Monday, January 6, 2014

क्षणिकाएं 11 (321-330)

321
दर्द के बदले दर्द पुरानी रवायत है
खुशी ही आलम है नये जमाने का
मिलती हो जो मोहब्बत से वो दर्द नहीं
उसे कोई और नाम दो
दर्द के शाये में भरो थोड़ी उमंग
फिर देखो तो जरा शाये का रंग
बनाओ दर्द को नारा-ए-ज़ंग-ए-आज़ादी
ओस से निकलनी चाहिए अब एक महानदी
[ईमि/13.12.2013]
322
मैनें सोचा रहा होगा कोई गुलाम-ए-जर
निकला मगर ये तो क़ातिल-ए-नज़र
13.12.2013
323
एक खनक के लिए टूटना वाजिब नहीं
मुखर खामोशी का यह जवाब नहीं
[ईमि/12.12.2013]
324
अपनी मौत की साज़िश का  लगता है तुमको था पूर्वाभास
घुटते रहे अंदर ही अंदर नहीं होने दिया किसीको आभास
खुशी में तुम्हारी मौत की हो गई हैं क़ातिलों की साज़िशें तेज
चलेगा मुकदमा अब लाश पर है यह क़ाजी-ए-चैनल का आदेश
बाकी है अभी हिसाब हत्या की जहमत और खंज़र के खम का
है यही अब आलम चैनली खाप पंचायती जनमत का
लाश को किया जायेगा क़ैद आ गया क़ाजी-ए-चैनल का फैसला
ईमि/२२.१२.२०१३]
325
तुम पहुँच गए छल-कपट की इस दुनिया के पार
कोइ नहीं कर सकता अब तुमसे कोइ पत्र-व्यव्हार
चला रहे हैं लोग मुकदमा तुम्हारी लाश पर
तरस आता है इनके ओछे उपहास पर
सबूत के तौर पर दे दिया तुमने जान
हो रहा हत्यारों को फिर भी नहीं इत्मिनान
[ईमि/२२.१२.२०१३]
326
लाश असावधान हो जाती है
दुनियादारी के लफड़ों से अनजान हो जाती है
उसको कैद करने का सवाल
है नासमझी की मिसाल
327
टपकता है जो ओस नहीं
नासमझी है दोष नहीं
328
एकुम जनवरी नवा साल है
दिसंबर में पूछेंगे क्या हाल है
फिर भी मुबारक हो तुमको नया साल
करते रहो नए नए धमाल
करता हूं दुआ तुम्हारे उत्थान का
शुरुआत हो ये ज़िंदगी की नई उड़ान का
गढ़ो ऊंचाई की नई परिभाषा का कीर्तिमान
रोक सके न जिसको कोई भी आसमान
[ईमि/31.12.2013]
(2013 की अंतिम तुकबंदी)
329
(2014 की पहली तुकबंदी)
हर नए साल में अपना होता एक ही अरमान
बंद कर दे लूटना इंसान को इंसान
छोटा बड़ा न हो कोई सब हों एक समान
खत्म हों लूट-मार के मजहबी फरमान
मिले मेहनतकश को भी वाज़िब सम्मान
बीते हर साल पर होता रहा  अफसोस
नाइंसाफ निजाम पर कोपा न जनाक्रोष
रचो इस नए साल में एक नया विहान
जुटाओ दोस्ती और अमन-चैन के सामान
[ईमि/01.01.2014]
330
भरो नए साल में नई उड़ान
गढ़ो नई ऊचाइयां
बनाओ नए कीर्तिमान
चमको गगन में
किसी सूरज के समान
नए साल की बधाइयां

[ईमि/01.01.2014]

2 comments: