दूसरों की कमियों में अपनी कमियों का औचित्य ढूंढ़ने वाला समाज साश्वत जड़ता का शिकार हो जाता है. प्रकृति का नियम है परिवर्तन. परिवर्तन, बेहतरी की तरफ; समता के सुख से ओत-प्रोत एक समानुभूतिक मानवीय समाज की तरफ. लेकिन गतिविज्ञान का नियम है कि गति के लिए बाहरी बल की जरूरत होती है. वह बाहरी बल है चैतन्य, मानव प्रयास. यथास्थिति के निहित स्वार्थों की ताकतें समाज की अग्रगामी गति को अवरोधित करती हैं. कभी-कभी प्रतिगामी बल अग्रगामी बल से भारी पड़ जाता है, लेकिन अंततः इतिहास आगे ही बढ़ता है, क्योंकि कुल मिलाकर हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है. इतिहास के मोटर में रिवर्स गेयर नहीं होता है, वैसे यदा-कदा यू टर्न की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता. छात्र परिभाषा से ही एक बल होता है लेकिन वह भीड़ सा संख्जयाबल ही बना रहता है जब तक वह जेयनयू की तरह कोर्सेतर क्रिया-कलापों; वाद-संवादों; आंदोलनों के मार्फत खुद को छात्रचेतना लैस कर संगठित जन-बल नहीं बनता. इतिहास में युगकारी परिवर्तनों में युवाओं, खासकर छात्रों की निर्णायक भूमिका रही है.
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