Laxman Singh Dev हमने उस इलाके में बहुत लोगों से मुलालाकात किया किसी ने इसका ज़िक्र नहीं किया और न ही डीयम और एसएसपी से इसकी जानकारी मिली. हमें पता होता तो हम वहां भी जाते. कोई भी पीड़ित सबसे पहले इंसान होता है. इसे जानबूझकर हिंदू-मुस्लिम दंगा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है जबकि यह संघ पोषित कुछ जाटों और पसमांदा मुलमानों का झगड़ा है. मित्र, रक्तपात के इतिहास में प्रायः गरीब ही गरीब को मारता आया है क्योंकि चालाक अमीर उनके अज्ञान, धर्मांधता एवं अंध आस्था का लाभ उठाकर गरीब को गरीब ससे लड़ाकर निहित स्वार्थ साधते रहे हैं. लेकिन यह दंगा अमीर का गरीब पर हमला था, राहत शिविरों में एक भी मूले जाट नही था.
शिविरों में ठंड और बीमारी से मरने वालों बच्चों को कब्र की भी दिक्कत थी. उकसावे वाले नारे लगाते हुए 7 सितंबर को निसाड़ महापरंचायत से लौटते हुए ट्रैक्टरों पर पत्थरबाजी पुर बालियान में हुई थी जिसमें काकड़ा गांव के 3 जाटों की मृत्यु हो गयी थी जिसकी प्रतिक्रिया में में काकड़ा एवं मुजफ्परपुर तथा शामली के अन्य संघ-प्रभावित जाट-वर्चस्व के गावों में अगले दिन पासमांदा जातियों के भूमिहीन, कामगर मुसलमानों पर कहर बरपा, धनी मुले जाट-वर्चस्व का गांव (कस्बा) है. पुरबालियान के किसी जाट पर कोई हमला नहीं हुआ. शाहपुर कैंप से मुसलमानों से खाली काकड़ा के रास्ते में हमलोग दो सुगर क्रशर्स (कोल्हू) पर ताजा गुड़ और शकर खरीदने रुके (27 नवंबर) और वहां बैठकी करते लोगों से बातें की. दोनों ही मुले जाटों के थे और बैठकी में हिंदू-मुसलमान दोनों थे. काकड़ा के नजदीक वाले क्रशर पर तो हमारी मुलाकात बालियान खाप के काकड़ा सुगर कोआपरेटिव के अध्यक्ष से हुई जिन्होने गांव में बवाल के लिए कुछ बाहरी तत्वों के हाथ की बात किया, जो ऊपर के लिंक की हमारी रिपोर्ट में है. शाहपुर कैंप में दुलेहरा के 70 शरणार्थी थे जिनमें 5 जमीन जायदाद वाले मूले जाट वापस जा चुके थे बाकी विभिन्न कामगर जातियों के परिवार शिविर में ही थे. मैं सिर्फ इसलिए इस बात पर जोर दे रहा हूं क् युद्ध और दंगों में मरने-मारने वाले प्रायः गरीब ही होता है. गरीब जिसदिन धर्शाम-जाति आदि की मिथ्या चेतना से मुक्त हो शासक वर्गों की ये चालें समझ जाएगा उस दिन दुनिया में हर जगह नफरत फैलाकर राज करने वालों की कब्रें खुदेंगी, वो दिन कभी तो आएगा ही.
और हां, सिर्फ संघ प्रभाव वाले जाट-वर्चस्व के गावों में ही उत्पात मचे. बाकी फिर.
शिविरों में ठंड और बीमारी से मरने वालों बच्चों को कब्र की भी दिक्कत थी. उकसावे वाले नारे लगाते हुए 7 सितंबर को निसाड़ महापरंचायत से लौटते हुए ट्रैक्टरों पर पत्थरबाजी पुर बालियान में हुई थी जिसमें काकड़ा गांव के 3 जाटों की मृत्यु हो गयी थी जिसकी प्रतिक्रिया में में काकड़ा एवं मुजफ्परपुर तथा शामली के अन्य संघ-प्रभावित जाट-वर्चस्व के गावों में अगले दिन पासमांदा जातियों के भूमिहीन, कामगर मुसलमानों पर कहर बरपा, धनी मुले जाट-वर्चस्व का गांव (कस्बा) है. पुरबालियान के किसी जाट पर कोई हमला नहीं हुआ. शाहपुर कैंप से मुसलमानों से खाली काकड़ा के रास्ते में हमलोग दो सुगर क्रशर्स (कोल्हू) पर ताजा गुड़ और शकर खरीदने रुके (27 नवंबर) और वहां बैठकी करते लोगों से बातें की. दोनों ही मुले जाटों के थे और बैठकी में हिंदू-मुसलमान दोनों थे. काकड़ा के नजदीक वाले क्रशर पर तो हमारी मुलाकात बालियान खाप के काकड़ा सुगर कोआपरेटिव के अध्यक्ष से हुई जिन्होने गांव में बवाल के लिए कुछ बाहरी तत्वों के हाथ की बात किया, जो ऊपर के लिंक की हमारी रिपोर्ट में है. शाहपुर कैंप में दुलेहरा के 70 शरणार्थी थे जिनमें 5 जमीन जायदाद वाले मूले जाट वापस जा चुके थे बाकी विभिन्न कामगर जातियों के परिवार शिविर में ही थे. मैं सिर्फ इसलिए इस बात पर जोर दे रहा हूं क् युद्ध और दंगों में मरने-मारने वाले प्रायः गरीब ही होता है. गरीब जिसदिन धर्शाम-जाति आदि की मिथ्या चेतना से मुक्त हो शासक वर्गों की ये चालें समझ जाएगा उस दिन दुनिया में हर जगह नफरत फैलाकर राज करने वालों की कब्रें खुदेंगी, वो दिन कभी तो आएगा ही.
और हां, सिर्फ संघ प्रभाव वाले जाट-वर्चस्व के गावों में ही उत्पात मचे. बाकी फिर.
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