तब से अब फेसबुक खोला. सब मित्रों की बधाई का आभार. मैं 2006-09 के दौरान हॉस्टल का वार्डन था तो होली के दिन छात्रों की भीड़ 2-3 घंटे मेरी लॉन में होली खेलते-गाते थे. उस दिन गुझिया की काफी खपत होती थी. बाद में हॉस्टल के पास ही कॉलेज में घर मिल गया, अब उतने तो नहीं लेकिन 30-40 विद्यार्थी आ ही जाते हैं. कल काफी देर तक जब वे नहीं आए तो लगा कि परिपाटी टूट गयी, लेकिन तभी 40-50 बच्चे शोर मचाते आ धमके. 10 सालों से होली को स्टूडेंट्स के साथ थोड़ी देर की अड्डेबाजी का सुख जीवनचर्या का हिस्सा बना हुआ है. श्रीप्रकाश जी ने वाजिब बात कहा है बधाई माइनस होलिका दहन. दरअसल किसानों के लोकप्रिय (खासकर फसल की कटाई) उत्सवों को कालांतर में 'धर्मात्माओं' ने इनके साथ मिथक जोड़कर धार्मिक जामा पहना दिया. होली सौहार्द का समानुभूतिक, उंमुक्त उत्सव है. पिछले 40 सालों में शायद ही होली में कभी गांव में रहा हूं लेकिन सबका सबके घर जाना और दोपर बाद लगभग सारे गांव (मर्द और बच्चे) का एक साथ फगुआ गाना-बजाना-सुनना याद है. सबसे सुखद यादें जेयनयू की होलियों की हैं. नया, छोटा सा कैंपस था, सब एक दूसरे को जानते थे. शिक्षकों और कर्मचारियों के बच्चे भी जेयनयू कम्युनिटी के ही हिस्से थे. जेयनयू छूटने के बाद 10-12 साल तक सुबह-सुबह बाइक से मयूरिहार से जेयनयू पहुंच जाता. 3-4 बार तो राजेश जोशी (बीबीसी) भी साथ होते थे. जेयनयू के होली के अनुभव अगली होली को लिखूंगा.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment