Tuesday, March 14, 2017

समाजवाद 1

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: (भाग 1)

समता का इतिहास: बुनियाद
ईश मिश्र
भूमिका
      इतिहास का गतिविज्ञान बहुत बार पूर्वानुमानों को ख़ारिज करते हुए अपने नियमों का स्वफूर्त अन्वेषण करता है जिसके सबसे प्रामाणिक गवाह हैं, रूसी क्रांति के दुनिया को हिला दिने वाले दस दिन (टेन डेज़ दैट शुक द वर्ल्ड )। 8 नवंबर 2016 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक नोटबंदी की घोषणा बाद बैंकों और एटीम की कतारें और बैंकों और एटीयमों की नगदीविहीनता तथा जनता की त्राहि-त्राहि, अमेरिका के समाजवादी पत्रकार जॉन रीड की इस पुस्तक, टेन डेज़ दैट शुक द वर्ल्ड में वर्णित मार्च क्रांति के बाद मध्यमार्गी समाजवादी नेता अलेक्जेंडर केरेंस्की की कार्यवाहक सरकार के दिनों की उथल-पुथल और आमजन की  बेहाली याद दिला रही थी। जून-जुलाई 1917 में पेत्रोगार्द की गलियों में ब्रेड; दूध; केरासिन जैसी जरूरतों के लिए भयानक सर्दी और बारिस में सूर्योदय के पहले से ही विशाल कतारों में शाम तक बारी का इंतजार के बाद खाली हाथ लौटते लोगों की हालत दिन भर बैंकों की कतार से खाली हाथ लौटते लोगों सी रही होगी। इनमें ज्यादातर गोद में बच्चे लिए  महिलाएं थीं। यदि अर्थतंत्र पर नोटबंदी के दूरगामी कुप्रभावों पर अर्थशास्त्रियों की राय सही होती है तो हालात उसी तरह बदतर होते जाएंगे और असंतोष वैसे ही बढ़ता जाएगा जैसा उस समय रूस में हुआ था। यहां मकसद कॉरपोटी लूट के चलते बैंकिंग-संकट से निपटने के लिए थोपी नोटबंदी से मचे हाहाकार और प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका की पृष्ठभूमि में रूस के धनिकों, व्यापारियों और महाजनों (बैंकरों) की लूट, जमाखोरी तथा रोजमर्रा की जरूरतों की तस्करी से मचे हाहाकार की तुलना करना नहीं है, बल्कि महज यह पीड़ा साझा करना है कि काश इस  जनाक्रोश को क्रांतिकारी अंजाम देने वाला क्रांतिकारी चेतना से लैस बॉलसेविक दल जैसा कोई संगठन होता! लेकिन इतिहास की भावी गति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। मार्च 1917 में कौन जानता था कि आरयसयलडी (रसियन सोसलिस्ट डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी) का अल्पमत धड़ा, बोलसेविक दल दस महीनों में जनसमर्थन से इतना सशक्त हो जाएगा कि दस दिनों में दुनिया की राजनीति और राजनैतिक विमर्श में तहलका मचा देगा। रूसी क्रांति ने हाशिए पर टिके, मार्क्सवाद और समाजवाद को अंतरराष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला कर साम्राज्यवादी खेमें में तहलका मचा दिया। नवंबर क्रांति दुनिया में कामगर आंदोलनों/संगठनों तथा उपनिवेश विरोधी आंदोलनों का प्रेरणा श्रोत बन गयी।
इस लेखमाला का मकसद महान नवंबर क्रांति के शताब्दी वर्ष के अवसर पर समाजवादी आंदोलनों और विचारों की एक क्रमबद्ध संक्षिप्त समीक्षा है। यहां समाजवाद से हमारा तात्पर्य समानता, स्वतंत्रता और सामूहिता के सिद्धांतों पर आधारित सामाजिक-राजनातिक प्रणालियों और विचारों से है, आधुनिककाल में जिसकी शुरुआत रूसो के सामूहिक संप्रभुता के सिद्धांत से मानी जा सकती है, यद्यपि इसकी जड़े प्राचीन कालीन भारत में बौद्ध और यूरोप में स्टोइक तथा एपिक्यरियन दर्शन प्रणालियों तक जाती हैं.
