रूसी
क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद
पर लेखमाला: (भाग 2)
समाजवाद का
इतिहास: विरासत
ईश मिश्र
जैसा
कि इस लेखमाला के पिछले लेख में कहा गया है कि रूसो एक लोकतांत्रिक आंदोलन के
सिद्धांतकार थे, एक ऐसा जनतांत्रिक आंदोलन जो शासक और शासित की विभाजन रेखा को
मिटा दे। फ्रासीसी क्रांति (1789) के एक साल पहले ही (1778) रूसो ने दुनिया को
अलविदा कह दिया था. लेकिन क्रांति के आलोचक और समर्थक दोनों ने ही क्रांति के
विचारों के बीजारोपण का जिम्मेदार उन्हें ही ठहराया। क्रांतिकारी परिवर्तनों के
बीच रॉब्सपियरे जैसे क्रांतिकारी आंदोलन और नव गठित फ्रांसीसी गणतंत्र के नेता
अपने को रूसो का अनुयायी कहते थे और दूसरों की भी उनके बारे में यही राय थी। रूसो
ने स्वतंत्रता को समानता से जोड़कर एक नई चिंतनधारा का उद्घाटन किया जिसके आधार पर
बाद के दिनों के समाजवादी खुद को उदारवाद से अलग करते थे। रूसो खुद समाजवादी नहीं
थे, हो भी नहीं सकते थे। हर युग के चिंतन का सरोकार समकालिक समस्याएं होती हैं,
कुछ विचारों की प्रासंगिकता सर्वकालिक हो जाती है। समाजवाद औद्योगिक पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था का सिद्धांत
है। रूसो के जीवनकाल में यह (औद्योगिक पूंजीवाद) अदृश्य, भ्रूणावस्था में था। लेकिन रूसो के स्वतंत्रता; समानता और सामूहिकता तथा सहभागी
जनतंत्र के सिद्धांतों ने एक ऐसे पुल का निर्माण किया जिस पर चलकर क्रांतिकारी
जनतंत्रवादियों की अगली पीढ़ियों ने समाजवाद के नए सिद्धांतों का अन्वेषण किया।
रूसो के अनुयायिवों में एक खास नाम का जिक्र न करना लेख के साथ नाइंसाफी होगी।
फ्रांसोइस नोएल बबॉफ ने आदिम समतामूलक साम्यवाद का सिद्धांत दिया। रॉब्स पिएरे के गणतंत्र
के उत्तराधिकारियों ने उन्हें सजा-ए-मौत दे दी थी।
फ्रांसीसी
क्रांति के बाद के पुनर्निर्माण के घटनाक्रम में क्या गडबड़ियां हुईं जिससे
स्वतंत्रता और समानता के नारे खोखले हो गए? या स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के
नारे के साथ शुरू हुई क्रांति की परिणति नैपोलियन बोर्नापॉट की साम्राज्यवादी
महत्वाकांक्षाओं में क्यों हुई? किस्म के सवालों में फंसने की यहां गुंजाइश नहीं
है, इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। यहां सिर्फ यह कहना है कि
रूसो संपत्ति के अन्वेषक को बुराइयों का जिम्मेदार ठहराकर समस्या का तथ्यात्मक
समीक्षा करते हैं, लेकिन निजी संपत्ति के उन्मूलन की बात नहीं। उनका प्रत्यक्ष सहभागी शासन का समाधान पूर्व-आधुनिक
कृषि प्रधान ग्रामीण समाज के लिए उपयुक्त हो सकता है लेकिन आधुनिक औद्योगिक समाज
के लिए रुमानी या वायवी (यूटोपियन)। विचारों की तमाम विसंगतियों के बावजूद आने
वाली पीढ़ियों के लिए जो बातें रूसो को समाजवादी चिंतन के इतिहास में महत्वपूर्ण
बनाती हैं, वे हैं उनकी नीयत और भेदभाव तथा पराधीनता से मुक्त समाज के निर्माण की
कल्पना। रूसो का महत्व इस बात में है कि उन्होंने जनसाधारण को अपने दर्शन का नायक
चुना, जो उनके पूर्ववर्ती दार्शनिकों की हिकारत के विषय थे। उन्होंने स्वतंत्रता
की उदारवादी अवधारणा का माखौल उड़ाते हुए कहा कि आजादी के लिए समाज को आजाद करना
पड़ेगा, पराधीन समाज में निजी स्वतंत्रता एक खुशफहमी है। सामूहिक
इच्छा (जनरल विल) के शासन के सिद्धांत के जरिए रूसो ने समाज से अलग-थलग आजादी की
व्यक्तिपरक अवधारणा को खंडित कर, उस समय चल रही हवा के रुख के विपरीत आजादी की
सामाजपरक अवधारणा की चिंतनधारा का उद्घाटन किया। आजादी का मतलब निर्बाध, मनमानी
नहीं है। आजादी का मतलब सामूहिकता के हित में; सामूहिकता के समान, अभिन्न अंग के रूप में कानून बनाने में हिस्सेदारी
तथा सामूहिकता की शक्ति से उनका अनुपालन सुनिश्चित करना है। बीसवीं सदी के
