न चुकानी पड़े। 'जाने वाले जब एक दिन दरबारे वतन में जाएंगे..........'
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