वैचारिक बीजारोपण
वैसे तो समतामूलक, सामूहिक जीवन शैली के व्यापक अर्थों में, समाजवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि निजी संपत्ति और फलस्वरूप समाज में वर्ग विभाजन के आगाज के साथ शुरू हुई मानव सभ्यता का। लेकिन निजी स्वामित्व और श्रम के साधनों से वंचित ‘स्वतंत्र’ श्रम पर आधारित नवोदित पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था और सिद्धांत के रूप में समाजवाद की अवधारणा के विकास का इतिहास फ्रांसीसी और अमेरिकी क्रांतियों के बाद का है, जिसका वैचारिक बीजारोपण सहभागी जनतंत्र और सामूहिक संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के विद्रोही दार्शनिक जीन जैक्स रूसो ने किया। अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांति के बाद समाजवाद, व्यापक विमर्श एवं प्रयोग का विषय बन गया और सर्वहारा आंदोलनों का मकसद। पूंजीवादी औद्योगिक क्रांति और इसका व्यक्ति-केंद्रित दर्शन इंग्लैंड में फल-फूल रहे थे और पूंजीवाद तथा व्यक्तिवाद के क्रमशः वैकल्पिक समाजवादी आंदोलन और सामूहिकतावादी दर्शन फ्रांस में। रूसो और फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित समाजवादी विचारों, संगठनों और आंदोलनों को, कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के कार्ल मार्क्स के सहलेखक फ्रेडरिक एंगेल्स वायवी(यूटोपियन) समाजवाद की संज्ञा देते हैं तथा अपने और मार्क्स के सिद्धांत को वैज्ञामनिक समाजवाद की। वायवी समाजवाद के विचारों और प्रभाव की चर्चा अगले भाग में की जाएगी। औद्योगिक समाज में के विकल्प के रूप में, मार्क्स व एंगेल्स के वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत का पूर्वानुमान रूसो के सामूहिक संप्रभुता के सिद्धांत में देखा जा सकता है। 1917 में रूस में बॉलसेविक क्रांति और संयुक्त समाजवादी सोवियत संघ (सोवियत संघ) की स्थापना के बाद समाजवाद विश्व भर में राजनैतिक प्रयोगों और विमर्श के केंद्र में आ गया। सोवियत संघ के पतन के बाद भी समाजवाद राजनैतिक सरोकार और विमर्श का विषय बना हुआ है क्योंकि इतिहास का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है। यह नियम पूंजीवाद के बारे में भी लागू होता है। और पूंजीवाद का व्यावहारिक विकल्प समाजवाद ही है।
पाश्चात्य अर्थों में सभ्यता का उदय समाज में वर्गविभाजन और दास प्रथा के आगाज के साथ शुरू हुई तथा असमान सामाजिक-आर्थिक संबंधों की सुरक्षा में राज्य और कानून अस्तित्व में आए. भारत में वर्गविभाजन वर्णाश्रम व्यवस्था के रूप में शुरू हुआ जिसे कालांतर में धार्मिक जामा पहनाकर इसका श्रेय/दोष ब्रह्मा नामक कल्पित दैवीय शक्ति के मत्थे मढ़ दिया गया।  समानता और सामूहिकता आदिम कबीलों की अंतर्निहित जीवन शैली थी। पशुधन के रूप में संपत्ति के आगाज और मानव-मस्तिष्क की क्षमताओं एवं परिणामस्वरूप तकनीकी विकास के चलते भरण-पोषण की अर्थव्यवस्था अतिरिक्त (सरप्लस) उत्पादन की अर्थ व्यवस्था में तब्दील हो गया और समाज असमान वर्गों में बंट गया। यूरोपीय सभ्यता (ज्यादातर सभ्यताओं) की शुरुआत सर्वाधिक क्रूर शोषण पर आधारित, दास प्रथा और उसके दार्शनिक वैधता के सिद्धांतो से हुआ। जहां प्राचीन यूनान के अरस्तू जैसे कुलीन दार्शनिक वर्ग शासन और दासता जैसी परंपराओं को वैध तथा स्वाभाविक मानते थे वहीं ऐंटीफोन और डेमोक्रेटस जैसे दार्शनिक दासता समेत तमाम असमानताओं को अप्राकृतिक। ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा लगभग ढाई हजार पहले ऐंटीफोन की उक्ति, ‘स्वतंत्रता हर व्यक्ति का जन्म-सिद्ध प्राकृति अधिकार है’ की पुनरावृत्ति लगता है। चौथी सदी ईशा पूर्व यूनानी दार्शनिक प्लेटो का साम्यवाद का सिद्धांत महज शासक वर्गों की सामूहिक जीवन प्रणाली का सिद्धांत था। तीसरी सदी ईशा पूर्व यूनान में प्रकृतिवाद के प्रवर्तक समझे जाने वाले स्टोइकवादी दार्शनिकों ने व्यक्तियों की स्वाभाविक बौद्धिक/आध्यात्मिक समानता और प्रकृति के साथ सामंजस्य का सिद्धांत दिया था. यहां मकसद अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांति के बाद शुरू आधुनिक समाजवाद के विमर्श को प्लेटो या थॉमस मूर (16वीं सदी) के सामूहिकतावादी सिंद्धांतो से जोड़ना नहीं है। ऐसा करने से औद्योगिक समाज की  विशिष्ट समस्याओं से विषयांतर का खतरा है। यहां मकसद सिर्फ यह इंगित करना है कि एक अर्थ में, समाजवाद और जनतंत्र की भावनाएं उतनी ही पुरानी हैं जितनी की मानव सभ्यता।
व्यक्तिवाद और आत्मकेंदित व्यक्ति की अवधारणा पूंजीवाद की विशिष्टता है जिससे पहले लोग पारस्परिक सहयोग और सहभागिता से सामुदायों में रहते थे। आत्मकेंद्रित तथा आत्म-हित प्रेरित व्यक्तिवाद की मिथ्या अवधारणा पूंजीवाद की विशिष्ट विशेषता है, जिसे सैद्धांतिक जामा पहनाया उदारवादी चिंतकों ने। पूंजीवाद की नई असामानताओं और मजदूरों की परतंत्रता पर परदा डालने के लिए, उन्होंने “समान और स्वतंत्र” तथा स्वायत्त व्यक्तियों की संकल्पना का सहारा लिया।  रूसो ने व्यक्ति की इस मिथ्या अवधारणा का खंडन उस वक्त किया जब पूंजीवीद अपने बाल-काल में था। फ्रांसीसी क्रांति के वैचारिक जनक माने जाने वाले दर्शनिक, रूसो ने उदारवादी मिथ्या को ध्वस्त करते हुए साबित किया कि व्यक्ति का अस्तित्व स्वायत्त नहीं बल्कि एक सामाजिक इकाई के रूप में है। कोई एक स्वायत्त व्यक्ति के रूप में गुलाम या मालिक नहीं होता बल्कि उसकी यह स्थिति समाज में और समाज के जरिए कुछ खास सामाजिक संबंधों के तहत होती है, जिसे लगभग 100 साल बाद, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने उत्पादन के सामाजिक संबंध के रूप में परिभाषित किया।
पहले उदारवादी चिंतक, इंगलैंड के थॉमस हॉब्स ने एक सर्वशक्तिमान शासक की आवश्यकता साबित करने के लिए व्यक्तिवाद का प्रतिपादन किया कि समाज समान और स्वतंत्र व्यक्तियों का समुच्चय है और फिर व्यक्ति की तर्कशील; अहंकारी; स्वार्थी; झगड़ालू तथा मरते दम तक संचय में मशगूल अवधारणा गढ़कर साबित किया कि स्वतंत्र मनुष्य स्वभावतः आपस में लड़ मरते हैं। हर कोई बाकी सब पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता लेकिन सब मानसिक और शारीरिक शक्ति में लगभग बराबर हैं इसलिए व्यक्तियों की यह इच्छा हर किसी का हर किसी के विरुद्ध युद्ध की स्थिति पैदा करता है जिससे हर व्यक्ति अचानक मौत के भय में जीता है। व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समानता बरदान के बजाय अभिशाप है। इसलिए ‘सुख-चैन’ से जीवन व्यापन के लिए लोगों को चाहिए कि स्वैच्छक पास्परिक अनुबंध के तहत सभी अधिकार और शक्तियां एक शक्तिशाली शासक को समर्पित कर दें। गौरतलब है कि यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन काल के दौरान सत्ता की बैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर गायब हो चुका था। लगभग 100 साल बाद, संपत्ति को सब बुराइयों की जड़ मानने वाले रूसो ने इस मान्यता का खंडन किया। लोग स्भावतः झगड़ालू नहीं होते वे चीजों को लेकर लड़ते हैं।उदीयमान पूंजीवादी राष्ट-राज्य की वैधता के श्रोत के रूप में उदारवाद ने एक काल्पनिक सामाजिक अनुबंध का अन्वेषण किया, जिसे रूसो गुलामी का अनुबंध कहते हैं।