अमेरिकी राजनैतिक चिंतक इसइआ बर्लिन ने 1958 में प्रकाशित अपने लेख, स्वतंत्रता
की दो अवधारणाएं में ‘जबरन
स्वतंत्रा’ को सकारात्मक और उदारवादी व्यक्तिवादी स्वतंत्रता को नकारात्मक
स्वतंत्रता बताया है. 19वीं शताब्दी में समाजवाद
पर विमर्श और व्यवहार की चर्चा के
पहले, उनके इस ऐतिहासिक योगदान के वर्णन के साथ रूसो से विदा लेते हैं, उन्होंने
साबित किया कि क्रांति न सिर्फ वांछनीय है बल्कि संभव भी – बस्तिले
पर निरंतर बमबारी से। यह बात माओ
के क्रांति की निरंतरता के सिद्धांत में प्रतिध्वनित होती सुनाई देती है।
जैसा कि
पिछले लेख में बताया गया है कि समाजवाद की अवधारणा से अपरिचित होते हुए भी रूसो ने
समता और सामूहिकता के सिद्धांतों के प्रतिपादन से समाजवादी विचारों के बीज बोकर
आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रस्थान बिंदु प्रदान किया। समाजवाद
शब्द पहली बार 1827 में कोऑपरेटिव
पत्रिका में छपने के बाद ही
विमर्श का विषय बना और उसी समय यूटोपियन समाजवाद के एक प्रमुख स्तंभ रॉबर्ट ओवेन
अमेरिका एक छोटे समूह के साथ समाजवाद का प्रयोग कर रहे थे। यूरोप में, 19वीं शताब्दी
के जतंत्रवादियों में उदारवादी और समाजवादी की अलग-अलग पहचान आसान थी। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और श्रम का बाजारीकरण
यानि मानव की सर्जक श्रमशक्ति की खरीद फरोख्त तथा आत्मनियंत्रित, स्वायत्त बाजार
के प्रतिष्ठान औद्योगिक पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की सिद्धांतगत विशिष्टताएं हैं।
उदारवाद इन्हें वैध स्वयंसिद्धि के रूप में प्रस्तुत करता है तथा बौद्धिक औचित्य
प्रदान करता है। उदारवाद के प्रथम, सर्वमान्य प्रवक्ता जॉन लॉक तो मनुष्य की
प्राकृतिक अवस्था में ही उसे श्रम खरीदने और बेचने के प्राकृतिक अधिकार से लैश कर
देते हैं। पोंगापंथी (संकीर्णतावादी) इसके आलोचक थे, लेकिन वे औद्योगिक क्रांति
पहले के दिनों की वापसी चाहते थे। समाजवादी औद्योगिक क्रांति के तो पक्षधर थे,
लेकिन पूंजी के बेलगाम शासन और स्वायत्त, आत्मनियंत्रित बाजार की खुली छूट-लूट के
विरोधी। निजी संपत्ति को सामाजिक अन्याय के श्रोत के रूप में चित्रित करने के रूसो
के सिद्धांत ने बाद की पीढ़ियों के लिए एक प्रस्थान-बिंदु प्रदान किया, जिन्हें
लगा कि उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का उन्मूलन सार्वजनिक और सार्वभौमिक
खुशहाली की बुनियादी शर्त है।
प्रस्थान: दोराहा
जैसा कि सर्वविदित
कि सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण उत्पादन के तरीकों में बदलाव से नहीं,
सामंतवाद के संकट और बाजार के विश्वव्यापी विस्तार के चलते उत्पादन के सामाजिक
संबंधों में बदलाव के चलते हुआ। इंगलैंड में 17वीं शताब्दी से ही तिजारती पूंजीवाद
औद्योगिक क्रांति का आधार तैयार कर रहा था। किसानों की बेदखली से खेती के
व्यवसायीकरण तथा शिल्प-कारीगरों के सर्वहाराकरण ने उत्पादन के साधनों पर निजी
स्वामित्व और श्रम शक्ति की उपलब्धता की पूंजीवाद के मूलभूत सिद्धांत की बुनियाद
निर्मित कर दिया था। औद्योगिक क्रांति ने समाज के नए अंतरविरोध – पूंजी और
श्रमशक्ति का अंतर्विरोध – को उजागर कर दिया. तभी मार्क्स ने कम्युनिस्ट
मेनिफेस्टो में लिखा कि
पूंजीवाद ने समाज को दो परस्परविरोधी खेमों – पूंजीपति और सर्वहारा में बांट कर वर्गसंघर्ष
को सरलीकृत कर दिया। रूसो की समानता के कथानक को कम्युनिस्टों ने नये रूप में आगे
बढ़ाया या यों कहें कि उसे औद्योगिक समाज के संदर्भ में पुनर्परिभाषित किया। यहां
साम्यवाद या कम्युनिज्म का मतलब उस विचारधारा से है जो पूंजीवाद के सभी
प्रतिष्ठानों को उखाड़ फेंक सत्ता पर औद्योगिक सर्वहारा के शासन की पक्षधर थी।
