Thursday, January 2, 2014

क्षणिकाएं 8 (276-300)

276
कम होता जायेगा हर रोज एक एक दिन
इसीलिए मक्सद से जिओ ज़िंदगी का एक एक पल
[ईमि/27.10.2013]
277
आंखो का सुकून और दिल की आवारगी
कानों के सुख से मिली स्वाद की सादगी
उन गुलों की सुगंध है नीकों में आज भी
चाहिए इस ज़िंदगी महज़ दोस्ती आपकी
[ईमि/28.10.2013]
278
रिश्तों की रश्म तो सभी निभा लेते हैं
बिरले ही जीते हैं रिश्तों की कशिश में
[ईमि/28.10.2013]
279
इस लड़की के चेहरे पर है जो संचित पीड़ा
और आंखो में उमड़ता तकलीफ़ का समंदर
देता है आभास बदलने की यह दुनियां
[ईमि/08.11.2013]
280
न धर्म को मानता हूं न धर्म की
कद्र करता हू इन्सानी कर्म की
खुदा के अमूर्त भय का पाखंड-तंत्र
है सभी मज़हबों का कारगर मंत्र
दिखाता है मजहब  डर दोजख-ओ-खुदा का
हरकारा है मगर यह हर फरेबी नाखुदा का
छोड़ दो ग़र डरना भूत-ओ-भगवान से
बढ़ोगे राह-ए-इंसानियत पर निडर इंसान से
[ईमि/17.11.2013]
281
क्या कहती हैं ये चकित हिरनी सी आंखें
और चिंता-मग्न हाव-भाव
काली घटा सी ज़ुल्फें और
विप्लवी रुमानियत भरा स्वभाव
करता है मन करने को इश्क
भूलकर उम्र का भेदभाव
[ईमि/17.11.2013]
282
प्यार की खुमारी में लिखे थे जो दो शब्द
गवाह हैं उन अंतरंग क्षणों के थे जो निःशब्द
पन्ने कभी खाली नहीं होते प्यार की किताब के
होते हैं उन पर अनक्षर गीत यादों और खाब के
नहीं होता कभी भी दिल में निर्वात
पहले तुम थे अब है वहां अवसाद
[ईमि/17.11.2013]
283
है इन आंखों में तक़लीफ का इक उमड़ता हुआ समंदर
छिपे हैं हर वर्जना तोड़ने के जज्बात उनके अंदर
284
है  इन आँखों में समाया हुआ दर्द-ए-ग़म-ए-जहां
चेहरे पर लिखा है तकलीफों का मुकम्मल फसाना
चल रहा है मन में नये खयालों का उहा-पोह
रचने को कुछ नया पुराने का छोड़ मोह
भरेगी जब यह नभ के पार की नई उड़ान
रोक नहां सकेंगे इसको आँधी-तूफान
[ईमि/17.11.2013]
285
इश्क की कोई उम्र नहीं होती हुज़ुर
माशूक भी इन्सान है न कि कोई हूर
मुझे तो वैसे भी जीना है 135 साल
रहे क्यों मन में ना-आशिकी का मलाल
[Ish/19.11.2013]
286
नही बदला है अंदाज़-ए-बयाँ अभी तक हमने
मज़ा आता है आज भी  मात देने में फरिश्तों को
भूल जाता हूँ वक़्त की तेज उड़ान
उसी मजे से जीता हूँ आज भी पुराने रिश्तों को.
[ईमि/21.11.2013]
287
एक गज़लगो ने की शिकायत आवाम से
ग़ज़लों को उनकी निमोनिया हो गया
मैंने बता दिया नुस्खा-ए-इलाज
बिन मांगी राय की तर्ज पर
गज़ल का निमोनिया तो महज़ लक्षण है
रोग की जड़ तक जाइए
सीने पर जन सरोकारों का गर्म घी लगाइए
दीजिए जोर दिमाग पर
विचारों को मज़लूम के हक़ से जोड़िए
फिर शब्दों के कोलाहल से क़ोहराम मचाइए