य़ूरोप में नवजागरण के दौरान नायकों की एक नई प्रजाति जन्म ले रही थी, संपत्ति के नायक। यह नया नायक डेढ़ सौ सालों में परिधि से चलकर केंद्र में स्थापित हो गया। पूंजीवाद के पहले सर्वमान्य प्रवक्ता और संपत्ति के असीम अधिकार के सिद्धांतकार, जॉन लॉक बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं कि शासन एक गंभीर मसला है, इसकी जिम्मेदारी उसी को सौंपी जा सकती है जो अपार संपत्ति अर्जित कर अपनी काविलियत साबित कर चुका हो। यहां उदारवाद की विवेचना की गुंजाइश नहीं है। लेकिन चूंकि विचारधारा के रूप में समाजवाद का उदय और विकास उदारवाद के निषेध के रूप में हुआ, जिसने विकास की जनोंमुख समाजवादी अर्थव्यवस्था को मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित पूंजीवाद के विकल्प के रूप में पेश किया, इसलिए एक विहंगम दृष्टिपात अप्रासंगिक नहीं है।  
इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत प्रयलंकारी दुष्परिणामों के साथ हुई। कारीगर और शिल्प उद्योग से जुड़े लाखों लोग तथा लगभग सारे के सारे स्वतंत्र, छोटे किसान बेघर-बेदर कर दिये गए। प्रतिरोध अशक्त था और ऩई उत्पादन पद्धति में उत्पादन की नई तकनीकों के उफान के बीच उच्च वर्गों के सभी तपके बाजार-अर्थतंत्र में अंध आस्था के साथ इस बात पर एकमत थे कि नई व्यवस्था फिलहाल तो ज्यादातर को विपन्न बना रही है लेकिन अंततः सभी संपन्न हो जाएंगे। उसी तर्ज पर आज भूमंडलीकरण से लेकर नोटबंदी तक के समर्थक लोगों की अनचाही दयनीयता को भविष्य का निवेश बता रहे हैं।18वीं शताब्दी में अंग्रजी उपनिवेश, आयरलैंड में महामारी में लाखों मौतों को नसाऊ सीनियर और रॉबर्ट माल्थ्यूज जैसे उदारवादी अर्थशास्त्री जनसंख्या नियंत्रण के सिद्धांत का परिणाम बता रहे थे। 19वीं शताब्दी में असह्य काम के हालात, दयनीय मजदूरी और झुग्गी झोपड़ियों की जिंदगी जीते मजदूरों में असंतोष और प्रतिरोध पैदा होना शुरू हुआ और 19वीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में शुरुआती समाजवादी मजदूरों के प्रतिरोध के प्रवक्ता बन गए और परिणाम स्वरूप इंग्लैंड में पहली प्रभावशाली ट्रेडयूनियन का गठन हुआ।
नवोदित आत्मनियंत्रित पूंजीवादी अर्थतंत्र में श्रम एक सर्जनात्मक मानव कर्म से खरीद-फरोख्त की सामग्री में तब्दील हो गया। शहरों में लेबर चौराहों की मौजूदगी इसी का परिचायक है। रूसो के समकालीन, इतिहास को निजी मुनाफाखोरी का अनचाहा (इनऐडवर्टेंट) परिणाम मानने वाले जाने-माने उदारवादी अर्थशास्त्री, ऐडम स्मिथ सामाज को बाजार बताते हैं जिसमें हर व्यक्ति व्यापारी है, जिसके पास बेचने को कुछ और नहीं है, उसके पास अपनी चमड़ी है। उनके अनुसार, बाजार यदि राज्य के हस्तक्षेप से  ‘स्वतंत्र’ हो तो वह अपने ‘अदृश्य होथों’ से अपना विकास करने में, सक्षम है। स्मिथ के अदृश्य हाथ, मार्क्स और एंगेल्स को दिख गए और उन्होने आधुनिक राष्ट्र-राज्य को पूंजीपतियों के सामान्य हितों के प्रबंधन की कार्यकारिणी समिति बताया। मजदूर अपनी श्रमशक्ति मालिक (खरीददार) को सुपुर्द कर एक नई पराधीनता का शिकार बन गया। श्रम के साधन से स्वतंत्रता के साथ कानूनी रूप से दोतरफा स्वतंत्र हो गया वह बाजार की शर्तों पर श्रम बेचने को स्वतंत्र था तथा ऐसा न कर आत्महत्या करने के लिए. 1844 में प्रकाशित फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक कंडीसन ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड में औद्योगिक मजदूरों की बदहाली का वर्णन दिल दहला देता है. शोषण और ज़ुल्म बढ़ता है तो असंतोष और प्रतिरोध भी पैदा होता है। मेहनतकश की मुक्ति का मतलब पूंजीवाद के अंत में ही है, ऐसे विचार जोर पकड़ने लगे। यही उदीयमान समाजवादी आंदोलनों का मूलमंत्र बन गया।
19वीं सदी के समाजवादी आंदोलनों और विचारों की चर्चा 18वीं सदी के विद्रोही दार्शनिक रूसो की विरासत के बिना अधूरी रह जाएगी। क्यूबन क्रांति के बाद फिदेल कास्त्रो ने कहा था कि क्रांति के समय उनकी जेब में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो नहीं, रूसो के सोसल की प्रति थी। निजी संपत्ति के चलते सामाजिक असमानता को सब बुराइयों की जड़ बताने वाले असमानता के उदय और विकास पर विमर्श में वर्णित रूसो के विचार उत्पादन पद्धति पर आधारित मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का पूर्वानुमान कराते हैं। सहभागी जनतंत्र में साझी इच्छा(जनरल विल) का रूसो का सिद्धांत सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत के लिए एक आदिम रुमानी मॉडल पेश करता है। रूसो सब बुराइयों की जिम्मेजारी  निजी संपत्ति के अन्वेषक के मत्थे मढ़ते हैं और मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व मजदूरों की दुर्दशा का कारण है। रूसो ने कानून को जनता के विरुद्ध दूसरा फरेब बताया, पहला निजी संपत्ति का उदय। “जिस व्यक्ति ने सबसे पहले जमीन का एक टुकड़ा घेर कर उस पर स्वामित्व का दावा किया, और लोग इतने भोले थे कि उसके दावे को मान लिया, वही सभ्यता का जनक है”। “कानून ने लूट को कानूनी अधिकार में तब्दील कर दिया. कुछ लोगों की संपत्ति की सुरक्षा में संपूर्ण जनता की ताकत से की जाने लगीकुछ लोगों की संपत्ति की सुरक्षा में संपूर्ण जनता की ताकत से की जाने लगी”। फ्रांसीसी क्रांति का जैकोबिनिज्म का चरण, सिद्धांत और काफी हद तक व्यवहार में भी, रूसोवादी था। क्रांति के बाद स्थापित गणतंत्र का नेतृत्व ज्यादातर रूसो के अनुनायियों का था। रूसो के सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की यहां गुंजाइश नहीं है, बस इतना कि वे सामूहिक संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक हैं।
सत्ता की वैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर के मंच से बाहर हो जाने के बाद उदारवादी चिंतकों ने सत्ता की वैधता का श्रोत ‘जनता’ की अमूर्त अवधारणा में स्थापित कर दिया जिसका आम इंसान के अर्थ में वास्तविक जनता से कुछ लेना देना नहीं है। रूसो ने लोगों में सत्ता के उद्गम की उदारवादी मान्यता से सहमति जताते हुए कहा कि सत्ता का उद्गम यदि जनता है तो वह उसी के पास रहनी चाहिए। उन्होने शासक-शासित की विभाजन रेखा को मिटा दिया। रूसो की व्याख्या तो तथ्यपरक है लेकिन उनका समाधान वायवी (यूटोपियन), पूर्व आधुनिक समतामूलक ग्रामीण समाजों में कारगर हो सकता है, जिसमें ग्राम सभा की तर्ज पर लोग समय-समय पर मिल कर कानून बनाएं, लागू करें और पालन करें। गांधी का ग्राम सभा आधारित, जनतंत्र का सामुद्रिक वृत्त का सिद्धांत रूसो के जनरल विल सिद्धांत से प्रभावित लगता है।  औद्योगिक समाज में वैज्ञानिक, समाजवादी सिद्धांत के लिए इतिहास को मार्क्स-एंगेल्स का इंतजार करना पड़ा। “किसी को भी जनरल विल (सामूहिक इच्छा) के उल्संघन की इजाजत नहीं होगी, दूसरे शब्दों में हर किसी को आजाद होने को लिए बाध्य किया जाएगा”। गुलामी अधिकार नहीं हो सकता. इस वाक्य में सर्वहारा की तानाशाही की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। रूसो मॉंटेस्क्यू, वोल्तेयर, दिदरो आदि अपने समकालीन बौद्धिक हस्तियों से इस मामले में अलग थे कि उन्होने एक नई चिंतन प्रक्रिया का उद्घाटन किया जिसके तहत समाजवाद उदारवाद से अलग पहचान बना सका। रूसो ने बस्तिले पर लगातार बमबारी का नारा देकर साबित किया कि क्रांति न महज वांछनीय है, बल्कि संभव भी। 
चूंकि शुरुआती दौर के समाजवादियों में ज्यादातर रूसोवादी थे इसलिए रूसो और उनके सिद्धांत की संक्षिप्त चर्चा प्रासंगिक है। प्लेटो, अरस्तू आदि ज्यादातर दार्शनिक प्रायः असाधारण संभ्रांत पृष्ठभूमि के रहे हैं जिनके विचारों में  के आमजन के प्रति अजीब अवमानना के भाव मिलते हैं, कबीर की तरह 18वीं शताब्दी को आवारा दार्शनिक, जीन जैक्स रूसो इसके अपवाद हैं जिन्होंने आमजन को राजनैतिक विमर्श के केंद्र में इस तरह स्थापित किया कि सारे उदारवादी(पूंजीवादी) जनतांत्रिक राज्यों के संविधान निर्माताओं को आमजन के नाम पर सपथ लेने को मजबूर कर दिया. रूसो खुद एक आम आदमी थे जिन्होंने भूख के बारे में सिर्फ पढ़ा नहीं बल्कि जिया था। रूसो की जीवनी के विस्तार पर चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है लेकिन आमजन में इतिहास के नए नायक तथा सामूहिकता के शासन का अन्वेषण कर उन्होंने राजनैतिक विमर्श का एजेंडा ही बदल दिया. किसी दार्शनिक के विचारों पर उसके संदर्भ और अनुभवो का अपरिहार्य असर पड़ता है।
