Monday, April 7, 2014

लल्ला पुराण 143 (कन्यादान-मतदानः मोदी विमर्श 23)

मोदी ने कहा मतदान कन्यादान सा है सुपात्रों को ही दें. यानि जिसे भी मतदाता वोट देगा उसे अपने दामाद सा मानेगा, आँखे खोलो दकियानूसी जाहिलों, सुनो लड़कियां की ललकार कर कर रही हैं वे  दान की वस्तु होने से इनकार, समझेगा जो माल इन्हें लेंगी आँखे निकाल, आयेगी न किसी काम तेरी ये मर्दवादी सड़ी-गली ढाल..

Rituals are like the burden of the corpses of the dead generation that impede the velocity of the social motion and fetter the spirit of innovation and invention. Kanyadan is a ritual of patriarchy which considers the daughter as some one else's property (Paraya Dhan) to be gifted as donation  of course with dower that makes a Kanya an undesirable burden to be gotten rid of. Gradually with the ongoing march of feminist assertion and scholarship, patriarchy is breaking apart. Though there is related feminist consciousness but not in correspondence to  extent of feminist assertion and scholarship due to long cultural hegemony. The women are challenging the patriarchy and patriarchal rituals and many of them refusing to be object of Daan. Symbols tell the narrative. Those women who accept to be precious objects rather than live human beings and  are ready to be treated as a precious object to be gifted away do so under the false consciousness unable to liberate themselves from the hegemony of the gender perpetuated by the organic intellectuals of the patriarchy. Such women remind me of  Simone de Beauvoir. Once some journalist asked her, "When women themselves prefer the traditional (patriarchal) way of life why do you want to impose your views". Her reply was, "We don't seek to impose anything on anyone. They are happy with traditional way of life because they do not know any other way of life. We just seek to expose them to other ways of lives also. And what can you do if some one can learn to derive some amount of power even within the prison."

कन्या को पूजा की वस्तु बनाना उसी तरह मर्दवादी साज़िश है जैसे उसे भोग और दान की वस्तु बनाना. मेरी बातों से सभी किस्म के तालिबानों, भर्मांधों और धर्मोंमादियों को कल्चरल शॉक लगता है और वे तर्क करने की बजाय बौखलाकर ऊल जलूल विशेषण का इस्तेमाल करते है क्योंकि भाषा की यही तमीज उन्हें संस्कार में मिली है और वे अपने मर्दवादी वर्णाश्रमी संस्कारों को अक्षुण रखते हुए कुतर्क करते हैं. नकारात्मक पोस्ट से आपका क्या मतलब है. आस्था और तर्क का 36 का आंकड़ा है अगर आप अनर्गल प्रलाप की जगह दिमाग लगाकर तर्क से मेरी बातों का खंडन करते तो प्रसन्नता होती, लेकिन संघी प्रशिक्षण आज्ञापालन का हिमायती होने के नाते दिमाग के इस्तेमाल को हतोत्साहित कर पशुवत बना देता है क्योंकि दिमाग का इस्तेमाल ही इंसान को जानवर से अलग करता है. जो महिलाएं कन्यादान जैसे मर्दवादी कर्मकांड की समर्थक हैं वे वैचारिक वर्चस्व  के प्रभाव में मिथ्या-चेतना की शिकार हैं क्योंकि मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि विचारधारा है और विचारधारा उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करता है. नारीवादी होने के नाते मर्दवादी वर्चस्व  के विरुद्ध नारीवादी चेतना के प्रसार में योगदान अपना दायित्व समझता हूं.

Kaushlendra Pratap Singh तर्क में कोई श्रेष्ठता की बात नहीं होती. भोजपुरी में एक कहावत है- पते में कौन ठकुरई. मैं अपने विद्याथियों को निरंतर सवाल करने को प्रोत्साहिक करता हूं और जो विद्यार्थी कभी कोई असहज सवाल पूछता है उसे ज्यादा ही सम्मान से याद करता हूं. किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल-दर-सवाल है. हर बात पर सवाल हर मान्यता पर सवाल. कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है.  लेकिन ज्ञान की तलाश में सतत सवालों की निरंतरता में नास्तिकता का खतरा है, जैसा कि मेरे साथ हुआ, एक कट्टर, रूढ़िवादी, कर्मकांडी परिवार के संस्कारों का बालक एक प्रामाणिक नास्तिक बन गया. जब मैं कक्षा म11 में था तो मेरी अपने पिताजी से किसी बात पर लंबी बहस हो गयी और पौस्त में मेरी गुड व्वाय की इमेज खंडित हो गयी और आत्मविश्वास मजबूत. आपके हर सवाल का जवाब देने की कोशिस करूंगा जहां अक्षम होऊंगा माफी मांग लूंगा. लेकिन आप सवाल नहीं करते मुझे निराधार विशेषणों से नवाजते हैं. निजी आक्षेप भी करें तो तर्कों-तथ्यों के आधार पर तालिबानी फतवेबाजी की तर्ज पर नहीं. मैं बहुत आशावादी शिक्षक हूं, हार नहीं मानता. एक बार किसी संदर्भ में एक मित्र ने कहा कि गधे को रगड़ रगड़ कर घोड़ा नहीं बनाया जा सकता, मैंने कहा था कि मेतरा काम है रगड़ते रहना, क्या पता कुछ बन ही जायें और अंततः लगभग सभी बन गये.
कुतर्क तो आप कर रहे हैं बंधु, साफ साफ बताइे कौन सी बात आप को कुतर्क लगती है, दिमाग का इस्तेमाल करें तोतागीरी बंद करें. मेरा कुछ नहीं आप अपने ही घटिया संस्कारों को उजागर कर रहे हैं. आप जैसे बंद दिमाग मोदियाये हुए संघी से विमर्श का प्रयास समय की बर्बादी है.

Shivam Singh एक अच्छा शिक्षक वह होता है जिसकी बात सर के ऊपर से नहीं सर के अंदर से गुजरे, मुझ जैसे मूढ़ की भी समझ में आ जाये. जो मूर्ख-फरेबी किस्म के शिक्षक हैं वे अपनी कमी को छिपाने के लिए गोल-मटोल बातें करते हैं और विद्यार्थी की समझ में नहीं आता तो कहता है कितने अच्छे शिक्षक हैं इनकी कोई बात ही समझ में नहीं आती, यानि पढ़ाना व्यर्थ गया. गुरू जी जरा सरल भाषा में समझा दीजिए . मैं तो जो विषय यमफिल के छात्रों को समझाता हूं, वही किसान-मजदूरों की स्टडी क्लास में भी समझा देता हूं जो घंटों चलती है और पर्याप्त आनंद आता है. 

2 comments:

  1. दिमाग से पैदल लोग देने को तत्पर हैं कन्यादान महादान साहिबान ।

    ReplyDelete
  2. और लड़ने का तैयार परम्परा के नाम पर

    ReplyDelete