इस ग्रुप में भाषा के तल्ख तेवर की स्वागतयोग्य आलोचना पर पेश अपनी सफाई यहां पेश कर रहा हूं. कोई भी बात या आलोचना से परे नहीं है. हर बात पर प्रश्न-प्रतिप्रश्न ही ज्ञान की कुंजी है. लेकिन इसकी निरंतरता में नास्तिकता का रिस्क है, इसी ने मुझ जैसे कर्मकांडी संस्कारों के सीधे-सादे ब्राह्मण बालक को नास्तिक और ब्राह्मणवाद(वर्णाश्रमवाद) विरोधी (ब्राह्मण विरोधी नहीं) दिया. इस ग्रुप में सामाजिक सरोकार युक्त सार्थक विमर्श में योगदान कर पाना मेरा अहोभाग्य होगा. कुछ मित्रों का आरोप है कि मैं असहमति के प्रति असहिष्णु हूं. निराधार निजी आक्षेप या गाली गलौच कम बर्दास्त है तो उन्हें यह कहकर संवाद बंद कर देता हूं कि भाषा की तमीज समादीकरण का परिणाम होता है और सीखने की कोई उम्र नहीं होती. शिक्षक पढ़ाता ही नहीं लगातार सीखता भी है. ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है.
Krishna Mohan Singh ठीक कह रहे हैं, कई बार फौरी, स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया में अनजाने में भाषा आक्रामक (तीखी) हो जाती है और उसे मैं वैसे ही रहने देता हूं, अपने को आश्वस्त करने के लिए कि क्रोध और आवेश जैसी मानवीय प्रवृत्तियों से युक्त साधारण इंसान हूं. यदि कोई बात खुद को बहुत अनुचित लगती है तो अफ्शोस जाहिर कर मॉफी मांग लेता हूं क्योंकि हम सब साधारण इंसान हैं और गलती कर सकते हैं, उसे न मानना आपराधिक है. लेकिन जब कोई बातों को काटने की बजाय निराधार निजी आक्षेप पर उतर आता है तो क्रोध स्वाभाविक होता है जिसपर अंकुश लगाना चाहिए क्योंकि क्रोध प्रायः आत्मघाती होता है. हमेशा क्रोध से बचने की कोशिस करता हूं फिर भी आ ही जाता है. लेकिन कई बार जान-बूझ कर आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करता हूं, कल्चरल शॉक के लिए, जैसे पितृसत्ता या पुरुषवाद की जगह जानबूझकर मर्दवाद लिखता हू. मोदीभक्ति को मोदियापा लिखता हूं. कई बार लगता है कआश मैं भाषाविद होता या भाषा ही समृद्ध होती, ज्यादा आक्रामक शब्दों के लिए. मेरा मकसद ये सब करने के पीछे अंधविश्वासी, सांप्रदायिक, पूंजीवादी, जातिवादी, मर्दवादी.. युगचेतना के विरुद् एक वैज्ञानिक जनचेना का अभियान है. हर मनुष्य चिंतनशील प्राणी है इसीलिए मैं दिमाग के इस्तेमाल के लिए लोगों को कुरेदता रहता हूं जिसे समाज पालन-पोषण और शिक्षा के दौरान पुरातन के मोह और नये के भय के भावों के दोहन से संस्थागत रूप से हतोत्साहित और कुंद करता है, क्योंकि जिस दिन लोग दिमाग का स्वतंत्र इस्तेमाल करके दुनिया की तथ्य-तर्क आधारित समझ विकसित करलेंगे शासक युग चेतना का वैचारिक वर्चस्व तोड़ते हुए जनवादी जनचेतना बन जायेगी और बनेगी ही उस दिन धूर्तता पर आधारित भेदभाव की व्यवस्था दरकना शुरू हो जायेगी और आशावादी हूं कि आने वाली पीढ़ियां हमारे अभियान को त्वरण प्रदान करेंगी और एक-न-एक दिन मानव-मुक्ति के सपनों को साकार करेंगी. हमारा दायित्व है कि विवेक सम्मत समझ विकसित करने के अनवरत प्रयास के साथ मानव-मुक्ति के अभियान में सामर्थ्य भर योगदान करते रहें. (मास्टरों को मौका मिले तो रुकते ही नहीं, 2 वाक्य लिखने की सोचा और....हा हा). एक बात और हम अक्सर पैसिव वॉयस में बात करते हैं. यह हो गया. अरे भाई अपने आप कुछ नहीं होता. मैं ऐकटिव वॉयस में बात रखने का हिमायती हूं.