रूसो का जन्म 1712 में जेनेवा में हुआ। पैदा होते ही उनकी मां का निधन हो गया और दायियों तथा चाची बुआओं ने उनका पालन-पोषण किया। उनके पिता पेशे घड़ीसाज थे और तेवर से साहित्य के शौकीन थे और जब रूसो 12 साल के थे तो तलवार के एक द्वंद्व में हारकर रूसो को अपने भाई के हवाले कर तड़ीपार हो गए। रूसो के चाचा ने उन्हें स्कूल में भर्ती कराया लेकिन बिना कुछ सीखे ही उन्होने स्कूल छोड़ दिया। चाचा ने एक लॉ फर्म में उन्हें नौकरी दिलाया जहां से वे “अनुशासनहीनता” के चलते निकाल दिए गए। फिर 3 साल एक नक्काशखाने में प्रशिक्षु का काम किया। जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा, स्वीकारोक्ति (द कंफेसंस)  में उन्होंने लिखा है कि नक्काशी का काम तो उन्हें नापसंद नहीं था लेकिन मालिक का क्रूर व्यवहार उन्हें सालता था।1728 में 16 वर्ष की उम्र में दिशाविहीन यायावरी पर निकल गए और भटकते हुए फ्रांस के सेवॉय शहर में पहुंच गए और अगले 14 साल घरेलू नौकर से लेकर रईश महिलाओं के सामान वाहक जैसे काम से गुजर-बसर और स्वाध्याय करते हुए उन्होने संगीत सीखा और 1942 में पेरिस पहुंचकर संगीत के ट्यूसन से आजीविका चलाने लगे। पेरिस में इनकी मुलाकात एक और देहाती युवक दिदरो से मुलाकात हुई और दोनों ने ‘पेरिस के बौद्धिक जगत में तूफान खड़ा कर देने’ का मन बनाया और बवंडर खड़ा कर दिया। दिदरो द्वारा संपादित एंसाक्लोपीडिया फिलॉस्फी यूरोप में प्रबोधन आंदोलन (एंलाइटेन आंदोलन) का केंद्र बन गया। यहां, यूरोप में बौद्धिक विमर्श एक नई दिशा देने वाले, इस आंदोलन की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है जिसे लाक्षणिक तौर पर जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट के एक उद्धरण से परिभाषित किया जा सकता है। ‘साहस करो सोचने का और हिम्मत अपने विवेक को इस्तेमाल करने का’।
1749 में पेरिस की देज़ों अकदमी की कला और विज्ञान द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में कला और विज्ञान को मानवता के लिए अभिशाप बताने वाले रूसो के निबंध को प्रथम पुरस्कार मिला और रातोंरात रूसो सेलिब्रिटी बन गए। प्रथम विमर्श के रूप में जाने-जाने वाले इस निबंध से अधिक ख्याति उन्हें प्रबोधन काल की मुख्यधारा के विपरीत उनके विस्मयकारी विचारों पर प्रतिक्रियाओं और उनके जवाबों से मिली। जहां इस निबंध ने उन्हें बौद्धिक जगत में पहचान प्रदान की  वहीं 1755 में असमानता की उत्पत्ति और विकास पर आयित निबंध प्रतियोगिता में उनके निबंध ने उदारवाद की व्यक्तिवादी सामाजिक चेतना की मुख्यधारा की वैकल्पिक सामूहिकतावादी, बौद्धिक चिंतनधारा का उद्घाटन कर यूरोप के बौद्धिक जगत में तहलका मचा दिया. यह निबंध यद्यपि पुरस्कृत तो नहीं हुआ, लेकिन दूसरे विमर्श के नाम से विख्यात इस निबंध ने भावी समाजवादी चिंतनधारी की बुनियाद रखा। बुर्जुआ उदारवाद के जनक माने जाने वाले जॉन लॉक की संपत्ति के महिमामंडन को चुनौती देते हुए उन्होने निजी संपत्ति के आगाज से उत्पन्न असमानता को समाज की सभी बुराइयों जड़ बताया। सामाजिक बुराइयों की जड़ को उन्होंने परा-भौतिकी से सामाजिक भौतिकी में प्रतिस्थापित कर अपने समकालीनों को सकते में डाल दिया। ‘जिस व्यक्ति ने जमीन का एक टुकड़ा घेर कर उसे अपना घोषित कर दिया और भोले-भाले लोगों ने उसकी बात मान ली वही सभ्यता का संस्थापक है’। कुछ की संपत्ति की रक्षा सबकी ताकत से करने के लिए जनता के साथ ‘दूसरे फरेब के रूप में कानून’ बनाया गया जिसने चोरी को ‘कानूनी अधिकार’ में तब्दील कर दिया।
