सच कहते हो मेरे बस की नहीं ये दुकानदारी औकात इतनी भी नहीं कि कर सकूं खरीददारी नहीं है चलाना लूट-खसोट की ये दुकान बनाना है इसको मुनाफे का शमसान बसायेंगे उस पर एक नया सुंदर संसार गुलामी और गरीबी हो जायेंगी फरार समानता के सुख का होगा आविष्कार मुक्त होगी समाज की सर्जना अपार न कोई अट्टालिका न मलीन बस्ती मनाएंगे सभी भाईचारे की मस्ती मिल-जुलकर सब कमाएंगे मिल-बांटकर सब खायेंगे क्षमता भर सभी श्रम-शक्ति लगायेंगे जरूरत होगी जितनी उतनी सब पायेंगे मानवता को होगा अनूठे सुख का आभास न होगा कोई स्वामी न ही कोई दास होगी नफरत नदारत औ मुहब्बत आबाद. इंक़िलाब जिंदाबाद
It has always been`a difficult task to write about myself, that should be left for the posterity, if there is anything worth writing.I am an ordinary human-being in unceasing pursuit of comprehension of the world to change. I am temperamentally a teacher and now, coincidentally professionally also.In short:a self-claimed Marxist; authentic atheist; practicing feminist; conscientious teacher and honest, ordinary individual, technical illegalities apart.
और ये दुकानदारी तेरे बस की नहीं
ReplyDeleteना ही हो पायेगा कभी खरीद दार भी ।
सच कहते हो मेरे बस की नहीं ये दुकानदारी
ReplyDeleteऔकात इतनी भी नहीं कि कर सकूं खरीददारी
नहीं है चलाना लूट-खसोट की ये दुकान
बनाना है इसको मुनाफे का शमसान
बसायेंगे उस पर एक नया सुंदर संसार
गुलामी और गरीबी हो जायेंगी फरार
समानता के सुख का होगा आविष्कार
मुक्त होगी समाज की सर्जना अपार
न कोई अट्टालिका न मलीन बस्ती
मनाएंगे सभी भाईचारे की मस्ती
मिल-जुलकर सब कमाएंगे
मिल-बांटकर सब खायेंगे
क्षमता भर सभी श्रम-शक्ति लगायेंगे
जरूरत होगी जितनी उतनी सब पायेंगे
मानवता को होगा अनूठे सुख का आभास
न होगा कोई स्वामी न ही कोई दास
होगी नफरत नदारत औ मुहब्बत आबाद. इंक़िलाब जिंदाबाद