Pramod Shukla भाषाी की मर्यादा का मानदंड क्या होगा? मैंने कभी नहीं कहा मैं कोई वादी हूं लेकिन जैसे ही कोई तर्कसंगत बात करता हूं कुछ खास तरह के लोग बौखलाकर मर्क्सवाद का मर्सिया पढ़ने लगते हैं मौं इसे कांप्लिमेंट के तौर पर लेता हूं अंध, अतार्किक दृढ़ आस्था और खूंटा यहीं गड़ेगा की प्रवृत्ति के बारे में आश्वस्त हो उनसे विदा ले लेता हूं. इसे संघी प्रवृत्ति कहा जाता है. जो व्यक्ति भाषा-इतिहास-विनम्रता की सारी मर्यादायें तोड़कर हुंकार और ललकार के शगूफे छोड़े उसे फेंकू से बेहतर किस सर्वनाम से पुकारा जाय? जो व्यक्ति हजारों निर्दोषों को मौत के घाट उतारने, सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार, बेघर करने के नाडक की पटकथा लिखने के बाद शौर्य दिवस मनाये उसे नर पिशाच से बिहतर उमसा क्या दिया जाय. इनका ईजाद मैंने नहीं किया मैं सिर्फ प्रयाग करता हूं. मैंने कभी किसी को निजी रूप से कभी कुछ नहीं कहा. तानाशाह सफाई घर से शुरू करता है, इतिहास गवाह है.
Shweta Mishra विमर्श की धार भाषा के तल्ख तेवर से नहीं, विषयांतर, कुतर्क, फतवेबाजी और निराधार निजी आक्षेपों कुंद होती है और भच जाती है, और अंध आस्था का कुतर्क कुछ हद तक सफल हो जाता है. जैसे बात कोई भी हो लेकिन संघी धमकी भरे शब्द में एक ही बात कहेगा. 16 मई को देख लेंगे. तब तक आंख बंद रखेंगे. मेरे इनवॉक्स में मां-बहन कती गालियां देते हैं और मैं उन्हें ब्लाॉक कर देता हूं.
Krishna Mohan Singh ठीक कह रहे हैं, कई बार फौरी, स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया में अनजाने में भाषा आक्रामक (तीखी) हो जाती है और उसे मैं वैसे ही रहने देता हूं, अपने को आश्वस्त करने के लिए कि क्रोध और आवेश जैसी मानवीय प्रवृत्तियों से युक्त साधारण इंसान हूं. यदि कोई बात खुद को बहुत अनुचित लगती है तो अफ्शोस जाहिर कर मॉफी मांग लेता हूं क्योंकि हम सब साधारण इंसान हैं और गलती कर सकते हैं, उसे न मानना आपराधिक है. लेकिन जब कोई बातों को काटने की बजाय निराधार निजी आक्षेप पर उतर आता है तो क्रोध स्वाभाविक होता है जिसपर अंकुश लगाना चाहिए क्योंकि क्रोध प्रायः आत्मघाती होता है. हमेशा क्रोध से बचने की कोशिस करता हूं फिर भी आ ही जाता है. लेकिन कई बार जान-बूझ कर आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करता हूं, कल्चरल शॉक के लिए, जैसे पितृसत्ता या पुरुषवाद की जगह जानबूझकर मर्दवाद लिखता हू. मोदीभक्ति को मोदियापा लिखता हूं. कई बार लगता है कआश मैं भाषाविद होता या भाषा ही समृद्ध होती, ज्यादा आक्रामक शब्दों के लिए. मेरा मकसद ये सब करने के पीछे अंधविश्वासी, सांप्रदायिक, पूंजीवादी, जातिवादी, मर्दवादी.. युगचेतना के विरुद् एक वैज्ञानिक जनचेना का अभियान है. हर मनुष्य चिंतनशील प्राणी है इसीलिए मैं दिमाग के इस्तेमाल के लिए लोगों को कुरेदता रहता हूं