Monday, December 30, 2019

मार्क्सवाद 198 (मार्क्सवाद की की प्रासंगिकता)

Parmanand Tripathi आपने जिन विंदुओं को उठाया है, उनका इस पोस्ट से सीधा संबंध तो नहीं है, लेकिन असॆबद्ध भी नहीं हैं। भारत में ही नहीं दुनिया के बहुत से देशों में ऐतिहासिक कारणों से अलफल रहे। नेताओं का सुरा-सुंदरी में डूबकर भ्रष्ट होने की बात विरोधियों द्वारा अपुष्ट आरोपों के माध्यम से निराधार फैलाई गयीं। 1930 के दशक में भविष्य की उम्मीद के रूप में उभरा संयुक्त समाजवादी आंदोलन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान दो फाड़ होने से कुछ कमजोर पड़ा। आचार्य नरेंद्र देव तथा जेपी नरायण के नेतृत्व में गठित कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी (सीएसपी) अपने छात्र, मजदूर तथा किसान संगठनों (एआईएसएफ, एआईटीयूसी तथा अखिल भारतीय किसान सभा) के साथ इतनी ताकतवर थी कि गांधी के खुले विरोध के बावजूद इसके समर्थन से सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए तथा इसकी तटस्थता की नासमझी के चलते कुख्यात पंत प्रस्ताव पारित हो गया जिसने कांग्रेस अध्यक्ष को गांधी की इच्छाओं का अधीनस्थ बना दिया और बोस को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा। सीएसपी में गांधीवादी समाजवादी और अवैध कम्युनिस्ट दोनों थे। 1942 में युद्ध के विरोध-समर्थन के मतभेद के चलते दोनों अलग हुए। आजादी के बाद समाजवादी धाराएं ही मुख्य विपक्षी थीं। आचार्य नरेंद्रदेव, जेपी आदि चाहते कांग्रेस में रह कर मंत्री बन सकते थे। विस्तार में न जाकर इतना कहा जा सकता है कि नरेंद्रदेव, जेपी, लोहिया जैसे समाजवादी नेता या नंबूदरीपाद, सीतारमैया, नृपेन चक्रवर्ती, इंद्रजीत गुप्ता आदि जैसे कम्युनिस्ट निजी जीवन में सनकीपन के हद तक ईमानदार थे। इंद3जीत गुप्त गृहमंत्री के रूप में 2 कमरे के वेस्टर्न कोर्ट में बिना किसी सुरक्षा के रहते थे। किसी कम्युनिस्ट नेता के विरुद्ध निजी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। त्रिपुरा चुनाव के बाद मैंने एक लेख में लिखा था कि यदि सैद्धांतिक स्पष्टता तथा कार्यक्रमों की अंतर्दृष्टि न हो तो जनता मानिक सरकार की ईमानदारी का अचार डालेगी क्या?

अगले विंदु का स्पष्टीकरण अगले कमेंट में, लंबा कमेंट एक साथ पोस्ट नहीं हो पाता।

जहां तक 'भारत जैसे देश में मार्क्सवाद का कोई भविष्य नहीं' होने की बात है तो यह बात सभी देशों के मार्क्सवाद विरोधी लोग कहते आ रहे हैं, 1917 की क्रांति के पहले रूस में भी यही बात लोग कहते थे। मार्क्स एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में लिखा था कि यूरोप के सिर पर कम्युनिज्म का भूत सवार था, आज दुनिया में सभी प्रतिक्रियावादियों के सिर पर मार्क्सवाद का भूत सवार है। मार्क्सवाद का मर्सिया भी पढ़ेंगे और मार्क्सवाद के भूत से पीड़ित हो मार्क्सवाद मार्क्सवाद को शोर भी मचाएंगे। सही कहा आपने परिवर्तन निरंतर प्रक्रिया है, मार्क्सवादी दर्शन, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम है कि मात्रात्मक क्रमिक परिवर्तन लगातार होता रहता है जो कलांतर में परिपक्व होकर गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन में तब्दील होता है। मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर पिछले सवाल का जवाब कॉपी-पेस्ट कर रहा हूं।

मार्क्स के सिद्धांत तब तक प्रासंगिक रहेंगे जब तक समाज में शोषण और दमन रहेगा। हम विभिन्नताओं को नष्ट नहीं करना चाहते, बचाना चाहते हैं जिसे भूमंडलीय पूंजी नष्ट करना चाहती है, जो दुनिया को एकरसता के रास्ते पर लानाा चाहती है, जिन व्यवस्थाओं की आप बात कर रहे हैं, वे संक्रमणकालीन व्यवस्थाएं थीं। क्रांति (वर्ग संघर्ष) एक निरंतर प्रक्रिया है। विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है जिससे उस काल का बौद्धिक परिवेश तय होता है। मनुष्य के साश्वत प्रयास से बदली परिस्थितियों में सामाजिक चेतना बदलती है जो यथास्थिति को भंग कर नया परिवेश तैयार करती है। पिछले 35-40 सालों में सामाजिक चेतना में यह बदलाव दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी एवं स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के प्रयाण में स्पष्ट देखा जा सकता है। 1982 में मुझे अपनी बहन की उच्च शिक्षा के अधिकार के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। आज किसी बाप की औकात नहीं है किसार्वजनिक रूप से बेटा-बेटी में फर्क करने की बात स्वीकारे, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है। इतिहास में जिसका भी अस्तित्व रहा है, उसका अंत भी निश्चित रहा है, पूंजीवाद या मर्दवाद इसके अपवाद नहीं हो सकते। क्रांतिकारी बदलाव का कोई टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इतिहास ज्योतिष से नहीं आगे बढ़ता अपनी यात्रा के दौरान अपने गतिविज्ञान के नियम खुद निर्मित करता है। और एक बात और, इतिहास की गाड़ी के इंजन में रिवर्स गीयर नहीं होता, मौजूदा दौर की तरह कभी कभी छोटे-मोटे यू टर्न ले सकती है।

1 comment:

  1. सही और सान्दर्भिक तथ्य हैं।

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