Friday, December 20, 2019

लल्ला पुराण 318 (अगली पीढ़ी)

Markandey Pandey एक छोटे लेख (400-5-00 शब्द) जितना लंबा कमेंट डेस्क टॉप के एकाएक बंद हो जाने से गायब हो गया। हम भारी भरकम शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते लेकिन बोलचालकी ही भाषा में सबकुछ नहीं लिखा जा सकता। सरल भाषा और अवधारणाओं के सरलीकरण में फर्क है। संविधान की व्यख्या सरल शब्दों में होनी ही चाहिए, सरलीकृत नहीं। जहां तक पत्रकारिता के पेशे का सवाल है तो एक जमाने में शोधपूर्ण पत्रकारिता होती थी तथा आजादी की लड़ाई के अखबार-पत्रिकाएं इतिहास लेखन के संदर्भ श्रोत बने हुए हैं। आजकल, खासकर भूमंडलीकरण के बाद पत्रकारिता का चरित्र बदल गया है, शोध की जगह कहा-सुनी और अफवाहबाजी ने ले लिया है, जी न्यूज जैसे चैनल तथा दैनिक जागरण जैसे अखबार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ज्यादातर मामलों में पत्रकारीय नीतियां, संपादक नहीं मालिक तय करते हैं। जाने माने अंतर्राष्ट्रीय इतिहासकार एरिक हाब्सबॉम ने निधननके कुच समय पहले एक इंटरविव में दुनिया के कम्युनिस्ट नेताओं को मार्क्स पढ़ने कीसलाह दीतथा उसी इंटरविव में मजाक में अमेरिकी पत्रकारिता के संदर्भ में प्रिंटमीडिया के पत्रकारों को अर्धशिक्षित और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों को अशिक्षित कहा था, खैर यह उनका और अमेरिकी पत्रकारिता का मामला है। एक एक बात के तार्किक खंडन का स्वागत है, लेकिन आप खंडन की बजाय फतवेबाजीकी (डिडाक्टिक) शैली में फैसलाकुन (जजमेंटल) दोषारोपड़ करते हैं। जैसे आंय-बांय बोलने का आरोप, आरोप लगाइए लेकिन उसे तथ्य-तर्कों से पुष्ट कीजिए। आपने बंच ऑफ थॉट पढ़ने की सलाह दी मैंने कहा कि मैं उसके साथ गोलवल्कर के अन्य काम भी पढ़ चुका हूं तथा कुछ उद्धरण भी दिए आपने किसी ज्योतिष के माध्यम से जान लिया मैंने किसी वामपंथी कुप्रचार का कोई सारांश पढ़ा होगा, आप से टेक्स्ट से मिलान करके उससे व्यापक उद्धरण वाला अपना 32 साल पुराना लेख शेयर किया। आपके कमेंट से संदेह हुआ कि ज्यादातर स्वयंसेवकों की तरह आपने भी बंच ऑफथॉट पढ़ा नहीं होगा और मैंने वह संदेह भी आपके साथ शेयर किया। पढ़ना-लिखना बंद करने का आरोप बिना पुष्ट प्रमाण के जब मन में आए लगा देते हैं। मुझे आपलोगों जितना पढ़ने का मौका नहीं मिला क्योंकि नपिताजी से पैसा न लेने के चलते पढ़ाई के समय में से समय निकाल कर रोजी-रोटी का पहले अपना ही फिर भाई-बहन का भी करना होता था। फिर भी रात भर लाइब्रेरी खुली रहने और कम सोने की आदतसके चलते ठीक-ठाक पढ़लेता था, शिक्षकहोने के बाद उसकी भरपाई करने की कोशिस करता रहा। वैसे जितना आप पढ़ना चाहते हैं उसकेलिए एक जीवनकाल नाकाफी होता है। अब से फेसबुक पर कम-से-कम समय खर्चकर इफरात में बचे पेंडिंग काम में जोहो सकेगा पूरा की कोशिस करूंगा, फिर भी यदि मेरी बातों का तथ्य-तर्कपूर्ण खंडन करेंगे तो अपनी बुद्धिकी सीमाओं में जवाबदेने की कोशिस करूंगा, बहुत कीमत चुकाकर एक ईमानदार जिंदगी जिया हूं, बेईमानी के निराधार आरोप न लगाएं तो आभारी रहूंगा। सादर।

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