जिसे समाज पालन-पोषण और शिक्षा के दौरान पुरातन के मोह और नये के भय के भावों के दोहन से संस्थागत रूप से हतोत्साहित और कुंद करता है, क्योंकि जिस दिन लोग दिमाग का स्वतंत्र इस्तेमाल करके दुनिया की तथ्य-तर्क आधारित समझ विकसित करलेंगे शासक युग चेतना का वैचारिक वर्चस्व तोड़ते हुए जनवादी जनचेतना बन जायेगी और बनेगी ही उस दिन धूर्तता पर आधारित भेदभाव की व्यवस्था दरकना शुरू हो जायेगी और आशावादी हूं कि आने वाली पीढ़ियां हमारे अभियान को त्वरण प्रदान करेंगी और एक-न-एक दिन मानव-मुक्ति के सपनों को साकार करेंगी. हमारा दायित्व है कि विवेक सम्मत समझ विकसित करने के अनवरत प्रयास के साथ मानव-मुक्ति के अभियान में सामर्थ्य भर योगदान करते रहें. (मास्टरों को मौका मिले तो रुकते ही नहीं, 2 वाक्य लिखने की सोचा और....हा हा). एक बात और हम अक्सर पैसिव वॉयस में बात करते हैं. यह हो गया. अरे भाई अपने आप कुछ नहीं होता. मैं ऐकटिव वॉयस में बात रखने का हिमायती हूं.
Pramod Shukla भाषाी की मर्यादा का मानदंड क्या होगा? मैंने कभी नहीं कहा मैं कोई वादी हूं लेकिन जैसे ही कोई तर्कसंगत बात करता हूं कुछ खास तरह के लोग बौखलाकर मर्क्सवाद का मर्सिया पढ़ने लगते हैं मौं इसे कांप्लिमेंट के तौर पर लेता हूं अंध, अतार्किक दृढ़ आस्था और खूंटा यहीं गड़ेगा की प्रवृत्ति के बारे में आश्वस्त हो उनसे विदा ले लेता हूं. इसे संघी प्रवृत्ति कहा जाता है. जो व्यक्ति भाषा-इतिहास-विनम्रता की सारी मर्यादायें तोड़कर हुंकार और ललकार के शगूफे छोड़े उसे फेंकू से बेहतर किस सर्वनाम से पुकारा जाय? जो व्यक्ति हजारों निर्दोषों को मौत के घाट उतारने, सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार, बेघर करने के नाडक की पटकथा लिखने के बाद शौर्य दिवस मनाये उसे नर पिशाच से बिहतर उमसा क्या दिया जाय. इनका ईजाद मैंने नहीं किया मैं सिर्फ प्रयाग करता हूं. मैंने कभी किसी को निजी रूप से कभी कुछ नहीं कहा. तानाशाह सफाई घर से शुरू करता है, इतिहास गवाह है.
Shweta Mishra विमर्श की धार भाषा के तल्ख तेवर से नहीं, विषयांतर, कुतर्क, फतवेबाजी और निराधार निजी आक्षेपों कुंद होती है और भच जाती है, और अंध आस्था का कुतर्क कुछ हद तक सफल हो जाता है. जैसे बात कोई भी हो लेकिन संघी धमकी भरे शब्द में एक ही बात कहेगा. 16 मई को देख लेंगे. तब तक आंख बंद रखेंगे. मेरे इनवॉक्स में मां-बहन कती गालियां देते हैं और मैं उन्हें ब्लाॉक कर देता हूं.
जो सही होता है वही उसी रूप में निकलता है भगवान भी तो 33 करोड़ हैं किस समय कौन टपक जाये कभी बता के आते हैं क्या ? लिखते रहिये जैसा मन में आता है समझने वाला अपने हिसाब से उसमें से अच्छा निकाल कर समझ ले अगर कुछ उसे पसंद नहीं आता है :)
ReplyDeleteअपन काम लिखते रहना है, शायद कुछ समझ जायें
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