दूसरे विमर्श में रूसो समस्या का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं कि संपत्तिजन्य असमानता ही समाज में बहुसंख्यक लोगों की दुर्दशा का कारण है। अपनी कालजयी (क्लासिक) पुस्तक सामाजिक अनुबंध में जिसकी शुरुआत सुविदित वाक्य “मनुष्य पैदा स्वतंत्र होता है लेकिन अपने को चारों तरफ से सांकलों में जकड़ा हुआ पाता है” करते हैं, सामूहिक इच्छा में रुमानी समाधान पेश करते हैं। “यदि गुलामी बल पूर्वक लादी गई है तो  बल पूर्वक गुलामी के बंधन तोड़ना न सिर्फ जायज है बल्कि वांछनीय और अपरिहार्य भी है”। क्रांति की वांछनीयता और संभावना की बात तो करते हैं, लेकिन औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दिनों में औद्योगिक समाज की जटिलताओं से अनभिज्ञता के चलते शासक और शासित में भेद मिटाने वाला उनका समाधान पूर्व आधुनिक ग्रामीण समाज के लिए उपयुक्त हो सकता है लेकिन आधुनिक औद्योगिक समाज के लिए अव्यहारिक। जहां सामाजिक अनुबंध के उनके पूर्ववर्ती सिद्धांतकार हॉब्स और लॉक संप्रभुता का श्रोत जनता को बताकर उनसे शासन का अधिकार वाह्य संप्रभुता(सरकार) में हस्तांतरित करवाते हैं, वहीं रूसो का व्यक्ति अधिकार किसी वाह्य शक्ति को नहीं बल्कि अपनी सामूहिकता को स्थांतरित करता है। अकेले व्यक्ति के रूप में जो प्राकृतिक अधिकार और शक्ति खोता है वह सामूहिकता के समान सदस्य के रूप में प्राप्त करता है। रूसो के से अनुबंध का मकसद “एक ऐसी सामूहिक शक्ति का निर्माण है जो संगठित ताकत से सामूहिकता के हर सदस्य की जान-माल की हिफाजत कर सके”। लोगों की आम सभा की संसतुति के बिना कोई भी कानून कानून नहीं हो सकता। जनादेश कानून को लागू करने के लिए मजिस्ट्रेट लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि होंगे और लोगों की अगली आमसभा तक कार्यभार सभांलेंगे। इस सिद्धांत को अल्प जीवी पेरिस कम्यून में लागू किया गया था जिसमें मजिस्ट्रेट कम्यून के निर्वाचित प्रतिनिधि थे और कम्यून उन्हें कभी भी वापस बुला सकता था, जिनका वेतन एक आम कामगर के वेतन के बराबर होगा। पेरिस कम्यून पर लेखमाला के अगले खंड में चर्चा की जाएगी।
रूसो का सिद्धांत प्रत्यक्षतः समाजवाद का सिद्धांत नहीं कहा जा सकता है क्योंकि समाजवाद शब्द का तब तक आगाज नहीं हुआ था। रूसो के सामाजिक अनुबंध में न तो निजी संपत्ति के उन्मूलन की बात है न ही सामाजिक स्वामित्व की लेकिन संपत्ति सीमित होगी। किसी के पास न तो इतना अधिक होगा कि वह किसी को खरीद सके न ही इतनी कम कि किसी को आजीविका के लिए श्रम बेचने की नौबत आए। कुल मिलाकर  रूसो की सामूहिक इच्छा छोटे-छोटे उत्पादकों का सहभागी जनतंत्र है जिसमें हर व्यक्ति कानून का अनुमोदन करते समय शासक है और पालन करते समय शासित, नागरिक. कानून नागरिक धर्म है जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता क्योंकि कानून उसी ने बनाया है। यद्यपि रूसो का सिद्धांत सीधे समाजवादी सिद्धांत तो नहीं है, लेकिन शासक-शासित का भेद मिटाकर आम आदमी को राजनैतिक दर्शन के केंद्र में लाकर तथा उदारवादी व्यक्तिवाद का खंडन कर सामूहिकता को सामाजिक जीवन का केंद्र बनाकर रूसो ने भावी समाजवादी विचारों एवं आंदोलनों का पथ प्रशस्त किया एवं फ्रेरणा प्रदान किया। क्यूबन क्रांति के बाद फिदेल कास्त्रो ने कहा था कि क्रांति के समय वे कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो नहीं बल्कि रूसो की सोसल कांट्रैक्ट की प्रति रखते थे। महात्मा गांधी के विकेंद्रीकृत जनतंत्र सामुद्रिक वृत्त (ओसियानिक सर्कल) की मूलभूत इकाई ग्राम सभा की प्रेरणा भी रूसो का सहभागी जनतंत्र जनरल विल ही लगती है जो जलरल विल की ही तरह पूर्व आधुनिक ग्रामीण समाज के लिए ही उपयुक्त है।   