इनके पुरोधा थे: फ्रांसीसी
क्रांति की जुझारू कतारों में रहे, फ्रांसोइस नोएल बब्वॉयफ (1760-97) (जिनका जिक्र
ऊपर किया गया है) और फिलिपो बुऍनरोती (1761-1837)। इसके सैद्धांतिक प्रतिपादन का
श्रेय जाता है, एक अन्य यूटोपियन समाजवादी, एटियन काबेट (1788-1856) को, जबकि इसे सांगठनिक प्रारूप देने का श्रेय लुई ऑगस्त
ब्लांक्वी(1805-81) को।
अपने ‘उग्र’ गणतांत्रिक विचारों और क्रिया-कलापों के चलते जीवन का ज्यादातर समय
जेलों में बिताने वाले ब्लांक्वी सशस्त्र षड्यंत्रों से क्रांति करना चाहते थे।
जैसा कि पहले लेख में कहा गया है कि पूंजीवाद का विकास इंगलैंड में हो रहा था और
वैकल्पिक व्यवस्था के आंदोलन और विचारों का फ्रांस में। यह साम्यवाद विशुद्ध
फ्रांसीसी मामला था जिसके विचार 1830 के आस-पास से धीरे-धीरे पेरिस के जर्मन और
अन्य देशों के प्रवासी कारीगरों और मजदूरों में भी फैलने लगे। शैक्षणिक-राजनैतिक
विमर्श के विषय तथा एक विचारधारा के रूप में इंगलैंड और फ्रांस में समाजवाद शब्द का प्रचलन भी उसी वक़्त के आस-पास शुरू हुआ।
कुछ विद्वान
इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और फ्रांस की राजनौतिक क्रांति को अलग-थलग करके
देखते हैं किंतु ऐसा था नहीं। दोनों में एक समानता तो यही थी कि दोनों का श्रोत एक
ही था, तेजी से हो रहा पश्चिमी यूरोप का काया-कल्प। पूरे घटना क्रम को मार्क्स
बुर्जुआ (पूंजीवादी) क्रांति कहते हैं। शुरुआती आदर्शवादी अड़चनों को छोड़कर,
दर-असल फ्रांसीसी क्रांति ने सत्ता पर पूंजीवादी नियंत्रण का रास्ता साफ किया।
फ्रांसीसी क्रांति के बाद रूसो की जनरल विल की परिणति रॉब्सपियरे के शासन के आतंक
के राज में हुई.
एंगेल्स के शब्दों में, “अपनी राजनैतिक क्षमता के मामले में आत्मविश्वास खो चुके
बुर्जुआ (पूंजीपति) वर्ग ने पहले तो निदेशालय (डायरेक्ट्रेट) के भ्रष्टाचार के जरिए अपने लिए जगह बनाई और फिर नेपोलियन के निरंकुशता
के शाये में फलना-फूलना शुरू किया”। पूंजीवादी विकास के इस चरण में पूंजी और श्रम
का अंतरविरोध आरंभिक काल में थे। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इन हालात में पूंजीवाद
के विकल्प की उपरोक्त दोनों धाराएं विकसित हुईं।
आर्थिक विकास
के इस चरण में साम्यवाद और समाजवाद की विचारधाराओं में इन अर्थों में कोई अंतर
नहीं हैं कि दोनों ही फ्रांसीसी क्रांति की कोख से पैदा हुए तथा दोनों ही नवोदित
पूंजीवाद के आलोचक थे और दोनों ही इससे पनपी समस्याओं के निदान के प्रयास में।
दोनों में फर्क यह था कि साम्यवाद सर्वहारा की प्रधानता पर जोर देते हुए समानता की
समग्रता का हिमायती था। संक्रमण काल में क्रांतिकारी अधिनायकवाद के मुद्दों पर भी
उनमें मतैक्य नहीं था। साम्यवादी जहां सभ्यता के सारे प्रतिष्ठानों को समतल कर,
समतामूलक यानि प्राकृतिक अवस्था की वापसी के हिमायती थे वहीं समकालीन समाजवादियों
को नवोदित पूंजीवादी सभ्यता से कोई परेशानी नहीं थी। औद्योगिक क्रांति के तो वे
मुरीद थे। उन्हें परेशानी थी सभ्यता के विकास के स्वरूप, पूंजीवाद और उदारवादी
व्यक्तिवाद से। बाद के समाजवादियों और सामाजिक जनतंत्रवादियों ने तो औद्योगिक
क्रांति के पूंजीवादी रास्ते की विभीषिकाओं की परेशानी से भी छुटकारा ले लिया।
उन्होंने मान लिया कि औद्योगिक विकास वही रास्ता अपना सकता था, जिसे उसने अपनाया।
हर तरह की समानता और हर भेद-भाव के उन्मूलन के उद्देश्य से व्यवस्था में आमूल
परिवर्तन के हिमायती साम्यवाद के विपरीत समाजवाद सुधारवादी था। कालांतर में इन
समाजवादियों और उदारवादियों बीच की गुणात्मक विभाजन रेखा मिट सी गयी। यहां
तत्कालीन समाजवाद, या फ्रेडरिक एंगेल्स के शब्दों में यूटोपियन समाजवाद के विचारों और विचारकों पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश
