कल लखनऊ में जो कुछ हुआ वह 1985 में हुए शिलापूजन से शुरू हुए चुनावी फसल के लिए धर्मोंमादी लामबंदी के लिए फिरकापरस्त नफ़रत की खेती के अभियान की ही कड़ी है. फर्जी मुठभेड़ों में फर्जी मुठभेड़ों का इनका रिकॉर्ड बहुत अच्छा है. यह अभियान अडवाणी की रथयात्रा, बाबरी विनाश, 2002 का नरसंहार, मुजफ्फरनगर, दादरी होते हुए लखनऊ तक की यात्रा में मुल्क से जान-माल के अर्थों में ही नहीं, नैतिक-बौद्धिक ह्रास के भी अर्थों में भी, काफी कीमत वसूल चुका है. गंगा-सरयू के द्वाबे के लोगों से पूरी उम्मीद है कि विवेक का इस्तेमाल करेंगे और नफ़रत की सियासत वालों को करारा जवाब देंगे कि इस द्वाबे की माटी में विवेक उगता है और आवाम हिंदू-मुसलमान की सामाजिक अस्मिता से ऊपर उठ निखालिस इंसान बन गया है.
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