डर गए थे वे इसीसे कि हमने डरना छोड़ दिया
विक्षिप्त हो गए जो हमने लड़ना सीख लिया
देख हमारी निर्भीक जुर्रत हुआ उन्हें संताप
बदले में करते हैं डराने का आत्मघाती प्रलाप
बन गया है कलम हमारा अब परमाणु बम
मंज़िलें जुल्मी वर्चस्व की ढहेंगी धमाधम
खंडहर को इस दुर्मिग के करेंगे हम समतल
बनाएंगे इंसानियत का इक सुंदर महल
न होगा कोई आम वहां न ही कोई खास
वर्चस्व की होगी नहीं कोई भी बकवास
होंगे रिश्ते पारदर्शी जनतांत्रिक पारस्परिता के
अवश्यंभावी मानव -मुक्ति की दूरदर्शिता के
[ईमि/06.01.2014]
हमारे नहीं डरने का कहाँ फर्क पड़ा है उनपर बैखोफ हैं वो जैसे थे !
ReplyDeleteपड़ेगा लेकिन लड़ना पड़ेगा.
ReplyDeleteHats off!
ReplyDeletesalam
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