तो नहीं है, लेकिन एक संक्षिप्त विवरण आवश्यक लगता है।
यूटोपियन
समाजवाद: आदर्श का एक अव्यवहारिक सपना
कार्ल
मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन समाजवादियों को
यूटोपियन (हवाई) समाजवाद की संज्ञा दी और ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत पर आधारित
समाजवाद के अपने सिद्धांत को वैज्ञानिक समाजवाद की। यह (यूटोपिया) शब्द अपना अर्थ
16वीं शताब्दी के लेखक थॉमस मूर की मशहूर पुस्तक, एक नए गणतंत्र का सर्वश्रेष्ठ राज्य और नया द्वीप
यूटोपिया (ऑफ द बेस्ट स्टेट ऑफ ए रिपब्लिक, एंड ऑफ न्यू आईलैंड यूटोपिया) निकालता है। इसमें धन-धान्य से
परिपूर्ण; कलह-विद्वेष, झगड़ा-झंझट, दुख-क्लेष आदि से मुक्त; सुख-शांति और अमन-चैन
के साथ फलते-फूलते समाज की कल्पना की गई है। मार्क्स और एंगेल्स ने चार्ल्स फूरियर
और रॉवर्ट ओवेन जैसे यूटोपियन समाजवादियों के योगदान और नीयत के प्रति समुचित
सम्मान के साथ उनके सिद्धांतों को यूटोपियन कह कर खारिज़ किया। ये एक शोषणविहीन समाज बनाना चाहते
थे, शोषण के कारणों की व्याख्या और समाप्ति के बिना। समाजवाद और साम्यवाद दोनों ही
धाराओं के विचारक मध्यवर्गीय पृष्ठिभूमि के थे, दोनों का ही मजदूर वर्ग के कुछ-कुछ
हिस्सों में असर था। अतः उनमें फर्क पृष्ठभूमि या समाजीकरण का नहीं समझ और
दृष्टिकोण का है।
उन्नीसवीं
सदी के समाजवादियों ने औद्योगिक क्रांति की तकनीकी प्रगति को आर्थिक शोषण और
उत्पीड़न से अलग करके देखने की कोशिस की और इसी आधार पर इंग्लैंड में रॉबर्ट ओवन
और फ्रांस में हेनरी द सेंसिमों ने मांग किया कि नए उत्पादन पद्धति की तकनीकें आम
आवाम के हित में इस्तेमाल होनी चाहिए। एंगेल्स के शब्दों में, समाजवाद “एक तरफ
अपरिहार्य रूप से धनी और निर्धन, पूंजीपति और मजदूर के वर्गीय हितों के टकराव के
संज्ञान का नतीजा है; दूसरी तरफ पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया की अराजकता का।
लेकिन अपने सैद्धांतिक रूप में यह मूलतः 18वीं शताब्दी के महान फ्रांसीसी
दार्शनिकों के सिद्धांतों का विस्तार ही है”। दर-असल आने वाली पीढ़ियों को क्रांतिकारी प्रेरणा प्रदान करने
वाले ये विद्वान, खुद अपने आप में कम क्रांतिकारी नहीं थे। जैसा कि पिछले लेख में
बताया गया है कि प्रबोधनकाल के आंदोलनों ने धर्म, परंपरा, समाज सब पर सवाल करना शरू
किया और वैधता के विवेकेतर सभी कारकों और कारणों को खारिज कर दिया था। तत्कालीन
शासन, सामाजिक मूल्य आदि मान्यताओं को कुतर्क के कूड़ेदान में फेंक दिया।
मध्ययुगीन दुनिया ईश्वर; दैविकता; चमत्कारों और पूर्वाग्रहों के सहारे थी, अब उनकी
जगह नए ‘साश्वत सत्य’ और नए ‘प्रकृति प्रदत्त’ समानता और संपत्ति के अधिकार समेत
अक्षुण प्राकृतिक अधिकारों ने ले लिया। एंगेल्स ने उपरोक्त पुस्तिका में सही लिखा
है, “विवेक के राज्य का मतलब था बुर्जुआ (पूंजीवादी) राज्य फ और साश्वत अधिकारों की अभिव्यक्ति है
बुर्जुआ न्याय; यह समानता भी बुर्जुआ समानता यानि कानून के समक्ष समानता है;
पूंजीवादी संपत्ति को मनुष्य के एक मूलभूत अधिकार के रूप में घोषित किया गया; और
रूसो के सामाजिक अनुबंध में चिन्हित विवेक का राज्य एक बुर्जुआ जनतांत्रिक गणतंत्र से
ज्यादा नहीं है”।
यहां इस बात
के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है कि किस तरह प्रबोधनकाल की तर्कशीलता
संपत्ति के बुर्जुआ अधिकार की तर्कशीलता है, भावी पूंजीपति व्यापारियों (बर्गर्स)
ने सामंती कुलीनों के साथ अपने टकराव में खुद को सारी उत्पीड़ित मानवता के टकराव
के रूप में पेश किया। एंगेल्स ने उसी पर्चे में लिखा है, जो कि अब सर्वविदित है कि अपनी शुरुआत से ही पूंजीवाद के अस्तित्व
की अनिवार्य शर्त है बाजार में क्रय के लिए श्रमशक्ति की उपलब्धता। गिल्ड के
तिजारती पूंजीपति बन गए और नौकर-चाकर सर्वहारा। लेकिन व्यापारियों के गिल्ड और सामंती
कुलीनों के अंतरविरोध के साथ-साथ धनी और निर्धन यानि परजीवी शोषकों (धनिक वर्ग) और
शोषितों (मजदूर वर्ग) के अंतरविरोध भी परिपक्वता की तरफ अग्रसर थे। इन्ही परिस्थियों में नवोदित बुर्जुआ (पूंजीपति) वर्ग ने किसी
खास तपके का नहीं बल्कि संपूर्ण उत्पीड़ितों के प्रतिनिधित्व का दावा किया। फिर भी हर बुर्जुआ आंदोलन के
दौरान कुछ अलग बातें भी हो रही थी, एक और वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा
था, भविष्य का सर्वहारा वर्ग। इस मामले में फ्रांसीसी आंदोलन में बब्वॉफ की मिशाल
उल्लेखनीय है। समानता के अधिकार की मांग राजनैतिक अधिकार से आगे सामाजिक-आर्थिक
समानता के अधिकार की मांग की तरफ बढ़ रही थी। अब मामला वर्गीय विशेषाधिकार के
उन्मूलन तक नहीं सीमित था बल्कि वर्ग विभाजन के उन्मूलन की बातें होने लगीं. इस
दिशा में शुरुआती समाजवादी चिंतकों, मुख्य रूप से चार्ल्स फूरियर; रॉबर्ट ओवेन तथा
सेंट सिमों ने पूंजीवाद के मूलभूल सिद्धांतों को चुनौती दिए बिना, वैकल्पिक
समाजवादी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इसी लिए इन्हें सुधारवादी, या एंगेल्स के
शब्दों में, यूटोपियन समाजवादी कहा जाता है।इस सूची में चौथा नाम ऑगस्त कॉम्ते का
है।
एंगेल्स
के शब्दों में “पूंजीवादी उत्पादन की अपरिष्कृत (क्रूड) परिस्थिlयां और अपरिष्कृत वर्ग संबंध अपरिष्कृत सिद्धांत को ही जन्म देते
हैं”। यूटोपियन समाजवादियों ने
अविकसित आर्थिक स्थितियों में छिपी समस्याओं का निदान मनुष्य के मस्तिष्क, यानि सोच
में खोजने की कोशिस की। इनका मानना था कि समाज की गड़बड़ियां विवेक से ही दुरुस्त
की जा सकती हैं। ऐसे में वैकल्पिक, न्यायपूर्ण व्यवस्था के सैद्धांतिक खाके की
जरूरत थी जिसे समाज पर प्रचार-प्रसार और यथासंभव प्रयोग के जरिए लागू किया जा सके।
सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के बिना इन सैद्धांतिक सामाजिक व्यवस्थाओं को समाज पर
थोकने की योजना हवाई महल साबित होने को अभिशप्त थी। उन्होंने इसे जितना ही
प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया उतना ही वे फंतासियों में भटकते गए।
जैसा कि ऊपर
कहा गया है कि समाजवाद की अवधारणा पर विमर्श की शुरुआत 1827
में लंदन की कोऑपरेटिव पत्रिका में इस शीर्षक से
प्रकाशित लेख से शुरू हुई और उसी समय, अस्थाई रूप से
अमेरिका में रह रहे, इंगेलैंड सूत उद्योग की एक प्रमुख हस्ती, रॉबर्ट ओवेन
(1778-1851) जमीन पर एक नई बस्ती बसाकर सहकारिता का प्रयोग कर रहे थे। उन्होने हॉर्मनी गजट में सामाजिक व्यवस्था (सोसल सिस्टम) शीर्षक से कई लेख प्रकाशित किया।
सामाजिक का उनका मतलब सहकारिता था। सहकारिता का सिद्धांत देते समय उनका सरोकार
छोटे-छोटे समिदायों से था। लेकिन औद्योगिक समाज में सहकारिता का प्रयोग कैसे हो?
यह सवाल लंदन में 1924 में कोऑपरेटिव
सोसाइटी की
स्थापना के समय से ही बहस का मुद्दा था। 1827 में पत्रिका के संपादक ने निर्णायक
लहजे में लिखा कि किसी सामग्री का मूल्य का निर्धारण वर्तमान और अतीत के श्रम का
परिणाम (पूंजी और स्टॉक) से होता है। बहस का मुद्दा यह था कि पूंजी पर निजी
स्वामित्व ज्यादा फायदेमंद है कि सामूहिक। सामूहिक स्वामित्व के समर्थकों को
कम्युनिस्ट या सोसलिस्ट कहा जाने लगा, राबर्ट ओवेन सामूहिक स्वामित्व के पक्षधर
थे। ओवेन भौतिकवादी दार्शनिकों से प्रभावित थे। वे अपनी जमात में सबसे अलग-थलग थे।
ऐसे लोगों की चर्चा में उनकी निजी विशिष्ताएं विचारों पर हावी हो जाती हैं, इसलिए,
समझता हूं कि उनके व्यक्तित्व के बारे में एंगेल्स का एक लंबा उद्धरण पर्याप्त
होगा.
