Wednesday, March 29, 2017

मार्क्सवाद 48 (जय भीम लाल सलाम)

सही कहा साथी Kanwal Bharti ने "जाति मुख्य नहीं है, मुख्य है विचारधारा. जातीय सोच से बाहर निकलो और वर्गीय सोच बनाओ." अब वर्गीय ध्रुवीकरण होना चाहिए. शासक जातियां ही शासकवर्ग रहे हैं क्योंकि जमीन (उत्पादन के साधन) पर उन्हीं का अधिकार रहा है. दलित राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी है. अस्मिता/प्रतिष्ठा के अर्थों में दलित प्रज्ञा और दावेदारी का रथ अपनी यात्रा पूरी कर चुका. आज बड़ा-से-बड़ा ब्राह्मणवादी/जातिवादी भी सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह जाति-पांत में विश्वास रखता है, अंदर कितना भी पूर्वाग्रह का जहर क्यों न भरा हो. यह जातिवाद उंमूलन के विचार की सैद्धांतिक विजय है, इसका अमल अब समय का मामला है. कितना समय कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि सबसे बड़ी अड़चन अधोगामी ताकतों का ताकतवर होना है. शिक्षा की सैद्धांतिक, सार्वभौमिक सुलभता से वर्चस्व पर खतरा देख ब्राह्मणवाद ने हिंदुत्व का रूप ग्रहम कर लिया और अब तो राष्ट्रवाद बन गया है. रोहतास जिले में कुर्मी जमींदार ने एक नोनिया और एक लोहार मजदूरों को बकाया मजदूरी मांगने पर नंगा करके, बांध कर बेरहमी से पीटा. लोग तमाशा देख रहे थे. उनके अंग प्रत्यंग को गर्म लोहे से दागा. प्रतिरोध में वर्गीय ध्रुवीकरण हो रहा है वहां. भूमिहीन जातियां एक तरफ और राजपूत तथा कुर्मी जमींदार जातियां एक तरफ. शिक्षा के माध्यम से वंचितों के सशक्तीकरण से घबराकर ब्राह्मणवादी प्रतिष्ठान ने शिक्षा पर हमला बोल दिया है. रोहित की शहादत से निकला जयभीम-लालसलाम का नारा फिलहाल फीका पड़ता दिख रहा है. यहां के कम्युनिस्ट आंदोलन ने यदि भारतीय परिस्थियों में मार्क्सवाद के सिद्धांतों की व्याख्या करते तो शायद दलित आंदोलन की अलग से जरूरत न पड़ती. यूरोप में बुर्जुआ डेमोक्रेटिक आंदोलनों ने जन्म आधारित सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था. भारत में उस तरह का कोई आंदोलन हुआ नहीं, इसलिए यहां यह अधूरा काम भी वामपंथियों का था. यद्यपि जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध वामपंथी ही जुझारू संघर्ष किए लेकिन जाति उन्मूलन को औपचारिक सैद्धांतिक मुद्दा नहीं बनाया जो अंबेडकर ने किया. देर आए दुरुस्त आए और आर्थिक तथा सामाजिक संघर्षों की प्रतीकात्मक एकता को जयभीम-लालसलाम नारे में व्यक्त किया. इस प्रतीकात्मक एकता को सैद्धांतिक-व्यवहारिक रूप देने की जरूरत है, जब भी सामाजिक न्याय-आर्थिक न्याय के संघर्षों की एका बनी है, थोड़ी बहुत सफलता मिली है. फौरी जरूरत शिक्षा को प्रतिक्रियावादी हमले से बचाना है क्योकि शिक्षा ही वंचित के सशक्तीकरण का ठोस माध्यम है. सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में जितनी बाधक ब्राह्मणवादी ताकतें हैं उतनी ही नवब्राह्मणवादी जो ब्राह्मणवाद और कॉरपोरेटवाद की बजाय वामपंथ को सामाजिक न्याय का दुश्मन मानती हैं. इस कठिन घड़ी में मिलकर लड़ने की जरूरत है.

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