रोमियो-जूलियट पर एक तुकबंदी पर एक कमेंट पर कमेंटः
मेरी कविता पर "44416 फ्रेंड्स और एक कमेंट आपकी कविता की औकात का बयान करता है", आपका कमेंट आपके बौद्धिक स्तर का बयान जरूर करता है. रचनाकार लोगों की रुचियों के हिसाब से रचना नहीं करता, रुचियां निर्मित करता है. रचना की गुणवत्ता का निर्णय पाठक करता है. आपकी राय का स्वागत है. वैसे भक्त तोताखोरी करते करते दिमाग का इस्तेमाल भूल जाता है, अगर करते तो कविता के कथ्य का खंडन-मंडन करते निजी आक्षेप की फतवेबाजी नहीं. इस कविता की बात नहीं, सामान्य रूप से समर्थन का संख्याबल किसी बात की गुणवत्ता का मानक नहीं होता बल्कि वह एक खास देश-काल की सामाजिक चेतना के विकास के स्तर का द्योतक होता है. जब सुकरात पर मुकदमा चल रहा था तो बापर भीड़ उनकी मौत की मांग के नारे लगा रही थी, इससे उनकी बात तो गलत नहीं हो गयी? सुकरात आज ढाई हजार साल बाद भी सच्चाई के लिए जान की बाजी लगा देने की प्रेरणा बने हुए हैं. सुकरात समय की सामाजिक चेतना से बहुत आगे थे. उन नारेबाजों में किसी का नाम कोई जानता है या उस नेता एनीटस का ही जिसने उनपर मुकदमा चलाया था? थोड़ा दिमाग का भी इस्तेमाल कीजिए क्योकि दिमाग का इस्तेमाल ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करता है. भगत सिंह के विचारों का अगर गांधी जितना समर्थन होता तो शायद उन्हें फांसी न होती और शायद आज़ादी की लड़ाई का चरित्र अगल होता और शायद आजाद देश में मजदूर-किसान का राज होता. इतिहास का निर्धारक तत्व होता है, सामाजिक चेतना का विकास. इसीलिए सामाजिक बेहतरी के परिवर्तनकामी हर सचेत नागरिक का कर्तव्य है सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की प्रक्रिया में योगदान और जब संख्याबल जनवादी चेतना से लैस हो जनबल बन जाएगा तब समाज बदल देगा. भक्तिभाव आत्मघाती नैतिक रोग है, इससे निज़ात पाना व्यक्तित्व के तार्किक और मानवीय विकास के लिए श्रेयष्कर है.
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