“औद्योगिक
क्रांति के दौरान उनके वर्ग के ज्यादातर लोगों के लिए यह अराजकता और विभ्रम की
स्थिति थी और वे इसे बहती गंगा में हाथ धोकर जल्द-से-जल्द, ज्यादा-से-ज्यादा अमीर बनने के अवसर के रूप में देख
रहे थे। उन्होंने इसे अपने पसंदीदा सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने के अवसर के
रूप में देखा और
बेतरतीबी में तरतीब स्थापित करने का प्रयास किया। 500 से अधिक लोगों के अधीक्षक के
रूप में वे मैन्चेस्टर के एक कारखाने में पहले ही इसका सफल प्रयोग कर चुके थे।
1800 से 1829 तक वे स्कॉटलैंड के लनार्क में एक बड़ी सूती मिल में मैनेजिंग
पार्टनर के रूप में निदेशक रहे। वहां भी उन्होंने वही तरीका अपनाया और यहां उन्हें
काम की ज्यादा आज़ादी थी। योजना के सफल क्रियान्वयन से पूरे यूरोप में उनकी ख्याति
फैल गयी। विभिन्न पृष्ठभूमियों की एक हताश आबादी को जो बढ़ते-बढ़ते 2500 पहुंच
गयी, उन्होंने एक मॉडल कॉलोनी में तब्दील कर दिया। इस कॉलोनी में शराबखोरी, पुलिस,
मजिस्ट्रेट, कानूनी झगड़ा-झंझट, गरीबी का कानून और खैरात का नाम-ओ-निशां न था।
इसके लिए उन्होंने ऐसे हालात तैयार किए जिसमें व्यक्ति मानवीय प्रतिष्ठा के साथ जी
सके। बच्चों की परवरिश पर विशेष ध्यान दिया जाता था। ओवेन शिशु स्कूलों के
संस्थापक थे और पहला स्कूल लनार्क में खोला। 2 साल के बच्चों को स्कूल में इतना
मजा आता था कि उनका घर जाने का मन ही नहीं करता। जहां बाकी जगहों पर लोग 13-14
घंटे प्रति-दिन काम करते थे वहीं लनार्क में साढ़े 10 घंटे। लेकिन वे इससे संतुष्ट
नहीं थे. .... उन्हें लगता था कि मजदूरों
की ज़िंदगी फिर भी मानवीय मूल्यों से काफी दूर थी। “लोग मेरी दया पर थे”।
अपेक्षाकृत बेहतर हालात के बावजूद वे विवेकशील व्यक्तित्व के निर्माण और और प्रतिभा के पूरा
इसतेमाल से बहुत दूर थे, सारी मानवीय संभावनाओं की तो बात ही छोड़िए”।
ओवेन
के विवेकसम्मत धर्मनिरपेक्षता की चर्चा में जाने की गुंजाइश नहीं है जिसने इन्हें
पादरियों और परंपरावादियों का कोपभाजन बना दिया था। सैद्धांतिक और आंदोलनात्मक रूप
से आजीवन जुड़े रहने के बावजूद, ओवेन का समाजवाद परोपकारी सहकारिता का सिद्धांत
है। ओवेन ने लिखा, “इस आबादी के 2500 लोग उतना उत्पादन कर रहे हैं, जितना 100 साल
पहले 600,000 लोग करते। मैं अपने आप से पूछता हूं कि 2500 के उपभोग और 600,000 के
उपभोग में कितना फर्क है?” (फ्रॉम
द रिवल्यूसन इन माइंड एंड प्रैक्टिस). ओवेन मानते हैं कि दुनिया की सारी
संपत्ति मजदूरों द्वारा निर्मित है लेकिन उनका समाधान पूंजीवाद में ही मजदूरों को हालात सुधारने जैसा
सुधारवादी है, क्रांतिकारी नहीं। उन्हें ‘प्रबुद्ध शासकों’ की सहृदयता
पर काफी भरोसा था जो जल्दी ही टूट गया। अमेरिकी प्रयोग की असफलता के बाद लओवेन की
हालत एक निराश सुधारक की तरह हो गयी और ‘हृदय परिवर्तन’ तथा सत्य, खैरात और
दयालुता से प्रेरित मानव मस्तिष्क की क्रांति’ जैसी आध्यात्मिक बातें करने लगे।
लेकिन 1830 तक पहुंचते-पहुंचते एक सशक्त मजदूर आंदोलन विकसित होने लगा था। 1830-34
के दौरान तमाम मजदूर संगठन बन चुके और ग्रैंड कन्सॉलिडेटेड नेसनल ट्रेड यूनियन की सजस्यता 5 लाख पहुंच गयी थी।
ट्रेड यनियन का नेतृत्व समाजवादियों के हाथ में था। 1936 के बाद ट्रेड यूनियनों ने
चार्टिज्म का रुख किया। 1880 के दशक में शुरू हुआ फाबियन आंदोलन क्रांतिकारी नहीं,
क्रमिक क्रांति का पक्षधर था जिसकी संक्षिप्त चर्चा अगले भाग में की जाएगी।
इंग्लैंड
में समाजवाद विकास बाजार अर्थ-व्यवस्था की आलोचनात्मक नैतिक विवेचना और मजदूर
असंतोष के साहित्य की
बुनियाद पर विकसित हुआ। फ्रांस में क्रांति के बाद की घटनाओं के उहा-पोह में और
नेपोलियन के सत्ता पर एकाधिकार के दौर में क्रांति की ज्वाला छिप गयी थी, बुझी
नहीं। 1815 में नेपोलियन युग की समाप्ति से ही गुप-चुप तरीके से समाजवादी आंदोलन
शक्ति अर्जित कर रहा था जो 1830 में उफन पड़ा। फ्रांस में समाजवादी आंदोलन क्रांति
की विरासत की बुनियाद पर विकसित हुआ। हेनरी द सेंट सिमों क्रांति से निकले चिंतक
थे। क्रांति के समय वे लगभग 30 साल के थे। उनकी निगाह में प्रांसीसी क्रांति तीसरे राज्य, यानि उत्पादन और व्यापार में
कामगर आबादी की परजीवी कुलीनों पर विजय थी। परजीवी सिर्फ पुराने संभ्रांत वर्ग
