मॉफ कीजिएगा साथियों, इस सार्थक बहस में ढ़ग से नहीं शरीक हो पा रहा हूं. साथी प्रांशु की भावनाओं का आदर करते हुए यह कहना चाहूंगा कि इतिहास की गाड़ी ने एक लंबा यू टर्न लिया है, इसलिए अब लड़ाई 2 कदम पीछे से शुरू करना पड़ेगा. सामाजिक चेतना का स्तर ऊपर उठने की बजाय नीचे गया है. मुहावरे में कहें तो जनेऊ तोड़ने वालों की तुलना में नए जनेऊधारियों की संख्या बढ़ रही है, स्कूलों की तुलना में मंदिरों का निर्माण ज्यादा हो रहा है. दलित चेतना के जनवादीकरण की तुलना में नवउदारवादी-नवब्राह्मणवादीकरण ज्यादा हो रहा है. ज्ञान और शिक्षा पर मैंने नवीन जी को एक लेख दिया है. ब्लॉग से यहां शेयर करूंगा. दुनिया के इतिहास के इस अधोगमन के लिए हम, वामपंथी कितने जिम्मेदार हैं, इस पर विमर्श की जरूरत है. मार्क्स को नवउदारवादी युग में अनुवाद करने की जरूरत है. झंडे-दुकान की बात भूल कर गंभीर चिंतन-मंथन की जरूरत है. असंबद्ध क्रांतिकारियों को किसी-न-किसी रूप में संगठित होने की जरूरत है क्योंकि संगठन के बिना परिवर्तन नहीं हो सकता. शासकवर्गों के पास सत्ता के औजारों के अलावा अपार बाहुबल, धनबल और संख्याबल की ताकत है, हमारे(मजदूर के) पास महज जनबल की ताकत है, यानि संख्याबल को जनबल में तब्दील करने की जरूरत है. हमें हर काम-शब्द से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में अपने काम के मूल्यांकन की जरूरत है. क्रांति जनता ही करेगी किंतु तभी जब वर्गचेतना से लैस होगी, यही फिलहाल फौरी जरूरत है, बाकी बाद में. कमेंट लिखने के बाद साथी नवीन की कविता आ गयी. खूबसूरत, उस पर भी बाद में.
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