गदर के आध्यात्मिक भटकाव पर एक पोस्ट पर एक कमेंट.
कॉमरेड, भावनाओं पर विवेक को तरजीह देना चाहिए. गदर बहुत बड़े हैं, मैं गदर को 40 साल से जानता हूं वह क्रांति की प्रतिबद्धता में चट्टान की तरह अटल थे. 'यह गांव हमारा यह देश हमारा ....... ये जालिम कौन है उसका जुल्म क्या है' की 1977 की गूंज आज भी ताजी है. जाहिर है शायद, जीवन के आखिरी चरण में निराशा उन्हें आध्यात्मिकता के तिलिस्म की तरफ खींच ले गयी हो वैसे जैसे 'मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है' का लेखक (दिनकर) 'हारे को हरिनाम' लिखने लगता है. गदर के आध्यात्मिक-धार्मिक होने की खबर अविश्वसनीय लगी थी जैसे गोरख की आत्महत्या की. लेकिन अविश्सनीय चीजें भी घटित होती हैं. चट्टान पिघलती है तो दुखी हो आत्मचिंतन करना चाहिए न कि चट्टान पर नाराज़गी. गदर से 2-4 बार मिलने का सौभाग्य मिला है. विमर्श में सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद , वर्ग समाज और समाजवादी पथ की जटिलताओं के बारे में पैनी समझ और अटूट प्रतिबद्धता थी. हमारी (वामपंथियों की) सामान्यतः प्रवृत्ति रही है कि संगठन से या विचारधारा से भटके लोगों के अतीत को भी वर्तमान के साथ हम कूड़े में फेंक देते हैं. 4 दशक से अधिक समय तक जो इंसान तमाम प्रतिकूलताओं और सरकारी दमन के बावजूद एक क्रांतिकारी संस्कृति का विगुल बजाता रहा वह अब लोगों में अन्याय से लड़ने की शक्ति मांगने भगवान के दरवाजे पर पहुंच गया जिसे वह जानता था कि भगवान एक मानव-कल्पित अवधारणा भर है, चिंतनीय है. गदर के हारे को हरिनाम की हाल में पहुंचने का अफशोस है और निजी सम्मान के साथ उनकी घनघोर निराशा से हमदर्दी. गदर हम फिर से आपसे सुनना चाहेंगे वही आशावादिता वही जालिम से जुल्म का हिसाब मांगने का विद्रोही तेवर देखना चाहेंगे. जिस तरह अविश्वसनीय घटित हो सकता है, उसी तरह असंभव की उम्मीद भी रखी जा सकती है. गदर गद्दार नहीं हो सकते निराश और कमजोर हो सकते हैं, आजीवन लोगों को सशक्त बनाने के गीत गाने के बाद उस सशक्तीकरण के लिए भगवान के पास जाना उनका निराशापूर्ण भटकाव हो सकता है, गद्दारी नहीं.
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