आपके प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर संभव नहीं है. संसदीय(तथाकथित) जनतंत्र से जन उसी तरह गायब है जैसे प्लेटो के रिपब्लिक से पब्लिक. चुनाव बहिष्कार की अपील करने वाले माओवादियों के अलावा नक्लसलबाड़ी की विरासत के कई और दावेदार हैं और उनमें से कई चुनावी पार्टियां बन गयी हैं. चुनाव बहिष्कार के लिए बलप्रयोग निंदनीय है. इस पर आज एक लेख लिखना है अगर लिखा गया तो पोस्ट करूंगा. युग चेतना को जनचेतना से लैस करने के दीर्घकालिक और फासीवाद से संविधान की रक्षा के तत्कालिक उद्देश्यों में तालमेल और समन्वय की आवश्कता है. नागनाथ-सांपनाथ में चुनाव करना हो तो चुनाव में भाग लेना न लेना कोई मतलब नहीं रखता नेकिन अगर अन्य सांपों और मानवता को निगल जाने की आहट देने वाले अजगर में हो तो पहले अजगर को मारना चाहिए इसीलिए मैंने दिल्ली की विधान सभा और लोक सभा के लिए, तमाम असहमतियों के बावजूद आआपा को वोट दिया. बनारस के मित्रों से आग्रह करता हूं कि खुद को भोले-शंकर से बड़ा भगवान मानने वाले अंबानी और अदानी के जरखरीद, इतिहासबोध-शून्य एक नरपिशाच को चुनकर काशी को कलंकित न करें.
दुनियां और प्रकृति द्व्ंद्वात्मक है. कोई अंतिम सत्य नहीं होता इसलिए कोई उसका वाहक नहीं हो सकता. असहमतियों के टकराव से ही मुद्दों पर एक सार्थक सोच विकसित हो सकती है. अपने आप से भी असहमति तब होती है जब हम अपने संस्कारों को खंगालते और चुनौती देते हैं और यही अंतर्द्वंद्व और आंतरिक संघर्ष व्यक्तित्व के विकास का ईंधन है. इसे मैं Dialectical Unity of Learning and unlearning कहता हूं. जो अनलर्निंग की प्रक्रिया से नहीं गुजरते वे कुछ लर्न भी नहीं करते, बस पढ़-लिख कर रोजगार का हुनर सीख लेते हैं. इसालिए निजी गालियां देने वाले से भी तब तक संवाद नहीं बंद करता हूं जब तक उसकी कलुषित नीयत या खूंटा यहीं गड़ेगा की प्रवृत्ति का यकीन नहीं हो जाता. असहमतियों के सम्मान से ही स्वस्थ विमर्श संभव है.
दुनियां और प्रकृति द्व्ंद्वात्मक है. कोई अंतिम सत्य नहीं होता इसलिए कोई उसका वाहक नहीं हो सकता. असहमतियों के टकराव से ही मुद्दों पर एक सार्थक सोच विकसित हो सकती है. अपने आप से भी असहमति तब होती है जब हम अपने संस्कारों को खंगालते और चुनौती देते हैं और यही अंतर्द्वंद्व और आंतरिक संघर्ष व्यक्तित्व के विकास का ईंधन है. इसे मैं Dialectical Unity of Learning and unlearning कहता हूं. जो अनलर्निंग की प्रक्रिया से नहीं गुजरते वे कुछ लर्न भी नहीं करते, बस पढ़-लिख कर रोजगार का हुनर सीख लेते हैं. इसालिए निजी गालियां देने वाले से भी तब तक संवाद नहीं बंद करता हूं जब तक उसकी कलुषित नीयत या खूंटा यहीं गड़ेगा की प्रवृत्ति का यकीन नहीं हो जाता. असहमतियों के सम्मान से ही स्वस्थ विमर्श संभव है.
ठीक बात ।
ReplyDeleteलोग इतनी सहज बात क्यों नहीं समझते
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