Monday, April 14, 2014

यूटोपिया

जब तक कुछ फलीभूत नहीं होता तब तक लोग उसे यूटोपिया कहते हैं. हमारे बचपन में दलित और नारी चेतना और प्रज्ञा एवं दावेदारी की बातें यूटोपिया करार कर दी जातीं. फरवरी 1917 से अप्रैल 1917 तक बॉल्सेविक क्रांति एक अतिउत्साही यूटोपिया माना जा रहा है, किसने सोचा था कि अक्टूबर 1917 के 10 दिन दुनिया हिला देंगे? 1950-60 के दशक में कोइ कहता कि अमेरिका में अश्वेत राष्ट्रपति की कल्पना यूटोपिया मानी जाती. परिवर्तन यद्यपि मात्रात्मक ही है. भरत जानते हैं कि 1982 में अपनी बहन की पढ़ाई के लिए युद्ध-स्तर की जद्दो-जहद करना पड़ी थी, आर्थिक पहलू पर कोई बहस ही नहीं थी. आज किसी बाप की औकात है सार्वजनिक रूप सो घोषणा करने की कि वह बेटा-बेटी में फर्क करता है? भले ही एक बेटे के लिए ५ बेटियाँ पैदा कर ले.1970 के दशक में इलाहबाद विवि में दलितों का लग मेस होता था आज किसी की हिम्मत है, कह सके कि दलितों का मेस अलग होना चाहिए? कितना बड़ा जातिवादी क्यों न हो.इसे मैं नारीवाद और जातिवाद की क्रमशः सैद्धांतिक विजय और पराजय मानता हूँ जो समय के साथ व्यवहार रूप लेते जायेंगे.  ये मात्रात्मक परिवर्तन अवश्य ही गुणात्मक परिवर्न बनेगें, क्योंकि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता. फासला समय का है और मामला क्रांतिकारी जनचेतना के प्रसार के वेग और त्वरण का है.

इतिहास के गतिविज्ञान की कोई समयसूची नहीं बनाई जा सकती. सारा मामला भीड़-चेतना से जनचेतना की यात्रा का है. राज्य के वैचारिक औजार और प्रतिगामी संस्कार लगातार  एक अधोगामी युगचेतना के जरिए जनचेतना की धार कुंद करने में व्यस्त रहते हैं. इस कारपोरेटी युगचेतना को ध्वस्त कर जनवादी युग चेतना की आवश्यकता है जो अवश्यंभावी है. बुरी है आग पेट की बुरे हैं दिल के दाग ये न बुझ सकेंगे एक दिन बनेंगे इंक़िलाब ये.

Change is the eternal law of nature. Everything in the universe is in continuous state of change and flux. "The only constant is change itself", as has rightly been  said by the ancient Greek Philosopher, Heraclitus, "you don't step into the same river twice".  The point is to progressively influence the change.

2 comments: