मार्क्स के सिद्धांत तब तक प्रासंगिक रहेंगे जब तक समाज में शोषण और दमन रहेगा। हम विभिन्नताओं को नष्ट नहीं करना चाहते, बचाना चाहते हैं जिसे भूमंडलीय पूंजी नष्ट करना चाहती है, जो दुनिया को एकरसता के रास्ते पर लानाा चाहती है, जिन व्यवस्थाओं की आप बात कर रहे हैं, वे संक्रमणकालीन व्यवस्थाएं थीं। क्रांति (वर्ग संघर्ष) एक निरंतर प्रक्रिया है। विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है जिससे उस काल का बौद्धिक परिवेश तय होता है। मनुष्य के साश्वत प्रयास से बदली परिस्थितियों में सामाजिक चेतना बदलती है जो यथास्थिति को भंग कर नया परिवेश तैयार करती है। पिछले 35-40 सालों में सामाजिक चेतना में यह बदलाव दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी एवं स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के प्रयाण में स्पष्ट देखा जा सकता है। 1982 में मुझे अपनी बहन की उच्च शिक्षा के अधिकार के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। आज किसी बाप की औकात नहीं है किसार्वजनिक रूप से बेटा-बेटी में फर्क करने की बात स्वीकारे, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है। इतिहास में जिसका भी अस्तित्व रहा है, उसका अंत भी निश्चित रहा है, पूंजीवाद या मर्दवाद इसके अपवाद नहीं हो सकते। क्रांतिकारी बदलाव का कोई टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इतिहास ज्योतिष से नहीं आगे बढ़ता अपनी यात्रा के दौरान अपने गतिविज्ञान के नियम खुद निर्मित करता है। और एक बात और, इतिहास की गाड़ी के इंजन में रिवर्स गीयर नहीं होता, मौजूदा दौर की तरह कभी कभी छोटे-मोटे यू टर्न ले सकती है। जो विचार अतार्किक होंगे, उन्हें ऐसा साबित करने की जरूरत नहीं होती। सादर।
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