कई बार हम यादों में ऐसे खो जाते हैं कि वर्तमान में अतीत खोजने लगते हैं, विवेक और संवेग की समानुपातिक द्वंदात्मक एकता स्थापित करने की बजाय हम संवेग को विवेक पर हावी होने देते हैं जो भविष्य को बाधित करता है. मुझे ऐसा ही लगता है लेकिन कई बार संवेग में बहना हमारे बस में नहीं होता उसी तरह जैसे कई बार क्रोध बस में नहीं रहता. ऐसे में अंतरात्मा से मुखातिब होना चाहिए.
कई बार हम यादों में ऐसे खो जाते हैं कि वर्तमान में अतीत खोजने लगते हैं, विवेक और संवेग की समानुपातिक द्वंदात्मक एकता स्थापित करने की बजाय हम संवेग को विवेक पर हावी होने देते हैं जो भविष्य को बाधित करता है. मुझे ऐसा ही लगता है लेकिन कई बार संवेग में बहना हमारे बस में नहीं होता उसी तरह जैसे कई बार क्रोध बस में नहीं रहता. ऐसे में अंतरात्मा से मुखातिब होना चाहिए.
कई बार हम यादों में ऐसे खो जाते हैं कि वर्तमान में अतीत खोजने लगते हैं, विवेक और संवेग की समानुपातिक द्वंदात्मक एकता स्थापित करने की बजाय हम संवेग को विवेक पर हावी होने देते हैं जो भविष्य को बाधित करता है. मुझे ऐसा ही लगता है लेकिन कई बार संवेग में बहना हमारे बस में नहीं होता उसी तरह जैसे कई बार क्रोध बस में नहीं रहता. ऐसे में अंतरात्मा से मुखातिब होना चाहिए.
सही बात :)
ReplyDeleteji
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