नहीं थे बल्कि वे सब जो बिना श्रम के दूसरों के श्रम की आमदनी से शान-ओ-शौकत से
रहते हैं। लेकिन जल्द ही स्पष्ट हो गया कि हकीकत में यह विजय धनी वर्गों की थी।
धनिक वर्गों का क्रांति के बाद तेजी से विकास हुआ, मुख्यतः चर्च और कुलीनों की कब्जा
की जमीनों में सट्टेबाजी से और सैन्य सामग्री में ठेकेदारी के जरिए देश के साथ
फरेब से। डायरेक्टरेट काल में इस वर्ग के वर्चस्व ने अर्थव्यवस्था को बेहाल कर
दिया और नेपोलियन को तख्तापलट का अवसर प्रदान किया। आर्थिक बदहाली के हालात
तानाशाही शासन के उदय के लिए उर्वर जमीन प्रदान करती है। साम्यवाद और समाजवाद में
फर्क करने की जरूरत है। साम्यवादी भूमिगत, सशस्त्र, षड्यंत्रकारी तरीकों से क्रांति
के माध्यम से समूल सामाजिक क्रांति के हिमायती थे, जिनकी संक्षिप्त चर्चा आगे की
जाएगी। फ्रांसीसी समाजवाद के किरदार वे लोग थे जो समाज में क्रांतिकारी बदलाव की
जगह बुद्धिमत्तापूर्ण कानूनों के जरिए क्रमिक सुधार के पक्षधर थे। यही बात ओवेन,
सेंट सिमों और चार्ल्स फूरियर को एक मंच पर खड़ा करती है। फूरियर के बारे में आगे
चर्चा की जाएगी। और
यही कारण है कि साम्यवादी साहित्य में तीनों को यूटोपियन कहा गया है। इन
प्रवृत्तियों की ऐतिहासिक प्रासंगिकता यह है कि इनसे पता चलता है कि आंदोलन अपने
शुरुआती दौर में था। इन आंदोलनों की शुरुआत नोपोलियन शासन के अंत के बाद पूंजीवाद
बहाली(1815-30) के दौर में शुरू हुआ। बेल्जियम, फ्रांस एवं अन्य देशों में
औद्योगिक क्रांति के प्रसार के साथ कारखाना मजदूरों का वर्ग अस्तित्व में आया।
फ्रांस में ल्योन एवं अन्य जगहों पर मालिकों और मजदूरों में टकराव की घटनाएं हुईं।
हेनरी
द सेंट सिमों ने एक ऐसे आंदोलन की शुरुआत की जो प्रबोधन को रुमानियत से; धर्म को
तर्कशीलता से; आस्था को विवेक से; रहस्यवाद को विज्ञान से मिलाना चाहता था।
एंगेल्स उपरोक्क पुस्तिका में लिखते हैं, “सेंट सिमों
के अनुसार, नई धार्मिक कड़ी में विज्ञान और उद्योग के मेल से उन धार्मिक विचारों
की वापसी होगी जो प्रबोधन काल के दौरान गायब हो गए थे –- एक रहस्यमय, कठोर
श्रेणीबद्धता की नई ईशाइयत”। सेंट सिमों चाहते थे नवोदित पूंजीपतिवर्ग सार्जनिक
अधिकारी और न्यासी की तरह काम करे मालिक की तरह नहीं। लेकिन वे मजदूरों की तुलना
में उनकी निर्देशक का दर्जा और और श्रेष्ठता को स्वीकारते थे। उनका मानना था कि
सभी मनुष्यों को काम करना चाहिए और वे रॉब्सपियरे के शासन काल में आतंक के राज को
“निर्धनों का राज मानते थे। वे मुक्त प्रेम और नारी मुक्ति के पक्षधर थे और लिंग
आधारित भेद-भाव को सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा बनाया। रुमानी आंदोलन (1820-50) के
दौरान यूरोप में उठने वाले सभी राजनैतिक सामाजिक विचार प्रकारांतर से सेंट
सिमोनियन पंथ से ताल्लुक रखते थे। फ्रांस और य़ूरोप में इस आंदोलन के प्रसार का
प्रमुख कारण था व्यकतिवाद और औद्योगिक क्रांति के महिमामंडन पर इसकी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया। यह आंदोलन
1789 के बाद अस्तित्व में आए नए पूंजीवादी वर्ग का जवाब था। रूसो की तरह सेंट सिमों
ने भी नवोदित उदारवाद की आलोचनात्मक विवेचना पेश किया। उन्होने ईशाई समाजवाद की
अवधारणा का प्रतिपादन किय जो कि यूरोप में 1830 और 1840 के दशकों में यूरोप में
काफी लोकप्रिय था। उन्होंने केंद्रीकृत नियोजित औद्योगिक समाज का खाका पेश किया।
यह आंदोलन 1830-48 के दौरान प्रभावशाली था जिसके बाद इसका क्रांतिकारी तेवर समाप्त
हो गया।
एंगेल्स उपरोक्त पुस्तिका में लिखते हैं, “पहली बार 1802 में
फ्रांसीसी क्रांति के महज कुलीन-पूंजीपति संघर्ष की मान्यता की जगह इसका संज्ञान
कुलीन, पूंजीपति और निर्धनों के संघर्ष के रूप में लिया गया। 1816 में उन्होंने
घोषणा किया कि राजनीति उत्पादन का विज्ञान है और भविष्यवाणी की कि अंततः राजनीति
अर्थशास्त्र में समाहित हो जाएगा। आर्थिक स्थितियों के आधार पर राजनैतिक संस्थानों
के स्वरूप के निर्धारण का ज्ञान इसमें भ्रूणावस्था में है। फिर भी महत्वपूर्ण यह
विचार है जिसमें भविष्य में इंसानों पर शासन के भविष्य में वस्तुओं के प्रबंधन और
उत्पादन के निर्देशन में तब्दीली यानि राज्य के उन्मूलन की संभावनाएं निहित हैं”।
