प्राचीन भारत की तमाम महान उपलब्धियों के ग्रंथों को को कालांतर में ब्राह्मणवाद ने निहित स्वार्थों के चलते नष्ट किया या उनका मजाक उड़ाया. लोकायत चारवाक का भौतिकवादी दर्शन के ग्रंथ तथा जनभाषा में लिखे गए बौद्ध ग्रंथ इनमें शामिल हैं. शासनशिल्प पर कौटिल्य की कालजयी कृति का 'अन्वेषण' 1910 में हुआ। कई बौद्ध संकलनों को वापस लाने के लिए राहुल सांसकृतायन छिपछिपाकर तिब्बत गए जो कि इतिहास बन चुका है। चीन में राज्य निर्माण के बारे में मेरा अध्ययन नहीं है, अन्यथा एशिया और यूरोप एवं अन्य जगहों पर राज्य का सिद्धांत पहली बार 6वीं शताब्दी ईशा पूर्व लिखे बौद्ध ग्रंथों दीघनिकाय और अनुगत्तरनिकाय में मिलता है, शासक की भाषा में नहीं आमजन की भाषा पाली में. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अपने नियामक तत्वों के संदर्भ में राज्य की परिभाषा रानैतिक सिद्धांत के इतिहास में उल्लेखनीय योगदान है. गौरतलब है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र धर्मशास्रीय या दैविक कारक-कारण अनुपस्थित हैं, महज पार्थिव कारक-कारण पर ाधारित है. भक्त मिजाज के लोग ऐसा प्रचार करते हैं कि हम, तर्कवादी लोग जो कुछ भी भारतीय है उसके विरुद्ध हैं, विरोध इतिहास का नहीं हो सकता, उससे सीखा जाता है. हमारा विरोध और आलोचना ब्राह्मणवादी पाखंडों और पूर्वाग्रहो के विरुद्ध है जिसके चलते समाज सदियों तक भौतिक-बौद्धिक रूप से जड़ बना रहा. हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, हमारे चरवाही युग के पूर्वज हमसे ज्यादा बुद्धिमान नहीं हो सकते अपने संदर्भ में कितने भी ज्ञानी क्यों न हों, तभी तो हम पाषाणयुग से साइबर युग तक पहुंचे हैं. अतीत में महानता की तलाश भविष्य के खिलाफ सोची-समझी साजिश है.
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