ईमि/23.11.2013]
288
रहता हूं अक्सर सजग शब्दों के चुनाव में
होता नहीं मूल्य- निरपेक्ष कोई भी शब्द
देने को शाबाशी किसी लड़की को
आदतन निकलने को होता जैसे ही वाह बेटा
टोकता हूं आदत को समझ इसका मर्दवादी मर्म
और कहता हूँ वाह बेटी.
[ईमि/23.11.2013]
289
हों अग़र इरादे बुलंद और निष्ठा निष्कपट
तो चलता है जब ख़ाहिशों का कारवानेजुनून
दृष्टि सीमा में होती है मंज़िल
और रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं
[ईमि/24.11.2013]
290
निकलता नही चाँद अमावस की  रात
क्यों करते हैं इंतजार तहे रात उसका
पाने को मोती थहाना होता है उदधि
व्यर्थ है रेगिस्तान में तलाश उसका
[ईमि/24.11.2013]
291
छटपटा रहा हूँ कब से
पाने को मुक्ति हाथ की लकीरों से
आतुर समाने को आलिंगन में तुम्हारे
चाहता हूं खो जाना
अनाभूत यादों के बियाबान में
रुसवाई का आलम है जमाने की करतूत
मिलताहै परसंताप जिसे
मुखातिबियत को रोकने में
और आरजू-ए-दिल को तोड़ने में
मारते हैं  इस ज़ालिम ज़माने को गोली
लग जाते हैं गले छोड़ कर आंख मिचौली
[ईमि/24.11.2013 ]
292
क्या कहें उन लोगों को
एक है दुनिया की जनसंख्या जिनके लिए
शेष दृष्टि-सीमा लांघ जाती है
अर्जुन के लक्ष्य के व्यर्थ भागों की तरह
[ईमि/24.11.2013]
293
ओस पिघलाने के ताप के लिए
ओलों की बूंदा-बांदी में निकल पड़े उदधि थहाने
और दीप जलाने अमावस की रात में
[ईमि/25.11.2013]
294
हर निशा एक भोर का ऐलान है
हर पतन का अंत में उत्थान है
[ईमि/25.11.2013]
295
कौन कर सकता है रुसवा उसे
जिसकी बावफा खुदी हो
[ईमि/25.11.2013]
296
बड़ी है बहुत नटों-भांटों की जमात
मुर्दापरस्तोंबुतपरस्तों का ये समाज
[ईमि/26.11.2013
297
हैं इन  आंखो में क्या अन्वेषी भाव
दुनियां का मर्म समझने का चाव
यह चिंतनशील मंद मुस्कान
कर रही है जंग-ए-आज़ादी को ऐलान
[ईमि/26.11.2013]
298
तूफान-ए-जनवाद से आएगा इंकलाब
लाएगा जो मजदूर-किसान का राज
मानवता तभी होगी आज़ाद
होगी खुशहाली धरती पर आबाद
[ईमि/26.11.2013]
299
फेसबुक पर लगी है विद्वानों की भीड़
बहुतों की बातों में गायब लेकिन रीढ़
गायब लेकिन रीढ़ मगर इससे न डरिए
बेहूदी बातों के बाद भी ब्लॉक इन्हें न करिए
चिल्ला-चिल्ली करके हो जाएंगे ये चुप
जग-जाहिर कर देंगे मूर्खता का रूप
मूर्खता का रूप होता अजब अनोखा
बिना फिटकिरी-हल्दी के रंग हो जाता चोखा
[ईमि/26.11.2013]
300
लगी हैं तख्तियां है नही ये आम रास्ता
खासों की महफिल से मेरा क्या वास्ता
लगाओगे जब कभी आम महफिल
ललकेगा पहुंचने को वहां मेरा दिल

[ईमि/28.11.2013]

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