1980 के दशक के अंतिम वर्ष भारत की संसदीय राजनीति में उथल-पुथल तो नहीं कहूंगा, लेकिन उहा-पोह के साल थे. इन्ही दिनों कम्युनिस्ट(माले) आंदोलन के लिबरेसन धड़े के शीर्ष नेतृत्व की संसदीय महत्वाकांक्षाओं के चलते जन-संघनों में बिना किसी विचार-विमर्श के ग्लास्तनोस्त हो गया और हथियारबंद दस्तों को लाल सलाम कह दिया. अब तो ढाई दशक से अधिक समय हो गया और बंदूकों में जंग लग गया होगा.
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