समाजवाद का पहला जिक्र कोआपरेटिव मैगजीन (नवंबर 1827) में मिलता है उसी साल राबर्ट ओवेन अमेरिका में सहकारी उत्पादन और सामुदायिक जीवन का प्रयोग अमेरिका में कर रहे थे।समाजवाद की ही तरह साम्यवाद (कम्युनिज्म) का विचार भी इंग्लैंड में नहीं फ्रांस की धरती पर ही जन्मा। यह पूंजीवादी संस्थानों को समाप्त कर सत्ता पर मजदूरों के अधिकार की स्थापना का सिद्धांत था। यह बिल्कुल फ्रांसीसी मामला था। धीरे-धीरे इसका प्रसार पेरिस के जर्मन और अन्य देशों के प्रवासी मजदूरों में होने लगा। फ्रांस में समाजवाद उन लोगों का विचार और आंदोलन था जो पूंजीवाद को खत्म किए बिना उसमें सुधार के जरिए असमानता खत्म करना चाहते थे। फ्रेडरिक एंगेल्स ने इनके समाजवाद को वायवयी समाजवाद कहा तथा कम्युनिस्ट साम्यवाद को वैज्ञानिक, जिसका घोषणापत्र लिखने में वे मार्क्स के सहयोगी थे। संसदीय रास्ते समाजवाद पैरोकार इंग्लैंड में फेबियन समाजवादी और जर्मनी में कार्ल कौत्स्की द्वारा उद्घाटित सामाजिक जनतमंत्र (सोसल डेमोक्रेसी) यूटोपियन समाजवाद के वैचारिक वारिस हैं. य़ूटोपियन समाजवादियों में सेंट साइमन, राबर्ट ओवेन, चार्ल्स फूरियर और ऑगस्ट कॉम्टे प्रमुख थे। वायवी समाजवाद और फाबियन समाजवाद पर विस्तृत चर्चा इस लेखमाला के अगले खंड में की जाएगी।
      इस खंड का समापन करते हुए कहा जा सकता है कि जैसा कि 1959 में लिखे पूंजी का पूर्व-कथ्य माने जाने वाले ग्रंथ राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान (अ कंट्रीब्यूसन टू द क्रिटिक ऑफ पोलिटिकल इकॉनॉमी) में मार्क्स ने लिखा है समाज की भौतिक परिस्थियां सामाजिक चेतना का निर्धारण करती हैं और समाज में भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का निर्माण होता है और यह चरण उत्पादक शक्तियों के विकास से निर्धारित होता है. सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य अपना इच्छा से स्वतंत्र अन्य  मनुष्यों के साथ एक सामाजिक संबंध में प्रवेश करता है जिसे उत्पादन का सामाजिक संबंध कहते हैं और इन सामाजिक संबंधों के योग से समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण होता है। “भौतिक जीवन के उत्पादन की पद्धति सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक जीवन की समान्य प्रक्रियायों को आकार प्रदान करती है। मनष्यों के अस्तित्व का निर्धारण उनकी चेतना से नहीं होता बल्कि उनका भौतिक अस्तित्व से उनकी चेतना का निर्धारण होता है। विकास के एक खास चरण में समाज की उत्पादक शक्तियों और मौजूदा उत्पादन संबंधों में टकराव होता है..... क्योंकि ये उत्पादन संबंध उत्पादन के संबंधों को आगे ले जाने की बजाय उनके विकास में बाधक बन जाते हैं और तब सामाजिक क्रांति का एक दौर शुरू होता है”। आर्थिक मूल संरचना में परिवर्न से देर-सवेर सारी की सारी व्यवस्था ही बदल जाती है या यों कहे समाज में क्रांति आ जाती है। क्रांतियां किसी निर्वात से नहीं टपकतीं बल्कि क्रमिक विकास का परिणाम होती हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक नियम है कि क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन नितरंतर होता रहता है जो देर-सवेर क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन में परिपक्व होता है। इसलिए रूसी क्रांति को समझने के लिए जरूरी है कि नवंबर 1917 में रूसी क्रांति को समझने के फ्रांसीसी क्रांति से शुरू हुए क्रमिक क्रांति के विचारों और आंदालनों को समझना जरूरी है।                         
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग

दिल्ली 110007

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