समाजवाद के इतिहास में, मेरे विचार से बहुत से इतिहासकारों की
मान्यता के विपरीत चार्ल्स फूरियर का कद सेंट सिमों से छोटा नहीं है। वे शुरुआती
समाजवादी आंदोलन के विलक्षण व्यक्तित्व हैं और एक अनूठे ब्रह्मांड विज्ञान के रचयिता। इस मामले में उन्हें रूसो का वारिस कहा जा सकता है
कि उनकी आलोचना का निशाना महज मध्य वर्ग पर नहीं था बल्कि संपूर्ण आधुनिक सभ्यता
पर। ओवेन की ही तर्ज पर उन्हें उद्योग और कृषि की मिली-जुली बस्तियों में नियोजित
सामुदायिक बस्तियों के प्रयोग का जनक माना जाता है। एंगेल्स के शब्दों में,
“विशुद्ध आर्थिक मुद्दों को छोड़कर भावी समाजवादियों के समग्र विचार सेंट सिमों के
विचारों में भ्रूणावस्था में अंतर्निहित हैं, फूरियर की तत्कालीन समाज के हालात की
आलोचना वास्तव में फ्रांसीसी और है और
समग्रता में कम नहीं। फूरियर पूंजीवादियों, क्रांति के पहले के उनके प्रेरक
मशीहाओं और निहित स्वार्थों वाले उनके चारणों को उन्हीं की भाषा में लतेड़ते हैं।
वे पूंजीवादी समाज की भौतिक और नैतिक दरिद्रता का निर्मम पर्दाफाश करते हैं। वे
पहले के दार्शनिकों के विवेक के राज्य; सार्वभौमिक सुख; असीमित मानवीय संपूर्णता के आसमानी
वायदों की याद दिलाते हैं और उनके मोहक शब्दाडंबर को बेपर्द करते हैं। वे
ऊंची-ऊंची बातों को समानुपातिक दुख-दारुण के विवरण से तार-तार करते हैं और उनके
पाखंडी शब्दजाल को व्यंग्यबाणों से बेधते हैं।
फूरियर के बारे में में एंगेल्स का एक लंबा उद्धरण
प्रासंगिक होगा, “फूरियर सिर्फ आलोचक नहीं थे एक बेहतरीन व्यंगकार भी थे। वह उस
समय फ्रांसीसी व्यापार जगत में फलती-फूलती सट्टेबाजी का खूबसूरती से चित्रण करते
हैं। इससे भी महत्वपूर्ण समाज में स्त्रियों की स्थिति और स्त्री-पुरुष संबंधों के
बुर्जुआ स्वरूप की उनकी आलोचना है। यह कहने वाले वे पहले व्यक्ति थे कि किसी भी
समाज की मुक्ति का स्वाभाविक मानक है, उस समाज में नारी मुक्ति का स्तर”। फूरियर
ने साबित किया कि मानव इतिहास के विकास के “सभ्यता (पूंजीवाद) के चरण में बर्बर
युग की सभी बुराइयां गोलमोल, जटिल, पाखंडपूर्ण तरीके से दुहरेपन अस्तित्व के स्वरूप में सहज तरीके से अंतर्निहित
हैं। सभ्यता एक दुष्चक्र में अपने विरोधाभासों के साथ घूमती रहती है, वे अंतरविरोध
जो यह लगातार निर्मित करती है लेकिन उनका निदान नहीं कर पाती, अतः वह हमेशा जहां
पहुंचना चाहती है उसके उल्टे छोर पर पहुंचती है, जैसे की सभ्यता में गरीबी अपने आप
प्रचुरता में बढ़ती है”। फूरियर अपने समकालीन हेगेल की ही तरह द्वंद्वात्मक उपादान
का बेहतरीन प्रयोग करते हुए मानव जाति के भविष्य का अनुमान लगाते हैं और साबित
करते हैं कि हर ऐतिहासिक चरण के उत्थान और पतन के बिंदु होते हैं।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ओवेन की ही
तरह सहकारिता के माध्यम से फूरियर भी असमानता और गरीबी मिटाने का सिद्धांत देते
हैं, सर्वहारा का इतिहास के नए नायक के रूप में उदय भविष्य की बात थी अतः
वर्गचेतना और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत भी। समाज वाद की उपरोक्त तीनों धाराएं अपने
समय की परिस्थियों की तमाम भिन्नताओं के साथ निजी व्याख्या और अवधारणाएं हैं।
तीनों ही यूटोपियन हैं क्योंकि वे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के अंदर ही सामाजिक
मुक्ति के सिद्धांकार हैं, इसमें आमूल परिवर्तन के नहीं। जैसा कि अगले लेख में कार्ल मार्क्स के हवाले
से हम देखेंगे कि वैतनिक-गुलामी पूंजीवाद का कोई नीतिगत दोष न होकर इसकी
अंतर्निहित प्रवृत्ति है तथा सामाजिक मुक्ति के लिए पूंजीवाद की समाप्ति आवश्यक
शर्त है। यूटोपियन समाजवादियों की मुख्य उपलब्धियां हैं: भविष्य के सामाजिक और
नैतिक मुद्दों का पूर्वानुमान; धार्मिक आस्था का मानवीयता में तब्दीली; नारी
मुक्ति; युद्ध, सामाजिक दमन-उत्पीड़न और सामाजिक असहिष्णुता की समाप्ति। यूटोपियन
समाजवादी चिंतकों का ऐतिहासिक योगदान यह है कि उन्होने रूसो के समानता के सिद्धांत
को आगे बढ़ाते हुए समाजवाद के सिद्धांत प्रतिपादित करके समाजवाद को भविष्य के
विमर्श और आंदोलनों का स्थाई मुद्दा बना दिया।
ईश मिश्र
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