Sunday, April 13, 2014

सियासत की दुकानदाररी

सच कहते हो मेरे बस की नहीं ये दुकानदारी
औकात इतनी भी नहीं कि कर सकूं खरीददारी
नहीं है चलाना लूट-खसोट की ये दुकान
बनाना है इसको मुनाफे का शमसान
बसायेंगे उस पर एक नया सुंदर संसार
गुलामी और गरीबी हो जायेंगी फरार
समानता के सुख का होगा आविष्कार 
मुक्त होगी समाज की सर्जना अपार
न कोई अट्टालिका न मलीन बस्ती
मनाएंगे सभी भाईचारे की मस्ती
मिल-जुलकर सब कमाएंगे
मिल-बांटकर सब खायेंगे
क्षमता भर सभी श्रम-शक्ति लगायेंगे
जरूरत होगी जितनी उतनी सब पायेंगे
मानवता को होगा अनूठे सुख का आभास
न होगा कोई स्वामी न ही कोई दास 
होगी नफरत नदारत औ मुहब्बत आबाद
. इंक़िलाब जिंदाबाद
(ईमिः14.04.2014)

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